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कार्तिक पूर्णिमा: बैलगाड़ी से पूरा परिवार गंगा स्नान करते पहुंचता था अखाड़ाघाट

कार्तिक पूर्णिमा पर घाट पर आज की तरह नहीं सजती थीं दुकानें

उपमुख्य संवाददाता, मुजफ्फरपुर 60 वर्ष पहले अखाड़ाघाट पर गंगा स्नान का नजारा कुछ और हुआ करता था. उस समय आज की तरह फास्ट फूड सहित खाने-पीने की दुकानों की भीड़ नहीं रहा करती थी. आस्था का माहौल रहता था. गांवों से भी लोग बूढ़ी गंडक में स्नान करने पहुंचते थे. सवारी भी आज की तरह नहीं था. घाट से कुछ दूर पहले तक लोग बैलगाड़ी से पूरे परिवार के साथ पहुंचते थे. फिर थोड़ी दूर पैदल चल कर घाट तक आते थे. उस समय लोग अपने घर से ही सत्तू, रोटी-सब्जी, मूढ़ी-घुघनी, चूरा और कचरी लेकर आते थे. गंगा स्नान के बाद पूरा परिवार चादर बिछाकर एक साथ भोजन करता था. घाट पर कुछ दुकानें तो लगती थीं, लेकिन उन दुकानों में चूरा-कचरी, जलेबी और रसगुल्ला ही मिलता था. समोसा का भी प्रचलन नहीं था. अधिकतर लोग घर से ही खाने का सामान लाते थे, इसलिए इन दुकानों में भीड़ नहीं हुआ करती थी. कई परिवार तो मिट्टी का चूल्हा, लकड़ी और चावल-दाल, और हरी सब्जी लेकर पहुंचता था. स्नान के बाद घाट पर ही खाना बनता था. उस समय गंगा स्नान में बाजार का प्रभाव नहीं था और न ही दिखावा था. गंगा स्नान से एक दो दिन पहले घाट किनारे रहने वाले लोग ही घाटों की सफाई करते थे. घाट से कुछ दूरी पहले तक साइकिल, रिक्शा और बैलगाड़ी की लंबी लाइन लगी रहती थी. हालांकि कई परिवार पांच-छह किमी की पैदल यात्रा कर घाट तक पहुंचते थे. लोग पूरी आस्था से यहां आते और नदी में स्नान कर सूर्य को पानी से अर्घ देते. फिर महिलाएं घाट की पूजा करतीं और दूसरी महिलाओं को सिंदूर लगा कर उनके सौभाग्यवती होने की कामा करतीं. गंगा स्नान पर बच्चे खूब उत्साहित होते. घाटों पर मिट्टी के खिलौने और बैलून उनका पसंदीदा खिलौना होता था. परस्पर सेवा और सहयोग का ऐसा भाव रहता था कि किसी को किसी तरह की परेशानी नहीं होती. बुजुर्गों को सहारा देने के लिए लोग मौजूद रहते और स्नान के बाद उन्हें सुरक्षित स्थानों तक पहुंचा देते. वह एक ऐसा दौर था, जब लोगों में सामाजिक समरसता थी. घाट पर आने वाले सारे लोग एक परिवार की तरह दिखते थे. उदयनारायण सिंह, सााहित्यकार

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