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दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल का दांव, पढ़ें राजकुमार सिंह का विशेष आलेख

Arvind Kejriwal: जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति उज्जवल भुईयां ने सीबीआई पर तल्ख टिप्पणियां भी कीं, पर जमानत की शर्तों के चलते केजरीवाल मुख्यमंत्री की वैसी भूमिका निभा ही नहीं सकते थे, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. वे न नीतिगत फैसले ले सकते थे और न ही लोकलुभावन घोषणाएं कर सकते थे. फिर वे मतदाताओं के बीच किस आधार पर जाते?

Arvind Kejriwal: दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी जगह आतिशी को मुख्यमंत्री बनाने के दांव से कई निशाने साधने की कोशिश की है. शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी के बाद से ही भाजपा केजरीवाल का इस्तीफा मांगती रही, पर उन्होंने दिया अपनी रणनीति के तहत. सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिलने के दो दिन बाद केजरीवाल ने इस्तीफा देने का ऐलान किया. उनका इस्तीफा 17 सितंबर को हो गया और आप विधायक दल का नया नेता चुने जाने के बाद आतिशी ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया. केजरीवाल का कहना है कि आगामी विधानसभा चुनाव में जनादेश के जरिये मतदाताओं द्वारा उन्हें ‘ईमानदार’ मान लेने के बाद ही वे फिर मुख्यमंत्री बनेंगे. जाहिर है, आतिशी चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगी. अपनी निष्ठा के प्रदर्शन में उन्होंने कह दिया कि विश्वास जताने के लिए वे आभारी हैं, पर दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है और वह हैं केजरीवाल. केजरीवाल चाहते हैं कि महाराष्ट्र और झारखंड के साथ ही नवंबर में दिल्ली में भी चुनाव कराये जाएं.

पुरानी आक्रामक छवि में लौटने की कोशिश में हैं अरविंद केजरीवाल

जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति उज्जवल भुईयां ने सीबीआई पर तल्ख टिप्पणियां भी कीं, पर जमानत की शर्तों के चलते केजरीवाल मुख्यमंत्री की वैसी भूमिका निभा ही नहीं सकते थे, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. वे न नीतिगत फैसले ले सकते थे और न ही लोकलुभावन घोषणाएं कर सकते थे. फिर वे मतदाताओं के बीच किस आधार पर जाते? दूसरी ओर भाजपा ‘जमानत पर रिहा अभियुक्त’ करार देते हुए अभियान चलाती. आप का चुनाव प्रचार सफाई देने में ही निकल जाता. जन लोकपाल मुद्दे पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आंदोलन के बाद आम आदमी पार्टी बनाने वाले केजरीवाल की छवि आक्रामक नेता और वक्ता की रही है. अपने और पार्टी के भविष्य की लड़ाई रक्षात्मक मुद्रा में लड़ना जोखिम भरा हो सकता था. इसलिए उन्होंने ‘पद-मुक्त’ होकर पुरानी आक्रामक छवि में लौटना बेहतर समझा. भाजपा के विरुद्ध उनका आक्रामक अभियान हरियाणा चुनाव से शुरू होकर दिल्ली, महाराष्ट्र और झारखंड तक जारी रहेगा. बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत न मिलने से तेलुगू देशम पार्टी, जनता दल यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी पर बढ़ी मोदी सरकार की निर्भरता के मद्देनजर इन राज्यों के चुनाव का महत्व और भी बढ़ गया है. जनादेश भाजपा के अनुकूल नहीं आया, तो विपक्ष के तेवर और आक्रामक हो जायेंगे.

हरियाणा की राजनीति पर क्या होगा असर

सवाल उठ सकता है कि दिल्ली के अलावा तो इन राज्यों में कहीं भी आप का जनाधार नहीं है. पर हरियाणा केजरीवाल का गृह राज्य है. लोकसभा चुनाव साथ लड़ने के बावजूद कांग्रेस और आप में विधानसभा चुनाव में गठबंधन नहीं हो पाया. केजरीवाल के आक्रामक प्रचार का खतरा कांग्रेस आलाकमान समझ सकता है. देखना दिलचस्प होगा कि क्या अभी भी हरियाणा में तालमेल का रास्ता खोजा जा सकता है. हरियाणा विधानसभा में आप शून्य है, तो दिल्ली विधानसभा में वही हैसियत कांग्रेस की है. परस्पर तल्खी बढ़ी, तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के भविष्य पर सवालिया निशान ही लगेगा. विपक्ष के स्टार प्रचारक की भूमिका के एवज में केजरीवाल महाराष्ट्र और झारखंड में आप के लिए कुछ सीटों का दबाव बना सकते हैं. भाजपा की हार विपक्ष की ही जीत होगी. फिर भी यह समझना मुश्किल नहीं कि केजरीवाल के लिए दिल्ली की सत्ता सबसे अहम है. बेशक पंजाब में भी आप प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ है. गुजरात और गोवा में भी उसने दम दिखा कर एक दशक के अंदर ही राष्ट्रीय दल का दर्जा भी हासिल कर लिया है, पर आप और केजरीवाल की पहचान दिल्ली से जुड़ी है. ऐसे में दिल्ली की सत्ता गंवाने का जोखिम आत्मघाती हो सकता है. इसी कारण केजरीवाल ने ‘श्रीमान ईमानदार’ की छवि बहाल करने के लिए रक्षात्मक के बजाय आक्रामक होने का विकल्प चुना है.

आतिशी को क्यों किया गया आगे

यह विडंबना है कि कांग्रेस और भाजपा के पास देश की राजधानी दिल्ली में ऐसा कोई प्रभावी चेहरा नहीं है, जिस पर विधानसभा चुनाव लड़ कर जीता जा सके. भाजपा द्वारा इस बार पूर्व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को चेहरा बनाये जाने की चर्चा है, पर उससे पहले ही केजरीवाल ने आतिशी को आगे कर दिया है. आतिशी पर वैसे तीखे हमले करना भाजपा के लिए मुश्किल होगा, जैसे हमले केजरीवाल पर करने की रणनीति उसने बनायी. आतिशी दिल्ली की तीसरी महिला मुख्यमंत्री होंगी. पहली महिला मुख्यमंत्री भाजपा से थीं- सुषमा स्वराज, पर वह मूलत: हरियाणा से थीं और उनका कार्यकाल मात्र 52 दिन रहा. शीला दीक्षित 15 साल कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहीं, जो मूलत: उत्तर प्रदेश से थीं. आतिशी उस पंजाबी समुदाय से भी हैं, जिसका बड़ा वर्ग भाजपा का परंपरागत समर्थक रहा है. ऐसे में भाजपा को नये सिरे से रणनीति बनानी पड़ सकती है, तो दिशाहीन दिख रही कांग्रेस का भविष्य ही दांव पर लग सकता है. इस मुश्किल सवाल से केजरीवाल भी मुंह चुरा रहे हैं कि नया जनादेश मिल भी गया, तब भी जमानत की शर्तें तो वही रहेंगी, जिनके चलते उन्होंने अब इस्तीफा देना बेहतर समझा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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