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अगर गांधी आज जिंदा होते…

गांधी जंयती पर बता रहे हैं नरेंद्र कौशिक

अगर गांधी जिंदा होते तो एक संभावना है कि वो हंसल मेहता निर्देशित उनके ऊपर बनने वाली आज ही  घोषित ‘गाँधी’ सीरीज का विरोध ना करते. ये भी संभावना है कि वो रामचंद्र गुहा की किताबों (Gandhi Before India और Gandhi: The Years That Changed India) पर बनने वाली इस सीरीज की रिलीज़ का इंतज़ार कर रहे होते. ये शायद छठवें, दसवें या फिर सौवें गांधी होते जो ऐसा करते.

ये पहली बार तो नहीं हुआ होता जब मोहनदास करमचंद गांधी अपने विचारों या सिद्धांतों पर पलट गए होते. और कौन इंसान अपनी हरेक बात पर जीवन भर अडिग रह सकता है. सत्य शाश्वत है.निरंतर नहीं. ये भी तो बदलता है. कल जो सच था कोई गारंटी तो नहीं की आज भी सच हो| कुछ महीनों पहले तक डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकन चुनाव में frontrunner थे आज तो नहीं है ना. आज कमला हैरिस आगे चल रही हैं.

गांधी का सारा जीवन एक्सपेरिमेंट्स से भरा हुआ था. सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, स्वदेशी और दूसरे सात सिद्धांतों पर गांधी नए-नए अनुभव करते चले गए. अपनी हत्या से कुछ पहले तक वो कहते रहे कि मेरे सारे कथनों को नष्ट कर दो नहीं तो लोग पता नहीं कितने ही सवाल उठाएंगे मेरे बारे में. मुझे  झूठा कहा जायेगा. और पता नहीं क्या-क्या नाम दिए जायेंगे. अरुंधती राय अभी भी शायद नहीं मानेंगी की गांधी जातिवादी नहीं थे. एक बड़ा लेख उन्होंने इस पर लिखा था.

लेकिन क्या १९२० के बाद वाले गांधी को जातिवादी कहा जा सकता है? मेरा जवाब है हरगिज़ नहीं. १९२० से पहले के गांधी ने बेशक वर्ण व्यवस्था, जातीय विवाहों और यहां तक कि अंतरजातीय भोज का विरोध किया. जब उनके दुसरे बेटे मणिलाल एक साउथ अफ्रीकन लड़की फातिमा से विवाह करना चाहते थे तो गाँधी ने समर्थन नहीं किया.  उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी जो बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बने को जब सी राजगोपालाचारी की बेटी लक्ष्मी से प्रेम हुआ तो गांधीजी ने उसे विवाह के लिए करीब पांच साल इंतज़ार कराया. इस दौरान वो वर्ण व्यवस्था, जातीय विवाहों और अंतरजातीय भोजन पर अपनी बात से पलट गए. या यूं कहना बेहतर होगा कि उन्होंने अपने विचारों में सुधार कर लिया|

बचपन में गांधी जी को लगता था कि मांस खाने से आदमी मजबूत होता है, लेकिन बाद में शाकाहार के वो बड़े झंडाबरदार बने. जवानी में उनको सूट-बूट पहनना अच्छा लगता था, लेकिन बाद में उन्होंने शरीर के ऊपर के भाग को हमेशा नंगा रखा. साउथ अफ्रीका में कुछ सालों तक वो पैसे की बचत करते थे, लेकिन फिर जब प्लेग आया तो बचत किया हुआ सब धन दान कर दिया.  बाद में उन्होंने बचत करना ही छोड़ दिय.  उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के लिए हुए चुनाव में सुभाष बोस के खिलाफ उमीदवार उतारा, लेकिन जब ये खबर आई की बोस की एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया तो उनको लगा कि सुभाष देश को आजाद कराये बगैर  दुनिया नहीं छोड़ेंगे. पहले वो कांग्रेस के पक्के समर्थक थे, लेकिन बाद में उसी को भंग करने की वकालत करने लगे.

सिर्फ गाँधी का ही नहीं इस दुनिया में आये किसी भी मनुष्य का जीवन विरोधाभासों से भरा रहता है. इसीलिए जीवन का मतलब evolution कहा गया है.  गांधी जी शुरू से सिनेमा के घोर विरोधी रहे. उन्होंने सिनेमा को नशे, वेश्यावृति और दुसरे व्यसन जैसा माना और लोगों को इससे दूर रहने को कहा. लेकिन १९४३ में फ़िल्मकार विजय भट्ट ने उन्हें अपनी फिल्म रामराज्य देखने को मना ही लिया. 

उनके स्वतंत्रता संग्राम के बहुत सारे दूसरे अनुयायी सिनेमा की लोगों तक पहुंचने की शक्ति को मानते थे. लेकिन वो नहीं. आधा दर्ज़न से ज्यादा अखबार निकलने वाले गांधी ने जीवन में सिर्फ दो ही बार सिनेमा देखा. रामराज्य के अलावा मिशन टू मास्को नामक फिल्म के भी कुछ अंश देखने वाले गांधी सिनेमा पर कुछ कम ही बदले. लेकिन उनके परपौत्र और मणि लाल के पोत्र तुषार गांधी को भी लगता है कि उनको लगे रहो मुन्नाभाई अच्छी लगी होती. राजू हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा की इस फिल्म ने महात्मा गांधी के लिए भारत में वो किया जो रिचर्ड एटिनबरो की गाँधी ने भी शायद नहीं किया. लगे रहो मुन्नाभाई ने गांधी जी के विचारों को सीधी सरल भाषा में भारत के जन-जन तक पहुंचाया. इस फिल्म ने वो किया जो पहले आई कितनी ही फिल्में नहीं कर पाई.

वैसे गाँधी जी या उनके विचारों पर अनगिनत फिल्में भारत में बन चुकी हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर फिल्में फ्लॉप ही रही. कुछ ऐसे भी विषय हैं, जिन पर आज तक किसी की सिनेमा बनाने की हिम्मत नहीं हुई. सच, स्वदेशी, अस्पृश्यता, धर्मों की समानता पर फिल्में बनी हैं, लेकिन अहिंसा पर फिल्में कम ही बनी हैं. गाँधीजी के ब्रह्मचर्य पर किसी ने फिल्म बनाने की हिम्मत अभी तक नहीं की है.| ना ही उनकी सरला चौधरी के साथ चली छोटी सी प्रेम कहानी पर फिल्म बनी है.   

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