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दिल्ली, मुंबई व कोलकाता भेजे जाते हैं बांस के सूप व टोकरी

सौ वर्ष पुराना है कारोबार का इतिहास, मुस्लिम समाज के लोग करते हैं सूप की सप्लाइ, सूप व टोकरी बना कर जीविकोपार्जन करते हैं मलिक समाज के लोग

राजा नसीर, साहिबगंज जिले में सूर्य उपासना का महापर्व छठ को लेकर जोर-शोर से तैयारी चल रही है. इसको लेकर बाजार में रौनक दिखने लगी है. छठ पर्व में बांस के बने सूप व टोकरी का बहुत महत्व होता है. छठ व्रर्ती बांस के सूप से भगवान सूर्य को अर्घ्य देते हैं. यहां से बांस के सूप की विभिन्न राज्यों व जिलों में निर्यात भी किया जा रहा है. मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के मालदा व कोलकाता बिहार राज्य के पटना, छपरा, मुंगेर, गया, भागलपुर व अन्य जिलों में भेजा जाता है. टोकरी-सूप के कारोबार में बड़े होलसेलर माने जाते हैं. सूप व टोकरी का कारोबार करने वाले एलसी रोड निवासी मोहम्मद अख्तर अली ने बताया कि सूप का कारोबार उनके घर में 1960 से पहले से किया जा रहा है. हालांकि उस समय उनकी आयु छोटी थी. फिर भी उन्होंने यह भी बताया कि 1964 में इस कारोबार में अपना कदम रखा था. जब सूप की कीमत 10 आना व बड़ी टोकरी कीमत 10 आना हुआ करती थी. अली ने बताया कि उनका सूप झारखंड, बिहार बंगाल व यूपी वहां से महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में जाता है, यहां तक के बनारस व दिल्ली तक भी सूप की सप्लाई की जाती है. कोलकाता, मालदा, भागलपुर, किऊल, गया, पटना, आरा छपरा, बनारस व दिल्ली तक इनका सूप भेजा जाता है. कारोबारी एजाजुल इस्लाम उर्फ मुन्ना ने बताया कि सूप के इस कारोबार को हमारे दादा मोहम्मद सुलेमान अली ने सन 1920 में शुरू किया था. इसके बाद 1956 में मेरे दादा के मृत्यु के बाद मेरे पिता इमामुद्दीन इस कारोबार को संभाला. फिर 1978 में मेरे पिता के मृत्यु के बाद इस कारोबार को मैं यानि एजाजुल इस्लाम अपने भाइयों के साथ चला रहा हूं. उनका कहना है कि मतलब कि यह कारोबार हमारे घर में लगभग 100 वर्षों से होता आ रहा है. सूप बनाकर कई लोग अपने परिवार की चलते हैं जीविका छठ पूजा को अन्य मामलों में बस के बने सूप का ही ज्यादातर इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि सूप प्लास्टिक की भी बनी मार्केट में उपलब्ध हो रही है. लेकिन अगर बात महापर्व की हो तो यहां पर कोई समझौता नहीं हो सकता है. बस की सूप बनादें फिलहाल ऐसी फिलहाल कोई मशीन यहां उपलब्ध नहीं हो पाई. यहां के कारीगरों द्वारा ही सूप बनाने का काम किया जाता है. यह कारोबार पूर्ण रूप से जिला के आसपास के ग्रामीण व पहाड़ में रहने वाले कारीगरों के ऊपर आश्रित है. जिसमें मुख्य रूप से बांझी, मदनशाही, मरचो पहाड़, मोती पहाड़, बोआरीजोर, पचकठिया, बरहेट, कुंडली, इलाकी, संजोरी, बरमसिया, सनमौजी, संथाली व अन्य पहाड़ी इलाकों में लोगों का मुख्य काम सूप बनाना ही होता है. तकरीबन एक घरों में पहुंचता है साहिबगंज का बना सूप सूप के कारोबारी की माने तो एक महाजनों से 50 से 70 हजार सूप उसने गोदामों से निकलकर झारखंड, बिहार व यूपी के कई जिलों में पहुंचते हैं. ऐसे दो कारोबारी यह मौजूद है उनकी माने तो लगभग एक लाख से ज्यादा घरों में साहिबगंज से निर्यात होने वाले सूप छठ के लिए जाते हैं. क्या कहते हैं सूप बनाने वाले कारीगर सूप बनाने का काम करने शहर के टॉकीज फिल्म रोड निवासी कोलकतिया डोम ने बताया कि 10 सूप तैयार करने में तीन व्यक्तियों को दिनभर लग जाते हैं, जो हर रोज शाम तक महाजन को पहुंचा दिया जाता है, जहां एक सूप की कीमत 40 से 30 रुपये तक दी जाती है. सूप के कारीगर राजू मलिक का कहना है कि दिन भर लगाकर तीन व्यक्ति सूप को 10 से ज्यादा तैयार नहीं कर पाते अगर मौसम खराब रही तो इतना भी हो पाना मुश्किल हो जाता है. यह सूप साहिबगंज लोकल महाजन को ही दिया करते हैं. यह प्रक्रिया निरंतर रूप से सालों भर जारी रहती है.

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