Dependence on Dollar : अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश इसलिए नहीं है कि उसके पास बड़े-बड़े हथियार हैं, बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था भी बहुत मजबूत है. इसका एक कारण यह भी है कि उसकी करेंसी डॉलर आज सारी दुनिया में चलती ही नहीं, बल्कि दौड़ती है. डॉलर की अंतरराष्ट्रीय बाजार में साख है और इसके बिना देश व्यापार नहीं कर सकते. इसी ताकत और चलन के कारण उसे ‘यूनिवर्सल करेंसी’ कहा जाता है.
हर देश अपने पास विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में डॉलर रखना चाहता है, ताकि बाजार के उतार-चढ़ाव से वह महफूज रहे. और, यहीं पर पेंच है. देशों की डॉलर रखने की जरूरत या मजबूरी इसे बेहद मजबूत बना देती है. हालत यह है कि थोड़े से डॉलर के लिए कई देश अपने उत्पादों को वहां के बाजारों में बहुत सस्ते दामों में बेचते रहते हैं. इससे उन्हें नुकसान ही होता है, लेकिन डॉलर रखने की मजबूरी उन्हें ऐसा करने को बाध्य करती है. कई देश तो डॉलर न होने की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतर भी नहीं पाते और कई बार निहायत जरूरी सामान, जिनमें दवाएं भी हैं, खरीद नहीं पाते. हमने कोरोना के कहर के दौरान देखा है कि कई देश वैक्सीन सिर्फ इसी कारण से खरीदने में असमर्थ थे. यह तो भला हो भारत का, जिसने उस मुश्किल घड़ी में मजबूर देशों का साथ दिया. उसकी पहल से ही उनके करोड़ों लोगों को वैक्सीन मिल पायी. पाकिस्तान में आज खाद्य पदार्थों की भारी कमी है और वह उन्हें खरीदने की स्थिति में नहीं है क्योंकि न केवल उसके पास डॉलर की कमी है, बल्कि उसने भारत से अपना कारोबार बंद कर रखा है. अगर वह भारत से व्यापार करता होता, तो उसे यह दुर्दिन नहीं देखना पड़ता.
भारत ने डॉलर के महत्व को शुरू से ही समझा है. एक दौर ऐसा भी रहा, जब उसने भी कभी बेहद सस्ती दरों पर अपने सामान अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचे क्योंकि उसे डॉलर चाहिए था. पर नब्बे के दशक के शुरू में प्रारंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद उसने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने की ओर बहुत ध्यान दिया और यह पाया कि डॉलर का कोई विकल्प नहीं है. इसलिए वित्त मंत्रियों ने डॉलर को पाने का प्रयास किया, जिसमें भारी सफलता मिली. आज भारत के पास चीन के बाद दूसरे स्थान का इस विदेशी मुद्रा का भंडार है. आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 683 अरब डॉलर हैं, जो हमारी अपनी मुद्रा रुपये को स्थिर रखने तथा बड़ी खरीदारी, जैसे लड़ाकू विमान और अन्य हथियार वगैरह, के काम में आता है.
इससे सरकार को एक तरह का विश्वास मिलता है कि अंतरराष्ट्रीय संकट के समय या विपरीत परिस्थितियों में यह हमारा मददगार हो सकता है. वर्ष 1913 में अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व का गठन हुआ और उसके अगले साल ही डॉलर चलन में आ गया. इस मुद्रा के पीछे गोल्ड रिजर्व था, यानी जितनी मुद्रा बाजार में आती, उतना ही डॉलर चलन में आता. फिर पहले विश्व युद्ध में डॉलर मजबूत हुआ, पर इसका महत्व दूसरे विश्व युद्ध में बढ़ा, जब इंग्लैंड को भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र खरीदने के लिए डॉलर की जरूरत पड़ी. अमेरिका ने तब तक अपने को दुनिया के सबसे बड़े शस्त्र निर्माता के रूप में स्थापित कर लिया था और मित्र देशों को उससे वे हथियार चाहिए थे. लेकिन इसके लिए उन्हें डॉलर या सोना देना पड़ता था.
आजादी के बाद भारत के साथ भी ऐसा ही रहा. साल 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तो एक डॉलर की कीमत 4.16 रुपये थी, जो अगले साल घटकर 3.31 रुपये पर पहुंच गयी. लेकिन साल 1950 में 4.76 रुपये प्रति डॉलर का रेट आ गया. बाद में भारतीय मुद्रा को नियंत्रित कर दिया गया और उसकी कीमत डॉलर के मुकाबले तय कर दी गयी. यह अगले 15 वर्षों तक इसी दर से ट्रेड करता रहा, पर 1967 में भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया गया. फिर एक डॉलर का मूल्य 7.50 रुपये हो गया. लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद 1993 में भारतीय मुद्रा को स्वतंत्र कर दिया गया. नतीजा यह हुआ कि एक डॉलर 30.49 रुपये का हो गया, जो धीरे-धीरे बाजार की ताकतों के हिसाब से बढ़ता गया. आज यह 83-84 रुपये पर जा पहुंचा है और इसे वहां रोके रखने के लिए रिजर्व बैंक को हस्तक्षेप करना पड़ा है. पहले भी ऐसा हो चुका है कि रिजर्व बैंक डॉलर को स्थिर रखने के लिए हस्तक्षेप करता रहा है. इससे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ता है. अब ज्यादातर देश डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहते हैं. इसके लिए वे आपसी व्यापार में डॉलर के बजाय अपनी-अपनी करेंसी में व्यापार करना चाहते हैं. इसे ही डी-डॉलराइजेशन कहते हैं. साल 2024 में इसमें गति आयी है और कई देशों ने डॉलर के स्थान पर अपनी या भागीदार देश की मुद्रा में व्यापार की शुरुआत की है. इससे डॉलर पर उनकी निर्भरता कम होगी.
भारत ने यह प्रयोग पहले भी किया है. जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तो उन्होंने रूस के साथ रुपया-रूबल में व्यापार शुरू किया था. भारत जो भी खरीदता था, उसके लिए रुपया में भुगतान करता था और रूस रूबल में. लेकिन बाद में रूबल की दर को लेकर मामला खटाई में पड़ गया. मोदी सरकार ने इसकी फिर शुरुआत की है और दोनों देशों के बीच ऐसा ही व्यापार हो रहा है. इसका एक कारण यह भी है कि अमेरिका तथा यूरोप के देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया हुआ है. कोई भी देश उससे डॉलर में व्यापार नहीं कर सकता. भारत चीन से भी ऐसा ही करना चाह रहा है, लेकिन इसमें समस्या यह है कि भारत चीन से बहुत ज्यादा आयात करता है, जबकि वह काफी कम. इस कारण चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है़ यह व्यापार असंतुलन का बड़ा उदाहरण है और इस वजह से बात नहीं बन पा रही है क्योंकि तब भारत की निर्भरता चीनी मुद्रा युआन पर हो जायेगी. रूस भी चाहता है कि भारत उसे रुपये के बदले युआन दे.
अब भारत इसका हल निकालने में जुटा हुआ है और वह अन्य देशों में भी रुपये को चलाने में लगा हुआ है. भारत ने ईरान से भी करार किया है कि वह रुपये को व्यापार में स्वीकार करे. कई अन्य देश जहां रुपये को स्वीकार किया जाता है, उनमें नेपाल और भूटान के अलावा सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, कतर और इंग्लैंड भी हैं. इनके अलावा भारत विभिन्न देशों, जैसे- क्यूबा और लक्जमबर्ग, से बातचीत कर रहा है. डिजिटल भुगतान प्रणाली यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआइ) का इस्तेमाल भी इसी दिशा में एक कदम है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)