Chaudhary Charan Singh : वर्ष 1902 में आज ही के दिन उत्तर प्रदेश में मेरठ जिले के नूरपुर गांव में एक मध्यमवर्गीय किसान के घर में जन्मे चौधरी चरण सिंह के राजनीतिक व्यक्तित्व की सबसे खास बात यह रही कि चाहे वह देश के प्रधानमंत्री रहे हों या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, उनके लिए किसानों की चिंता सर्वोपरि रही. इसीलिए लंबी राजनीतिक पारी खेलने के बाद 29 मई, 1987 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो उसे किसानों के सबसे बड़े समर्थक को खो देने के रूप में देखा गया. उससे पहले 28 जुलाई, 1979 को उन्होंने प्रधानमंत्री की शपथ ली थी, तब विश्लेषकों ने लिखा था कि किसानों के देश को आजादी के 32 साल बाद पहला किसान प्रधानमंत्री मिला. यह और बात है कि राजनीति के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जुलाई, 1979 में प्रधानमंत्री बनने के लिए वह जिस तरह मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की पहली गैरकांग्रेसी सरकार के ‘दुश्मन’ बने और जिस कांग्रेस के खिलाफ चुने गये थे, उसी के समर्थन से अपने प्रधानमंत्रित्व में सरकार बनाई, उसे लेकर की जाने वाली आलोचनाओं ने उनके निधन के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा.
उनकी दूरदृष्टि और दृढ़ता के किस्से आज भी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के आम लोगों में दंतकथाओं की तरह कहे और सुने जाते हैं. इनमें सबसे प्रचलित किस्सा उनके प्रधानमंत्री रहते घटित हुए वाकये का है, जिसमें अगस्त ,1979 में वह भेष बदल कर एक गरीब किसान के रूप में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के उसरहर पुलिस थाने पर (जो अब औरैया जिले में है) अपने साथ हुए अपराध की रिपोर्ट लिखाने पहुंच गये थे. तब वहां रिपोर्ट लिखने के बदले उनसे घूस की मांग की गयी थी, जिसे देना उन्होंने स्वीकार कर लिया था. बाद में उन्होंने अपनी पहचान उजागर की, तो सारे पुलिसकर्मी सकते में आ गये थे और उन सबको निलंबित कर दिया गया था.
एक अन्य किस्सा यों है कि 1980 में वह उत्तर प्रदेश के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र के सिसवां क्षेत्र में अपनी पार्टी के प्रत्याशी की चुनावी सभा में जा रहे थे, तो एक अन्य सीट के प्रत्याशी ने बिना उन्हें विश्वास में लिये इस उम्मीद के सहारे रास्ते में पड़ने वाले दूसरे स्थान पर मतदाताओं की भीड़ जुटा ली थी कि स्वागत करने के बहाने उन्हें रोक लेगा, फिर सभा को संबोधित करने को कहेगा, तो वह इनकार भी भला कैसे करेंगे?
लेकिन चौधरी ने उससे साफ कह दिया कि वह पार्टी द्वारा निर्धारित सभा को ही संबोधित करेंगे. प्रत्याशी ने बहुत आरजू- मिनती की और लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा कि उसने उनके आने का प्रचार करके ही सभा में मतदाताओं को इकट्ठा किया है, तो चौधरी थोड़ा पसीजे जरूर, पर उसकी मंशा उन्होंने पूरी नहीं होने दी. उन्होंने लोगों के बीच दो टूक कह दिया, ‘इस प्रत्याशी ने मेरे आने का झूठा प्रचार करके आप लोगों को यहां बुला रखा है. आप चुनाव में इसको वोट देंगे, तो यह आपके साथ आगे ऐसी और दगा करेगा. इसलिए आगाह किये दे रहा हूं कि आप इसे वोट न दें. फिर न कहिएगा कि मैंने आपको बताया क्यों नहीं था.’ ऐसे में उस प्रत्याशी पर क्या बीती होगी, सहज ही कल्पना की जा सकती है.
इसी तरह का एक और किस्सा फिरोजाबाद का है. क्या पता, इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन कहा इसे खूब जाता है. चौधरी जी वहां अपनी पार्टी के प्रत्याशी के पक्ष में भाषण कर मंच से उतरे ही थे कि एक व्यक्ति ने उनको एक पर्चा पकड़ाया. पर्चे में उनकी पार्टी के प्रत्याशी का ‘जीवन चरित’ छपा था-उसके आपराधिक इतिहास का कच्चा चिट्ठा था. चौधरी जी ने कुछ पल पर्चा पढ़ने में लगाया और दोबारा मंच पर जा पहुंचे. मतदाताओं से कुछ पल और रुकने को कहा तथा बताया कि अभी-अभी मुझे एक पर्चा दिया गया है. आप लोगों को भी मिला होगा. अगर पर्चे में लिखी बातें सही हैं, तो इस प्रत्याशी को कतई वोट न दें, चाहें तो इसके प्रतिद्वंद्वी को दे दें. हमने इसको टिकट देने में जो गलती की है, इसको चुनकर वह गलती आप भूलकर भी न करें. कहते हैं कि यह सुनकर उनका प्रत्याशी वहीं सभा में ही गश खाकर गिर पड़ा. नतीजा आने पर तो उसको ढेर होना ही था. ये तमाम घटनाएं चौधरी जी की ईमानदारी और वैचारिक दृढ़ता के बारे में बताती हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)