Delhi politics : दिल्ली बेशक एक छोटा राज्य है, मगर इसकी सियासत के मायने बहुत बड़े हैं. दिल्ली सरकार की राजनीतिक शक्तियां सीमित होती हैं, कई प्रशासनिक फैसलों में उपराज्यपाल का सीधा दखल रहता है, लेकिन इसके बावजूद यहां की सियासत से ही पूरे देश की राजनीति की दिशा और दशा तय होती है. आज की राजनीतिक असहिष्णुता के इस दौर में इस बार के दिल्ली चुनाव और भी अहम हो जाते हैं. देश में राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त छह दलों में से तीन यहां पर जोर-आजमाइश कर रहे हैं, पर मुख्य मुकाबला अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) और भाजपा के बीच ही है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में क्लीन स्वीप करने वाली सत्ताधारी आप आज अनेक समस्याओं से घिरी हुई है. कथित शराब घोटाले में केजरीवाल का नाम आने और जेल जाने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा तक देना पड़ा और आतिशी को ‘खड़ाऊ मुख्यमंत्री’ बनाया गया, मगर केजरीवाल और ‘आप’ एक-दूसरे के पूरक हैं. इसलिए इन चुनावों में पार्टी ने ‘फिर केजरीवाल’ का नारा दिया है.
केजरीवाल की सत्ता में वापसी का मतलब होगा केंद्र के साथ टकराव का लगातार जारी रहना, बल्कि उसमें और बढ़ोतरी होना. केंद्र और दिल्ली राज्य के बीच जारी यह दंगल जनता की नजरों से छुपा हुआ नहीं है. ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि क्या जनता फिर से ऐसी सरकार को चुनना चाहेगी, जिसकी केंद्र सरकार के साथ सियासी ‘तू तू-मैं मैं’ ही चलती रहे और राज्य के विकास कार्यों में अड़ंगा डलता रहे या फिर वह ऐसी सरकार चाहेगी, जिसे केंद्र का वरदहस्त प्राप्त हो. इस नैरेटिव से जूझना केजरीवाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. फिर शराब घोटाले में केजरीवाल को मिली जमानत को लेकर उन पर बहुत सारी शर्तें लागू हैं, जो उनके लिए व्यावहारिक समस्याएं बन सकती हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें कई सारी फाइलें देखनी होंगी. यह भी विमर्श का एक मुद्दा बन सकता है और अगर पढ़े-लिखे मतदाता मदतान करने से पहले इन व्यावहारिक पहलुओं को तौलकर मतदान करते हैं, तो केजरीवाल के लिए दिक्कतें पैदा हो सकती हैं.
महिलाओं को सम्मान निधि का सियासी कार्ड मध्य प्रदेश, हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र के चुनावों तक में बड़ी सफलता से चला है और उन राज्यों में भाजपा की जीत में यह बड़ा फैक्टर रहा है. अब केजरीवाल ने महिलाओं को हर माह 2100 रुपये देने की ‘महिला सम्मान योजना’ लागू करने का वादा किया है. पर मजेदार बात यह भी है कि भाजपा द्वारा यह आरोप लगाने के बाद कि आतिशी सरकार महिला सम्मान योजना के फर्जी कार्ड बनवा रही है, दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग को विज्ञापन देकर यह कहना पड़ा कि इस तरह की कोई योजना अभी अधिसूचित नहीं की गयी है. इससे एक वर्ग में दुविधा बढ़ी है, जिसका भाजपा लाभ उठाना चाहेगी.
प्रश्न यह भी है कि चाहे केंद्र के साथ दिल्ली सरकार के टकराव का मसला हो या ‘महिला सम्मान योजना’ को लेकर विवाद खड़ा करने की मंशा, भाजपा को अपनी इस नकारात्मक राजनीति से लाभ मिलेगा या यह उसके लिए बूमरेंग साबित होगी? यह भी ये चुनाव तय करेंगे और इसी से उसकी आगे की राजनीति भी निर्धारित होगी. यह बिल्कुल साफ है कि दिल्ली राज्य की सत्ता में आने को लेकर भाजपा की व्यग्रता बहुत बढ़ गयी है. दिल्ली में भाजपा पिछले छह चुनावों में सरकार नहीं बना पायी है. बीते दो चुनावों से तो भाजपा की स्थिति बेहद कमजोर रही है. लोकसभा चुनावों में शानदार विजय हासिल करने के बावजूद राज्य चुनावों में उसका सूपड़ा साफ होता रहा है.
भाजपा सांप्रदायिक नैरेटिव के आधार पर आज ऊपर से भले ही मजबूत नजर आती है और महाराष्ट्र में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ या ‘एक हैं तो सेफ हैं’ जैसे नारों ने उसे सफलता भी दिलायी है, पर भाजपा के लिए समस्या यह है कि दिल्ली में स्वयं अरविंद केजरीवाल पुजारियों और ग्रंथियों को मानदेय देने की बात कर रहे हैं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर कांग्रेस को हराने में तो भाजपा को दिक्कत नहीं होती है, पर केजरीवाल की पार्टी पर अब तक वह किसी एक धर्म विशेष का तुष्टीकरण करने का आरोप नहीं लगा पायी है. केजरीवाल स्वयं को हनुमान भक्त बताते हुए सार्वजनिक तौर पर हनुमान चालीसा का पाठ करने जैसी नाटकीयता रचने से भी गुरेज नहीं करते हैं. इससे भाजपा ‘आप’ के खिलाफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वैसा कार्ड नहीं चल पाती है, जो उसे कांग्रेस के खिलाफ चलाने में आसानी होती है.
भाजपा इस बार दिल्ली में उस रणनीति पर भी चल रही है कि कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहे. पिछले दो चुनावों में कांग्रेस का स्कोर जीरो रहा है. वोट प्रतिशत भी चार-पांच प्रतिशत के आसपास रहा है. भाजपा को डर इस बात का है कि कहीं इसमें से भी दो-ढाई प्रतिशत केजरीवाल के खाते में ना चले जाएं. इसलिए भाजपा चाहती है कि वहां वोटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी बढ़कर सात-आठ प्रतिशत हो जाए. यदि ऐसा होता है, तो इसका सीधा नुकसान ‘आप’ को होगा. इसी को भांपते हुए केजरीवाल ने भी भाजपा और कांग्रेस पर मिलीभगत के आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं. इसके जरिये वह भाजपा विरोधी कांग्रेस के मतदाताओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब एक तरह से भाजपा को वोट देना होगा.
जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, उसके स्थानीय नेता चाहते हैं कि उन्हें केजरीवाल के खिलाफ जमकर बात करने की स्वतंत्रता मिले, पर मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी जैसे राष्ट्रीय नेता एक बड़ी तस्वीर की ओर देख रहे हैं. उनकी मंशा है कि भाजपा किसी भी कीमत पर दिल्ली न जीत पाए, भले ही कांग्रेस का स्कोर जीरो पर बरकरार रहे, क्योंकि दिल्ली जैसे ‘आप’ के गढ़ में भाजपा की जीत आगामी बिहार चुनावों में इंडिया गठबंधन के सामने और मुश्किल हालात पैदा कर देगी. हरियाणा की राजनीति पर भी इसका असर पड़ सकता है, क्योंकि वहां कांग्रेस के भीतर काफी खटपट चल रही है. भाजपा की जीत से वहां कांग्रेस के असंतुष्ट नेता एक क्षेत्रीय पार्टी के गठन के लिए और फिर भाजपा के साथ पींगे बढ़ाने को प्रेरित हो सकते हैं.
इधर, केजरीवाल परोक्ष रूप से यह नरैटिव भी रच रहे हैं कि यदि दिल्ली में वह हार गये, तो अगला नंबर ममता बनर्जी व स्टालिन समेत तमाम क्षेत्रीय नेताओं का आ सकता है और इससे क्षेत्रीय राजनीति का मर्सिया पढ़े जाने की शुरुआत हो सकती है. ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे क्षत्रपों द्वारा उन्हें समर्थन देने की घोषणा को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)