Parenting: आज की दुनिया में जहां अक्सर तुरंत संतुष्टि का बोलबाला है उसमें अपनी भावनाओं को समझने के लिए धैर्य रखने का मूल्य सिखाना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है. बच्चों को यह पहचानने में मदद करना कि हर भावना मायने रखती है, उन्हें चुनौतियों का सामना करने के लिए एक आधार प्रदान करता है. शिक्षा के क्षेत्र में कई दशक बिताने वाली अर्तिका अरोड़ा बख्शी लेखक के साथ ही कोलंबो में दशकों तक युवा छात्रों को पढ़ाने का काम किया है और बच्चों के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करती हैं. कार्यशाला में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित होता है. लेखक और शिक्षाविद की द ब्रॉवर से हाल ही में आयी पुस्तक “माई लिटिल हैंडबुक ऑफ फीलिंग्स” में बच्चों के अंतर्मन को समझने की कोशिश की गयी है.
लेखिका आर्ट, कल्चर, हिस्ट्री, लिटरेचर पर भी काम करती हैं, लेकिन उनका झुकाव बच्चों पर ज्यादा है. क्योंकि उनके पेरेंट्स ने उन्हें जो कुछ सिखाया और जिस तरह से वह दुनिया को कंट्रीब्यूट कर रही है और अपनी लाइफ को लीड कर रही है उसमें उनके माता-पिता का योगदान रहा है. इसलिये अपने माता-पिता से मिले योगदान को अपने बच्चों के साथ ही दुनिया को भी शेयर कर रही है. उनकी कोशिश है कि किसी भी रूप में बच्चों के आवाज को दबाया नहीं जाये. पैरेंटिंग सहित बच्चों के अन्य मुद्दों पर शिक्षाविद अर्तिका अरोड़ा बख्शी से प्रभात खबर ने विस्तार से बातचीत की.
माता-पिता का बच्चों से संवाद होना बहुत जरूरी
माता-पिता और बच्चों के बीच अच्छे संबंधों के लिए बातचीत होना बहुत ही जरूरी है. माता-पिता को बिना किसी बाधा के संवाद के लिए बच्चों से जितना संभव हो सके बात करनी चाहिए. बच्चों की अनूठी चुनौतियों, उनके माहौल और उनकी भावनाओं को समझना बहुत ही जरूरी है. जब हम छोटे थे तो हमारी जरूरत अलग थी. हमारा समय कुछ अलग था, क्योंकि तब अवेयरनेस उतनी नहीं थी, जितनी आज है. उस समय इनफार्मेशन भी उतनी नहीं आती थी. किताब के अलावा इनसाइक्लोपीडिया पढ़कर सूचना को प्राप्त करते थे, लेकिन आज वह स्थिति नहीं है. आजकल बच्चों को टीवी, फोन, इंटरनेट पर भी बहुत सारी सूचना मिल जाती है.
टीचिंग स्टाइल बदल गये है, तो पैरेंट्स को जो इंफॉर्मेशन मिलता था आज उनके बच्चों को उससे कहीं ज्यादा इंफॉर्मेशन विभिन्न माध्यमों से मिल रहा है. इसलिये आजकल के बच्चे सवाल भी ज्यादा पूछते हैं. लेकिन बच्चों के सवाल को टालना कतई ठीक नहीं है. उनके जिज्ञासा को शांत करना होगा. नहीं तो अपने सवाल का जवाब ढूंढने के लिये अन्य माध्यमों का सहारा लेंगे. पेरेंट्स जब बच्चों के सवाल का जवाब देते हैं, तो वह उसे गाइड भी करते हैं. लेकिन जब छोटा बच्चा कहीं और से अपने सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करता है, तो जरूरी नहीं है कि उसे सही जवाब ही मिले.
बच्चों के सवाल का दें तार्किक जवाब
आजकल के बच्चों में यह देखा गया है कि वह सवाल बहुत पूछते हैं. पांच से सात साल का बच्चा भी बोलता है कि मम्मी-पापा यदि ऐसा कर रहे हैं, तो मैं क्यों नहीं करूं. तो हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उन्हें समझाएं कि आपके उम्र में क्या जरूरी है. जब आप हमारे उम्र में पहुंचेंगे तो आपको पूरा राइट है कि आप अपने हिसाब से निर्णय लें. जब हम बच्चों के मूवी देखते हैं, तो उसमें लिखा होता है ‘पीजी’ यानी पेरेंटल गाइडेंस. पीजी का मतलब ही है कि यह मूवी आप बच्चों को दिखा सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही बच्चों को मूवी के विषय में पेरेंट्स को गाइड भी करना होगा. क्योंकि इसमें थोड़े ऐसे भी टॉपिक हो सकते हैं जो बच्चे को समझ में नहीं आये या वह उस संदर्भ में नहीं समझे, जिस संदर्भ में मूवी में दिखाया गया है. लेकिन हम लोग देखते ही नहीं है.
जिस मूवी में पीजी लिखा होता है, उसे हम समझ लेते हैं कि यह बच्चों के लिये है. हर उम्र में बच्चों के साथ हमारा कन्वर्सेशन और गाइडेंस बदल जाता है. पांच से सात साल के बीच के साथ अलग और टीन एजर्स के साथ अलग हो जाता है. लेकिन यह कन्वर्सेशन चैनल पेरेंट्स या बच्चों के बीच या टीचर या बच्चों के बीच हमेशा ओपन होना चाहिए. आज बच्चा यदि सवाल करता है, उसे हम चुप नहीं करा सकते हैं. उसके सवाल का तार्किक उत्तर देना है. यदि आप कोई चीज कंज्यूम कर रहे हैं, तो इसके नेगेटिव प्वाइंट यह है और पॉजिटिव प्वाइंट यह है यह बताना होगा. उसका राइट च्वाइस क्या है यह बताना होगा. और यह सब शुरू के दिनों में ही होता है. उसके बाद बच्चा खुद ही सही और गलत में निर्णय लेने लगता है.
ट्रायल एंड एरर का एक्सरसाइज है पेरेंटिंग
पैरेंटिंग बेसिकली एक ट्रायल एंड एरर का एक्सरसाइज है. कोई यह नहीं कह सकता कि पैरेंटिंग में वह शत प्रतिशत सफल है. क्योंकि रोज-रोज पेरेंट्स को मेथड बदलने पड़ते हैं. आज यह मेथड काम किया, तो हो सकता है, कल वह मेथड काम नहीं करेगा. जो हमारे पैरेंट्स ने किया वह अपनी तरफ से अच्छा ही किया. क्योंकि तब रिसोर्सेज उतना नहीं था. आज जब हम पैरेंटिंग करते हैं, तो हमें यह देखना होगा कि हमारे एक्शन का परिणाम क्या होगा. आज हम बच्चों के साथ जो कर रहे हैं, वही काम आज के बच्चे जब कल पेरेंट्स बनेंगे तो करेंगे. यह डेली लर्निंग पेरेंट्स के लिए भी होती है और बच्चों के लिए भी.
पैरेंटिंग को टीचिंग में शामिल करना जरूरी
टीचर का भी बहुत बड़ी रिस्पांसिबिलिटी होती है. टीचर भी पेरेंट्स ही है. यदि टीचर अपने पेरेंटिंग स्किल को टीचिंग में भी शामिल करें, तो यह बच्चों के लिए और ही बेहतर होता है. पेरेंट्स टीचर मीटिंग भी तो इसलिए होती है कि आप एक दूसरे से डिस्कस करें कि बच्चे की जरूरत क्या है. टीचर अपनी ओर से सहयोग करें और पेरेंट्स अपनी ओर से. यह सब टूल्स उपलब्ध है, लेकिन सही बात यह है कि पेरेंट्स के पास आजकल टाइम ही नहीं होता है.
डिजिटल सामग्री पर नियंत्रण जरूरी
आज की तेज-तर्रार, तकनीक से भरी दुनिया में माता-पिता को बच्चों की मानसिक भलाई पर ध्यान देना चाहिए. मोबाइल फोन के माध्यम से छोटे बच्चों के सामने आने वाली हिंसक सामग्री पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए बख्शी कहती हैं, माता-पिता को बच्चों द्वारा डिजिटल रूप से देखी जाने वाली सामग्री पर नियंत्रण रखना चाहिए. माता-पिता को डिजिटल ऐप और अन्य उपकरणों पर लॉक लगाने के विकल्प का उपयोग करना चाहिए. माता-पिता को डिजिटल दुनिया में बच्चों को दी जाने वाली उम्र के अनुसार उचित जानकारी पर नजर रखनी चाहिए. बच्चे क्या देख रहे हैं और क्या सुन रहे हैं, साथ ही घर में क्या बोल रहे हैं, इस पर भी माता-पिता को ध्यान रखना चाहिए. माता-पिता यदि बच्चों के साथ संवाद में रहेंगे तो उन्हें बच्चों की हर एक्टिविटी का पता आसानी से चल सकेगा. इसके बाद वह बच्चों को बेहतर तरीके से समझा पायेंगे.
तनाव को दूर करने में मददगार है बातचीत
बच्चों में बढ़ते तनाव के स्तर पर चिंता जताते हुए कहती है कि किसी भी परिस्थिति में माता-पिता को अपने बच्चों से संवाद स्थापित रखना चाहिये. आत्महत्या के मामलों पर चिंता जताते हुए कहती है, “ईमानदारी से की गई बातचीत से माता-पिता और उनके बच्चों को समय रहते परिस्थितियों का आकलन करने और सुधारात्मक कदम उठाने में मदद मिलती है”. बातचीत से माता-पिता को बच्चों के तनाव के स्तर के बारे में भी पता चलता है. माता-पिता सही समय पर आगे आकर बच्चों को बता सकते हैं कि उन्हें उन विषयों का पीछा करने की जरूरत नहीं है, जिसके लिए उनमें योग्यता नहीं है या उन्हें उस लक्ष्य के पीछे भागने की जरूरत नहीं है, जिसको पाने के लिए बच्चों के ऊपर अनायास ही अपने अभिभावकों की महत्वाकांक्षा भी कभी-कभी हावी हो जाती है. जब बच्चे महसूस करते हैं कि उनकी बात सुनी जा रही है और उनकी भावनाओं को महत्व दिया जा रहा है, तो वे एक मजबूत भावनात्मक आधार बनाते हैं,जो दुनिया का सामना करने के लिए तैयार होते हैं.