गुड़ाबांदा. गुड़ाबांदा प्रखंड के जियान, कार्लाबेड़ा, बाकड़ाकोचा, राजाबासा, चीरुगोड़ा, सिंहपुरा, ज्वालकांटा सहित दर्जनों गांव में ग्रामीण (खासकर आदिम जनजाति) जंगल पर आश्रित हैं. उनकी जिंदगी की गाड़ी जंगल से चलती है. दूसरी ओर माफिया तत्व अपने स्वार्थ के लिए जंगल उजाड़ रहे हैं. इससे जंगल पर आश्रित परिवारों के समक्ष संकट उत्पन्न हो रहा है. ग्रामीणों का कहना है कि जंगलों से तेजी से बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई की जा रही है. विभाग से कोई कार्रवाई नहीं की जाती है. पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है.
दरअसल, आदिवासी अपने पूर्वजों की भूमि पर रहते आये हैं. वे जंगल की देखभाल अपनों की तरह करते हैं. भोजन के स्रोत और आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. वनों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण के साथ जनजातीय लोगों की आत्मा पर चोट पहुंच रही है.धरती पुत्र कहे जाते हैं आदिवासी
ज्ञात हो कि आदिवासियों को जंगल से गहरा लगाव रहता है. आदिवासी हमेशा से वन क्षेत्र में रहते हैं. ये जल, जंगल, जमीन और वन प्राणियों की रक्षा करते रहे हैं. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में आदिवासियों को धरती पुत्र कहा गया है.सुबह से शाम तक वन उत्पाद इकट्ठा करते हैं आदिवासी
गुड़ाबांदा के दर्जनों गांवों में रहने वाले जनजातीय समाज के लोग सुबह-सुबह जंगल में चले जाते हैं. जंगल से सियाली, केंदू, साल पत्ता, चार बीज लाते हैं. वन उत्पाद को बेचकर अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं. सुकरा सबर ने बताया कि सभी लोग सुबह 6 बजे एक साथ पत्ता और बीज तोड़ने जाते हैं, फिर शाम को वापस लौटते हैं.वनोत्पाद से सप्ताह में 1300 रुपये तक कमा लेता है एक परिवार
गुड़ाबांदा के राजीव महतो, चपेन महतो, मनसा महतो आदि ने बताया कि शुक्रवार को छोड़कर सभी दिन सुबह से शाम तक जंगल में रहते हैं. एक किलो सियाली पत्ता 25 रुपये व खराब पत्ता पर 20-22 रुपये मिलते हैं. सीजन में 100 केंदू पत्ता के 200 रुपये मिलते हैं. वर्तमान समय में साल पत्ता तोड़ रहे हैं. सप्ताह में एक परिवार 1300 रुपये कमा लेता है. उसी से घर चलता है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है