Dhanteras : पटना. आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि की जयंती पर पंच दिवसीय दीप महोत्सव का शुभारंभ हो रहा है. धर्म शास्त्रों में धनतेरस का व्यापक महत्व है. समुद्र मंथन के बाद धन्वन्तरि का अमृत कलश के प्राकट्य हुआ था. इसलिए धनतेरस के रूप में धन्वन्तरि का प्राकट्योत्सव मनाया जाता है. आयुर्वेद का निर्माण धन्वन्तरि ने ही किया है. इसलिए इन्हें वैद्यों के देवता भी कहा जाता है. पूरे बिहार में आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि के प्राकट्य दिवस पर पूरे भक्ति भाव से लोग सभी के स्वास्थ्य की कामना करते हैं. सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है. इसी सोच और मान्यता के साथ पूरा हिंदू समाज धनतेरस का पर्व मनाता रहा है.
बाजारवादी संस्कृति ने धनतेरस को स्वास्थ्य के बदले ‘धन’ से जोड़ा
धनतेसर के बदलते अर्थ पर प्रकाश डालते हुए पटना के प्रसिद्ध धर्माधिकारी पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि धनतेरस, जिसे का सोने-चांदी से कोई लेना-देना नहीं है. बाजारवादी संस्कृति ने धनतेरस को ‘धन’ से जोड़ दिया है, दरअसल यह दिवस धन्वन्तरी, समुद्र मन्थन और आयुर्वेद से जुड़ा हुआ है. पांडित झा कहते हैं कि 19वीं शती के यूरोपीय दस्तावेजों में गुजरात में इस दिन व्यापारियों के द्वारा ‘गल्ला’ और ‘तिजौड़ी’ की पूजा करने का उल्लेख मिलता है, लेकिन उन दिनों बिक्री बंद कर पूजा की जाती थी. आज देवता की उपासना गौण हो गई और व्यापार अधिक बढ़ गया है. वैद्य एवं आयुर्वेद की दवा बनाने वाली कम्पनियाँ इस दिन अपने आराध्य धन्वन्तरि की पूजा कर उत्सव मनाते रहे हैं.
वैद्यों के देवता हैं धन्वन्तरि
ज्योतिषाचार्य पंडित राजनाथ झा कहते हैं कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन अमृत का कलश हाथों में लिए धन्वन्तरि की उत्पत्ति हुई थी. मान्यतानुसार अमृत पीने से अमरता मिलती है. अतः पुराण-साहित्य में धन्वन्तरि को आरोग्य का देवता माना गया है. वे वैद्यों/चिकित्सकों के आराध्य देवता माने गये हैं. सुश्रुत ने अपने ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय में कहा है कि मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह धन्वन्तरि के कथन की ही व्याख्या है. इस प्रकार भारत की परम्परा ने धन्वन्तरि को वैद्यों के देवता अथवा आदि-पुरुष’ के रूप में मानती रही है. उन्होंने कहा कि धन्वन्तरि की उत्पत्ति कथा विस्तार के साथ भागवत-महापुराण (8.8.32-36 तक) में वर्णित है. वहां कहा गया है कि अमृत से भरा हुआ घड़ा लिये हुए तथा कंगन पहने हुए वे साक्षात् भगवान विष्णु के अंश के रूप में उत्पन्न हुए थे.
रुद्रयामल तंत्र में मिलती है पूजा पद्धति
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ पंडित शशिनाथ झा कहते हैं कि धन्वन्तरि से सम्बद्ध एक रोचक कथा और पूजा-पद्धति का उल्लेख रुद्रयामल तंत्र के नाम पर लिखी गयी कर्मकाण्ड की विधि में मिलती है. यह एक पूजा पद्धति है, जिसमें धन्वन्तरि त्रयोदशी यानी धनतेरस के दिन एक कलश की पूजा कर उसके जल अथवा दूध से स्नान करने पर एक साल तक निरोग रहने का उल्लेख हुआ है. यह रुद्रयामलोक्त ‘अमृतीकरणप्रयोग’ है. कलश के दूध अथवा जल को अमृतमय बनाकर उससे स्नान कर रोग से छुटकारा पाने की बात यहाँ वर्णित है.
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अमृत-पान की घटना की भूमि है बिहार
समुद्र-मन्थन के दौरान जब अमृत कलश के साथ धन्वन्तरि प्रकट हुए तो राजा बलि उसे झपट कर अपनी राजधानी बलिग्राम की ओर भागे. कहा जाता है कि वर्तमान बलिरागगढ़ (ASI की ओर से सुरक्षित साइट) था. एक अन्य मान्यता के अनुसार राजा बलि अमृत कलश लेकर मन्दार पर्वत से बलिया तक गंगा के किनारे भागे थे. सारे दैत्य भी उसके साथ चल पड़े और इसी रास्ते में सेमल वृक्षों के शाल्मली वन में मोहिनी रूप में विष्णु ने अमृत का रसपान किया. अमृत-पान की घटना की भूमि बिहार है. अत: पूरे कार्तिक गंगास्नान का विशेष माहात्म्य बिहार में है. बेगूसराय जिला के सिमरिया में कार्तिक मास का प्रसिद्ध कल्पवास होता है.