Jharkhand News : वर्ष 1978 में झारखंड क्षेत्रीय बुद्धिजीवी सम्मलेन में वक्तव्य देते हुए झारखंड के आंदोलनकारी एवं सामाजिक विचारक एनइ होरो ने बहुत गंभीर और सुचिंतित बात कही थी कि पहले की अर्थव्यवस्था धरती पर चारों तरफ गांव-गांव में फैली हुई थी, जबकि आज की अर्थव्यवस्था में हजारों मीलों तक बिखरे हुए गांव वीरान हैं और सारे उद्योग कुछेक शहरों में सिमट आये हैं.
उस सम्मेलन में उनकी तरफ से झारखंड के विकास के लिए आर्थिक विकास का जो ढांचा पेश किया गया था, वह झारखंड के समाज की चिंताओं पर आधारित तो था ही, उससे ज्यादा यहां के समाज के समाजवादी गुणों की तलाश थी. उसमें पूंजीवाद से उत्पन्न असमानता और असंतुलनों का विश्लेषण करते हुए झारखंड के विकास को दिशा देने की चिंता थी. आर्थिक विकास का ढांचा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ‘आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था’ पर सबसे ज्यादा जोर दिया था.
पुराने समय में झारखंडी समाज आत्मनिर्भर समाज था
एनइ होरो का विश्लेषण यह था कि पुराने समय में झारखंडी समाज आत्मनिर्भर समाज था. इस समाज के पास अन्न एवं कपड़े के उत्पादन के साथ बुनियादी जरूरतें पूरी करने की व्यवस्था और क्षमता थी. झारखंड का अपना बाजार था. टाटा, धनबाद, बोकारो जैसे नये औद्योगिक शहरों के दौर में आज शायद ही लोगों को मालूम हो कि लोहरदगा, सरगुजा, सिल्ली, पिठोरिया, गांगपुर, गोविंदपुर, जशपुर, चतरा, और तमाड़ झारखंड के पुराने बड़े बाजार थे. इन बाजारों में आपसी संबंध थे. ओडिशा, छत्तीसगढ़ और बंगाल जैसे दूसरे प्रांतों से लोग बाजार के लिए आते थे. बंदगांव और चक्रधरपुर से कच्चा लोहा तथा पत्थर जशपुर और सरगुजा के बाजारों में जाते थे. पलामू से आंवला जाता था.
हिंदुस्तान लीवर ब्रदर्स कंपनी के लिए कच्चा माल बड़े पैमाने पर यहीं से जाता था. लाह की खेती में तो झारखंड अग्रणी था ही. इन बाजारों का संबंध जैविक रूप से झारखंड के गांवों से था. लेकिन दुखद यह है कि ये सारे बड़े बाजार खत्म हो गये. परंपरागत अर्थव्यवस्था ध्वस्त हुई. इससे स्थानीय आर्थिक आत्मनिर्भरता खत्म हो गयी. आंदोलनकारी और विचारक एनइ होरो ने उक्त अभिभाषण में अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता पर जोर देते हुए पुराने आर्थिक संदर्भों को उद्धृत किया था. स्वतंत्र झारखंड राज्य के गठन के लिए केंद्र सरकार को दिए गए हर ज्ञापन में झारखंड की स्थानीय अर्थव्यवस्था की विशिष्टता का विशेष उल्लेख किया जाता रहा है.
झारखंडआंदोलन सिर्फ राजनीति मांग नहीं था
झारखंड आंदोलन के दौरान केवल अलग राज्य की राजनैतिक मांग नहीं थी, बल्कि सुचिंतित आर्थिक दृष्टि थी. जैसे स्वाधीनता संघर्ष के समय में उपनिवेशवाद के विरोध में स्वदेशीपन की मांग थी. दादाभाई नौरोजी ने ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ’ की थ्योरी के जरिये भारतीय धन के ब्रिटेन चले जाने की बात उजागर की थी. लगभग वैसी ही स्थिति झारखंड की बन गयी थी, जिसने आंदोलन की प्रेरणा दी. ऐसे ही संदर्भों में मार्क्सवादी चिंतक एवं नेता एके राय ने झारखंड की स्थिति को ‘आंतरिक उपनिवेश’ की स्थिति बताया था. यानी प्राकृतिक संपदा और खान-खनिज से भरपूर समाज में इतनी गरीबी क्यों? वर्ष 1978 के उस ऐतिहासिक सम्मेलन के 50 वर्ष होने वाले हैं.
स्वतंत्र झारखंड राज्य बने हुए ढाई दशक होने वाले हैं. यह राज्य अब वयस्क होने की स्थिति में है और इन दिनों यहां विधानसभा चुनाव की गहमागहमी है. आज झारखंड विधानसभा चुनाव में भागीदारी कर रहे राजनैतिक दलों के एजेंडे की पड़ताल की जाए, तो क्या उनमें झारखंड आंदोलन के दौरान बनी आर्थिक दृष्टि और उसका विचार हमें दिखाई देगा? इस सवाल का जवाब निराशाजनक है, क्योंकि यह एकता की भावना से इतर अन्य गैरजरूरी आवरणों में घिर रहा है. यह लोक-लुभावन प्रलोभनों पर केंद्रित दिख रहा है. न सिर्फ इस विधानसभा चुनाव में, बल्कि पिछले सभी चुनावों में, जिनसे कई सरकारें बनीं, शायद ही कभी झारखंड की आत्मनिर्भरता के लिए अर्थव्यवस्था के स्थानीय संदर्भों को केंद्र में रखा गया हो.
अर्थव्यवस्था गांव-गांव में फैली हो
आत्मनिर्भरता की मूल बात यह है कि अर्थव्यवस्था गांव-गांव में फैली हो, न कि किसी एक शहर में सिमटी हो. यह विकेंद्रीकरण और स्वायत्तता का लक्षण है. झारखंड का समाज आज भी इस बात की तस्दीक करता है कि गांव अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता के मजबूत स्तंभ हैं. यहां के गांव बड़े पैमाने पर प्रकृति आधारित वस्तुओं के बृहद उत्पादन की क्षमता रखते हैं. उनकी भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इनकी पैदावार कहीं और संभव नहीं है. गहरे जलवायु संकट से चिंतित दुनिया की अर्थव्यवस्था आज बहुत तेजी से परंपरागत खाद्यों एवं तकनीकों पर विचार करने के लिए विवश हुई है. इन परंपरागत खाद्यों और तकनीकों की मांग बढ़ी है.
इसका एक उदाहरण भारत सरकार की ही पहल पर संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित करना है. जंगलों से आच्छादित इस प्रांत में लाह, राल गोंद के उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं. ये यहां के परंपरागत उत्पादन हैं, लेकिन इनका समृद्ध अंतरराष्ट्रीय बाजार है. अकेले लाह का उत्पादन झारखंड में सालाना 15-16 हजार टन है, जिससे लगभग पांच लाख किसान सीधे जुड़े हुए हैं. वनोपज, आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी, चिकित्सा और केमिकल उद्योग के लिए यहां के गांव भौगोलिक रूप से बृहद अवसर उपलब्ध कराते हैं. आज भी यहां के स्थानीय निवासियों की अधिकांश आबादी को शिक्षा और चिकित्सा के लिए चिरंजी, महुआ जैसे वनोपज ही नकदी उपलब्ध कराते हैं. ये महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता के सबसे मजबूत आधार हैं. इन चीजों को नये सेक्टर के रूप में विकसित कर इन्हें ही उद्योगों के रूप में विकसित किया जा सकता है. इनके लिए बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजार बाट जोह रहा है.
कुछ अर्थशास्त्रियों को ये बातें हास्यास्पद लग सकती हैं. लेकिन जिस समाज ने विकास के नाम पर बड़े बांधों, बड़ी परियोजनाओं और खान-खदानों से विस्थापन का गहरा दंश और ऐतिहासिक अन्याय झेला है, जो जमीन की लूट से पीड़ित है, क्या उसे फिर से उसी पीड़ा में धकेला जाए? जबकि जलवायु संकट से गहरा घिरता विश्व समाज ‘टिकाऊ विकास’ की बात कर रहा है और सभ्यता को दीर्घायु बनाने के लिए पारिस्थितिकी संरक्षण की बात कर रहा है. इन्हीं क्षेत्रों से अर्थव्यवस्था में उद्योग और कृषि एवं वन के बीच फैली गहरी खाई को संतुलित किया जा सकता है. यही यहां से होने वाले पलायन और मानव तस्करी रोकने का स्थायी उपाय हो सकता है. यही वे क्षेत्र हैं, जहां से झारखंडी समाज को न सिर्फ आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है, बल्कि उसके अंदर मौजूद देशज गुणों को बचाया जा सकता है. झारखंड की स्थापना के 24 वें वर्ष में इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)