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जिस पेड़ के नीचे कभी लगती थी माओवादियों की जन अदालत, अब वहां पढ़ने बैठते हैं बच्चे

ग्वालतोड़ के पिंगबनी ग्राम पंचायत के बांकिशोल गांव में मौजूद एक आम के पेड़ के नीचे वामो के शासन काल में माओवादी की जन अदालत लगती थी

भय के उस वृक्ष के नीचे अब अलचिकी भाषा सीखते हैं बच्चे उज्ज्वल सोरेन और अनुपमा मांडी पढ़ाते हैं 40-42 बच्चों को जीतेश बोरकर, खड़गपुर ग्वालतोड़ के पिंगबनी ग्राम पंचायत के बांकिशोल गांव में मौजूद एक आम के पेड़ के नीचे वामो के शासन काल में माओवादी की जन अदालत लगती थी, जिसमें मामले सुने जाते थे और सजा भी तय होती थी, लेकिन अब यहां की फिजा पूरी तरह बदल चुकी है. अब उसी आम के पेड़ के नीचे बच्चे पढ़ते हैं. यहां उन्हें अलचिकी भाषा सिखायी जा रही है. गौरतलब है कि बांकीशोल आदिवासी बहुल इलाका है, लेकिन वामपंथी शासनकाल में माओवादी प्रभावित इलाके के नाम से जाना जाता था. कभी आम के पेड़ के नीचे जाने से डरने वाले ग्रामीण, अब अपने बच्चों को वहां शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजते हैं. मालूम हो कि इस गांव में कुल 60-62 आदिवासी परिवार रहते हैं. जंगल से घिरे इस गांव से कुछ दूरी पर ही रामगढ़ है, वहीं से कुछ दूर है लालगढ़ और झाड़ग्राम जिले के मेटला ,भालुकबासा, महुलतला, आंधरिया शिरिशबनी तथा पोड़कानाली गांव मौजूद हैं. वामो की सरकार के पतन होने के बाद से गांव की दशा बदल गयी है. गांव की सड़क पक्की हो गयी है, बिजली और पानी की सुविधा भी मौजूद है. गांव में आंगनबाड़ी केंद्र भी है. उसी आंगनबाड़ी केंद्र के पास आम का बड़ा पेड़ अब भी मौजूद है, जहां कभी माओवादियों की जन अदालत लगती थी. अब गांव के इस पेड़ के नीचे गांव के आदिवासी दंपती उज्ज्वल सोरेन और अनुपमा मांडी 40-42 बच्चों को अलचिकी भाषा की शिक्षा दे रहे हैं. वामपंथी शासनकाल के अंत में लालगढ़ आंदोलन के दौरान यह क्षेत्र माओवादियों के लिए स्वतंत्र विचरण का मैदान था. क्षेत्र में छत्रधर महतो की एक सार्वजनिक समिति बनी थी. उस समय की बातें स्थानीय लोगों के जेहन में आज भी ताजा हैं. किशनजी की मौत या छत्रधर महतो की वापसी की खबर बहुतों ने सुनी है, हालांकि डेढ़ दशक के अशांत समय के बाद वे अब इस बारे में बात नहीं करना चाहते. बुजुर्गों से पता चला कि माओवादी ‘आंदोलन’ के दौर में इसी आम के पेड़ के नीचे बैठकें होती थीं. लालगढ़ में ‘न्यायपालिका’ का प्रयोग ‘जनता अदालत’ बैठाने के लिए किया जाता था. बाहरी लोग आते जाते थे. स्थानीय निवासी काशी मुर्मू ने कहा बताया कि इस पेड़ के नीचे बैठकें होती थीं, यहीं से जुलूस निकाले जाते थे. वह वह दौर खत्म हो चुका है. भय का माहौल खत्म हो गया है. रूपचंद हांसदा, रामचंद सारेन जैसे कुछ अभिभावकों ने कहा कि अब पहले जैसा डर नहीं है. आदिवासी दंपती हमारे बच्चों को शिक्षा दे रहा है. ग्राम पंचायत सदस्य रूपाली मुर्मू ने कहा कि अभी शांत जंगलमहल में विकास कार्य चल रहा है. गांव में रहने वाला यह दंपती बच्चों को मुफ्त में पढ़ा रहा है. यह बहुत अच्छी पहल है.

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