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आदिवासी समाज के आधुनिक मसीहा ‘कार्तिक बाबू’

Kartik Oraon : सामाजिक न्याय और संस्कृति की रक्षा के लिए आजीवन संघर्षरत स्व० कार्तिक बाबू का जन्म 29 अक्टूबर 1924 को एक गरीब उरांव परिवार में हुआ था. एक आम आदिवासी बालक की तरह वर्तमान गुमला जिले के करौंदा लिटा टोली में उनका बचपन बीता.

प्रफुल्य चन्द्र पाण्डेय,

अवकाश प्राप्त वरीय शिक्षक एवं विभागाध्यक्ष
सामाजिक विज्ञान – दिल्ली पब्लिक स्कूल

अमर शहीद भगवान बिरसा के पश्चात छोटानागपुर की रत्नगर्भा धरती को जिन प्रतिभाशाली एवं त्यागी सपूतों ने अपनी ईमानदारी कर्मठता एवं अद्भुत सेवा-भावना से गौरवान्वित किया उनमें कार्तिक बाबू का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है. उनका व्यक्तित्व इस कथन को चरितार्थ करता है कि प्रतिभावना पुरूष परिरिस्थितियों का मोहताज नहीं होते बल्कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी मंजिल पाकर भावी पीढ़ी के समक्ष एक आर्दश बन जाते हैं.

एक अभावग्रस्त और साधनहीन व्यक्ति अपने प्रबल और दृढ इच्छा-शक्ति की बदौलत जीवन के शिखर तक किस प्रकार पहुंच सकता है, कार्तिक बाबू इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. विधाता ने इस धरती पर उन्हें एक ऐसे व्यक्तिव का स्वागी बनाकर भेजा था जिसमें लौह पुरुषसी दृड़ता के साथ-साथ ऐसा कोमल मन था जो दूसरे के दुख को देखकर द्रवित हो उठते थे. उनमें हर प्रकार के जुल्म के खिलाफ आग उगलने की अद्भूत क्षमता थी, जो हर जुल्म को जला डालने में सक्षम था.

वे बेबाक बात कहने में हिचकते नहीं थे. विचार के पक्के, खुला और साफ दिल, मृदुल स्वभाव, सीधा-सपाट, आडबंर से दूर उनका ऐसा मनोहारी व्यक्तित्व था, जिनका विदेशों में रहकर भी अपनी मिट्टी से जुड़ाव और संघर्षशील व्यक्तित्व कम नहीं हुआ. विदेशों में बड़ी-बड़ी उपाधियां लेने के बावजूद उन्होंने अपनी माटी, भाषा, समाज और संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम एवं समर्पण भावना का मिशाल पेश किया. भारत के प्रति सच्चे प्रेम और क्षेत्रवाद के विरोधी की जो छवि उन्होंने प्रस्तुत की वह उन्हें आधुनिक छोटानागपुर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है.

आदिवासियों के आधुनिक मसीहा, प्रकृति के परम पुजारी, सामाजिक न्याय और संस्कृति की रक्षा के लिए आजीवन संघर्षरत स्व० कार्तिक बाबू का जन्म 29 अक्टूबर 1924 को एक गरीब उरांव परिवार में हुआ था. एक आम आदिवासी बालक की तरह वर्तमान गुमला जिले के करौंदा लिटा टोली में उनका बचपन बीता जो रांची-गुमला मार्ग पर जिला मुख्यालय से 8 कि.मी. पूर्व में स्थित है. होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ वाली कहावत उनके बाल्य काल के साथ चरितार्थ हुई. कुशाग्र बुद्धि के इस गरीब उरांव बालक को पढ़ने में बेहद रूचि थी. जामटोली में अपनी प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्होंने 1934 में एस. एस. हाई स्कूल गुमला में प्रवेश लिया और यहीं से 1942 में अंग्रेजी और गणित में विशिष्टता के साथ प्रवेश परीक्षा उतीर्ण कर विज्ञान के विधार्थी के तौर पर पटना साइंस कॉलेज, पटना में दाखिला पा लिया. 1944 में इंटरमीडिएट और 1948 में इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता का पद भार संभाला.

कार्तिक उरांव अप्रैल 1950 से अगस्त 1952 तक इस पद पर बने रहे. बिहार सरकार की सेवा अवधि में ही 18 जून 1950 को सिमडेगा के तत्कालीन उप समाहर्ता स्व. तेजू भगत की सुपुत्री सुमति उरांव जी से विवाह किया. इसके बाद 1952 में उच्च शिक्षा हेतु अवसर मिलते ही विदेश प्रस्थान कर गये.

विदेशों में अपने प्रवास के दौरान उन्होंने लंदन से एम. एस. सी. (इंजीनियरिंग) एम. आई. सी. ई. (लंदन) ए. आर. सी. एस. टी (ग्लांसगो) एम. आई. (स्ट्रक इंजीनियरिंग) लंदन ए. उस.सी. आई. (यू. एस. ए.) सी इंजीनियरिंग, लंदन जैसी इंजीनियरिंग की प्रतिष्ठित उपाधियां प्राप्त की. उन्होंने भूमिगत रेलवे लंदन में सहायक अभियंता और वरीय टेक्नीशियन तथा ट्रांसपोर्ट कमिशन में कार्य किया. एम. एस. सी इंजीनिरिंग की परीक्षा पास करने के बाद 1955 में उन्होंने ब्रिटिश रेलवे में योगदान दिया और लंदन से बार एट लॉ की उपाधि प्राप्त की.

अगस्त 1958 से फरवरी 1961 तक उन्होंने यू. के. के एटॉमिक डिपार्टमेंट टायलर बुडरों कन्सट्रक्शन लि. मिडलेक्स को अपनी बहुमूल्य सेवा दी. इसके बाद यूके में हिंकले प्वाइंट नेकूलियर पावर स्टेशन में योगदान दिया. शिक्षा और तकनिकी के क्षेत्र में उनकी उपर्युक्त उपलब्धियां न सिर्फ 1924 ई0 के आदवासी समाज बल्कि संपूर्ण भारत के लिए गौरव की बात थी.

जिस समय कार्तिक बाबू की प्रतिभा का उपयोग कर इग्लैंड की जनता धन्य हो रही थी उसी समय लंदन के इंडिया हाउस में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू 1959 में भारत के इस प्रतिभाशाली युवक से मुलाकात की. इस मुलाकात ने आधुनिक भारत के निर्माण में पंडित जी को भी बेहद प्रभावित किया. उन्होंने कार्तिक बाबू को एक समाजिक अभियंता की पहचान दी और स्वदेश लौटने का आग्रह किया. नेहरू जी की प्रेरणा से कार्तिक बाबू स्वदेश लौट आए और मई 1961 में एच. ई सी में योगदान दिया. वे यहां डिप्टी चीफ इंजीनियर डिजाईन के रूप में फरवरी 1967 तक इस पद पर बने रहे. उक्त अवधि के मध्य में ही वे 1962 के तृतीय लोक सभा के लिए कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

कार्तिक बाबू चाहते तो एक प्रतिष्ठित अभियंता के रूप में सुखद जिंदगी गुजार सकते थे, लेकिन जिसके मन में जन-सेवा की तरंगे हिलोरे ले रही हो वह भला अपने व्यक्तिगत सुख से कैसे संतुष्ट हो सकता था. वे ऊंचे ओहदे पर कार्यरत थे. सारी भौतिक सुख सुविधाएं उपलब्ध थीं लेकिन उनके मन में शांति नही रहती थी. अपने आस-पास की नग्न दरिद्रता, अज्ञानता, शोषण एवं अत्याचार को देखकर वे दुखी हो जाते थे. जिस प्रकार कभी राजकुमार सिद्धार्थ का तन राज की सुख सुविधाओं को तिलांजली देकर बुद्ध बनकर मानव-कष्टों का हल खोजने निकल पड़ा थे, उसी प्रकार कार्तिक बाबू को अपने लोगों की अज्ञानता, कष्ट, शोषण, अन्याय और अपने समाज और संस्कृति के प्रति अटूट प्रेम ने अपनी सुख सुविधा छोड़कर सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया.

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ऐसी बात नहीं थी कि उन्हें असफलता नहीं मिली. 1962 के चुनाव में पराजय लोक जीवन की उनकी प्रथम और संभवतः अंतिम असफलता साबित हुई. पराजय के बाद उनकी सेवा-भावना नाम मात्र भी धूमिल नहीं हुई बल्कि शीघ्र ही 1967-1971 और 1977 के आम चुनावों में सफलता हासिल कर प्रमाणित कर दिखया कि ‘पुरुषार्थ के पीछे-पीछे भाग्य चलता है और जनता अपने सच्चे सेवक की बहुत दिनों तक उपेक्षा नहीं कर सकती. 1967-68 की अवधि में ही उन्होंने आदिवासियों में जन चेतना जगाने के उदेश्य से ‘अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और वे इस स्वेच्छिक संस्था के आजीवन अध्यक्ष रहें.

सांसद के रूप में कार्तिक बाबू ने अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासियों को एकता के सूत्र में आबद्ध करने का प्रयास किया और अपने क्षेत्र के सामाजिक शैक्षणिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के प्रति सदैव सजग एवं सचेष्ट रहे. आदिवासी विकास के परिप्रेक्ष्य में जहां भी उन्हें विसंगतियां नजर आईं उसे दूर करने के लिए उन्होंने न केवल सरकार का ध्यान आकृष्ट किया बल्कि अपने स्तर से भी सुधार लाने का प्रयास किया.

एक तरफ वे अपनी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, परिवेश एवं परंपराओं को संजोकर चलने का आह्वान करते तो दूसरी तरफ दकियानूसीपन से उपर उठकर विकास-पथ पर निर्भीक होकर कदम बढ़ाने की सीख भी देते. उनका सिद्वांत था कि ‘न बेईमानी करो, न बेईमानी सहो, हानि पहुंचाने वाले को कभी छोड़ो मत, लेकिन तुम भी किसी को हानि मत पहुंचाओ.

इंदिरा जी की सरकार में उन्होंने उप- मंत्री का पद नहीं स्वीकारा क्योंकि उनकी मान्यता थी कि सांसद के रूप में वे क्षेत्र एवं आम जनता की अधिकाधिक सेवा कर सकेंगे और ऐसा उन्होंने किया भी. उनके अथक प्रयास से छोटानागपुर संथान परगना स्वशासी विकास प्राधिकार की स्थापना हुई और फरवरी 1972 से अक्टूबर 1977 तक वे इसके उपाध्यक्ष रहे. 1980 में बेहद दबाव में आकर उन्होंने केन्द्रीय मंत्री मंडल में राज्य मंत्री का पद ग्रहण किया और करीब तेईस महीने तक इस पद पर रहें.

अपने लोक जीवन में कार्तिक बाबू ने एक विधायक, सासंद एवं मंत्री के रूप में देश की महत्वपूर्ण सेवा तो की ही, इसके साथ-साथ अनेक सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं गैर-सरकारी निकायों में विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी सेवा-भावना के साथ-साथ जिस प्रशासनिक प्रतिभा, राजनीतिक सूझबूझ एवं तकनीकी ज्ञान का परिचय दिया वह न सिर्फ आदिवासी समाज बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज के लिए प्रेरणादायक है.

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