प्रतिनिधि़, मधेपुरा शैक्षणिक गतिविधियों व उपलब्धियों के बजाय हमेशा विवादों से नाता रखने वाले भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय का एक से बढ़कर एक कारनामा सीनेट व सिंडिकेट से जुड़ी चर्चा लोगों की जुबान पर है. विश्वविद्यालय से जुड़े जानकार व शिक्षाविद वर्तमान सीनेट व सिंडिकेट के औचित्य पर ही सवाल खड़े किये हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि जिस सदन का कार्यकाल चार साल पहले ही खत्म हो गया है, उसे किन परिस्थितियों में ढोया जा रहा है. जानकारों का कहना है कि जिस सीनेट व सिंडिकेट का कार्यकाल 2020 में ही खत्म हो गया है, वह किस आधार पर दो कार्यकाल से अधिक का टर्म पूरा कर चुके हैं. वर्ष 2017 में निर्वाचित हुई सदन का तीसरा कार्यकाल शुरू हो गया है, जो सर्वथा असंवैधानिक है.
सदन के बिना अनुमति के दीक्षांत आयोजन
जानकार बताते हैं कि गत कई वर्षों से सीनेट व सिंडिकेट समेत क्रय विक्रय समिति व वित्त समिति के बैठक व फैसलों पर गंभीर आरोप व सवाल खड़े होते रहे हैं, जिससे विश्वविद्यालय कि किरकिरी होती रही है. सदन के बिना अनुमति के दीक्षांत आयोजन, मनमाना खर्च, एक ही आयोजन पर दो जगह से राशि निकासी, साक्ष्य के बाद भी चहेतों को छोड़ने व निर्दोष पर कार्रवाई आदि से जुड़ी खबरें हमेशा विश्वविद्यालय को शर्मसार करती रही है.अवैध सदन से बैठक कराकर लिये गये हैं फैसले
नियमों के जानकार कार्यकाल पूरा करने के बाद के चार साल में लिये गये फैसलों को भी संदेहों के घेरे में रखते हैं. उनका मत है कि इस दौरान कई सदस्य पूर्णिया विश्वविद्यालय के हिस्सा बन चुके हैं. वहीं कई सदस्य सेवानिवृत भी हो गये हैं, जिससे संख्या बल भी निर्धारित संख्या से कम है. ऐसे में किन हालतों में लोकतांत्रिक मर्यादा को नजर अंदाज करते हुए चुनाव कराने के बजाय अवैध सदन से बैठक कराकर फैसले लिये गये हैं.नैतिकता के आधार पर सदस्यों को देना चाहिए इस्तीफा
एक तरफ जहां लोग विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बुद्धजीवियों का एक बड़ा तबका का यह भी कहना है कि 2017 के सीनेट व सिंडिकेट चुनाव में निर्वाचित हुए सदस्यों द्वारा नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देते हुए चुनाव की मांग करनी चाहिये, लेकिन दुखद है कि इसके बजाय अवैध रूपेण बैठकों का हिस्सा बने हुए हैं.विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल
लोग अब खुलकर विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े करने लगे हैं. विशेषज्ञों की माने तो कुलपति सदन की धार को कुंद करना चाहते हैं. इसीलिए सीनेट व सिंडिकेट से जुड़ी उप समितियों का पिछले साल जब गठन हुआ, तो निर्वाचित व मनोनीत सदस्यों को दरकिनार कर ऑफिशियल मेंबर को जगह दी गयी, जिसका सिंडिकेट बैठक में बहुत विरोध हुआ और आसन ने सुधार का आश्वासन दिया था, लेकिन अभी तक सुधार होने के बजाय उसी से फैसले लिये जा रहे हैं.बैठक में लिए फैसले अक्सर नहीं ले पाते हैं मूर्त रूप
बीएनएमयू में सीनेट व सिंडिकेट की बैठकों का अपना इतिहास रहा है. यहां की बैठकों की हनक की चर्चा राज्य स्तर पर रही है. गत तीन चार वर्षों की बैठकें पहले की तरह धारदार व आक्रमक होने के बजाय कमोबेश खाने-पीने व अटैची उठाने तक सीमित रह गयी है. कुछ इने-गुने सदस्यों को छोड़ दें तो अधिकांश सदस्य तो सदन में मुंह खोलना भी जरूरी नहीं समझते हैं. दो बार तो बिना पढ़े वार्षिक बजट तक पास कर दिया गया था. बैठक में लिए फैसले अक्सर मूर्त रूप नहीं ले पाते हैं.सदन के औचित्य पर खड़ा किया जा चुका है सवाल
बीएनएमयू के एक बैठक में सिंडिकेट सदस्य एमएलसी संजीव सिंह ने विश्वविद्यालय की इस करतूत पर सदन की आलोचना करते हुए बहिष्कार कर निकल गये थे. कुलसचिव के लाख मनाने पर भी नहीं लौटे थे और विश्वविद्यालय को अपनी आदत में सुधार की नसीहत दे दी थी. सिंडिकेट सदस्य मेजर गौतम के द्वारा तो कई बार बैठक के निर्णयों को पूरा नहीं करने व पदाधिकारियों की मनमानी को लेकर सदन के औचित्य पर ही सवाल खड़ा किया जा चुका है.सीनेट व सिंडिकेट चुनाव मामले में राजभवन को भी अंधेरे में रख रहा विश्वविद्यालय
सीनेट व सिंडिकेट चुनाव को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन लंबे समय से टालमटोल कर रहा है. इस संबंध में आरटीआइ एक्टिविस्ट हर्ष वर्धन सिंह राठौर ने जब बीएनएमयू से जानकारी मांगी तब बीएनएमयू ने जवाब में चुनाव से जीतकर आये सदस्यों की सूची व उनके कार्यकाल की जानकारी देते हुए कहा था कि जल्द ही चुनाव होगा. एक साल बाद भी जब कोई पहल नहीं हुई, तब राठौर ने कुलाधिपति सह राज्यपाल को पत्र लिखकर विश्वविद्यालय में वर्षों पहले कार्यकाल पूरा कर चुके सीनेट व सिंडिकेट के फंक्शन में रहने की शिकायत की, जिस पर राजभवन ने त्वरित संज्ञान लेते हुए कार्रवाई का निर्देश दिया और कार्रवाई की जानकारी राजभवन को भी देने को कहा था. विश्वविद्यालय ने जवाब में मई महीने में ही जवाब दिया कि जल्द ही चुनाव की प्रक्रिया अपनायी जायेगी. आज आलम यह है कि राजभवन को भेजे जवाब के छह माह गुजर गये है, लेकिन चुनाव की पहल तो नहीं हुई, उल्टे उसी सदन से बैठक का दौर शुरू हो गया है, जिसका कार्यकाल चार साल पहले ही खत्म हो चुका है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है