रांची : झारखंड की सियासत की किताब में अगर बाबूलाल मरांडी का जिक्र न हो तो वह पुस्तक अधूरा है. 11 जनवरी 1958 गिरिडीह के कोदाईबांक गांव में उनका जन्म हुआ था. आज वे 67वें साल में प्रवेश कर गये हैं. कभी राज्य के पहले मुख्यमंत्री का गौरव हासिल करने वाले बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक जीवन उतार चढ़ाव भरा रहा. पेशे से शिक्षक रहे बाबूलाल मरांडी के सियासत में इंट्री करने का किस्सा बेहद रोचक है.
कॉलेज के दिनों से ही जुड़ गये थे आरएसएस में
बाबूलाल मरांडी कॉलेज के दिनों से ही आरएसएस से प्रभावित होकर संघ से जुड़ गये थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह गांव के ही एक प्राथमिक स्कूल में टीचर थे. नौकरी करने के दौरान एक बार उन्हें किसी काम से शिक्षा विभाग जाना पड़ा. वहां पर कार्यरत क्लर्क ने उनसे पैसे मांग लिये. बाबूलाल मरांडी ने इसका विरोध किया. लेकिन सरकारी बाबू अपनी जिद में अड़ा हुआ था. इसके बाद वह घर आए और नौकरी से इस्तीफा दे दिया.
विश्व हिंदू परिषद के सचिव भी रहे हैं बाबूलाल मरांडी
बाबूलाल मरांडी कुछ सालों तक विश्व हिंदू परिषद के सचिव भी रहे. साल 1991 में वे पहली बार भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन हार गये. उस वक्त संताल में शिबू सोरेन का प्रभाव इतना था कि कोई भी आम नेता उन्हें चुनौती नहीं दे सकता था. साल 1998 उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. 1998 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उन्हें पार्टी की कमान सौंपी और उसी साल उन्होंने शिबू सोरेन को हरा दिया. जिसके बाद उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के कैबिनेट में मंत्री बनाया गया.
झारखंड गठन के बाद बाबूलाल ने किया नेतृत्व
15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य अस्तित्व में आया तो बाबूलाल मरांडी को पार्टी के शीर्ष आलाकमान ने विधायक दल का नेता चुन लिया. उस वक्त बीजेपी ने कुछ निर्दलीय विधायकों का समर्थन और जदयू के सहयोग से सरकार बना ली. दूसरी तरफ कांग्रेस, झामुमो और राजद भी सरकार बनाने के लिए अड़ा हुआ था. लेकिन संख्या बल उनके पास नहीं थी. जिसके बाद राज्यपाल प्रभात कुमार ने बाबूलाल मरांडी को सरकार बनाने का न्योता दे दिया.
लंबा नहीं चल सका बाबूलाल का कार्यकाल
हालांकि उनका कार्यकाल लंबा नहीं चल सका और साल 2003 में कई मंत्रियों ने सीएम बाबूलाल से नाराज होकर इस्तीफा दे दिया. नतीजा सरकार अल्पमत में आ गयी. यह बात दिल्ली तक भी पहुंच चुकी थी. इसके शीर्ष नेतृत्व ने अर्जुन मुंडा को सर्वसम्मति विधायक दल नेता चुना. बाबूलाल मरांडी को अपनी इस्तीफा देना पड़ा. साल 2004 में बीजेपी ने उन्हें कोडरमा से अपना प्रत्याशी बनाया और वे चुनाव जीत भी गये. इसके बाद वे पार्टी से अलग थलग पड़ते जा रहे थे. साल 2006 में उन्होंने बीजेपी और लोकसभा की सदस्यता दोनों से इस्तीफा दे दिया.
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पहली बार में ही बाबूलाल ने कर दिया कमाल लेकिन बाद में गिरता चला गया पार्टी का प्रदर्शन
इसके बाद बाबूलाल मरांडी ने साल 2006 में बीजेपी के कुछ नेताओं के साथ मिलकर अपनी नयी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का गठन किया. नयी पार्टी का नेतृत्व करते हुए बाबूलाल मरांडी ने कमाल कर दिया. उनकी पार्टी ने 14 सीटें जीत ली. लेकिन उसके बाद से उसकी पार्टी का प्रदर्शन खराब होता चला गया. साल 2014 के चुनाव में उनकी पार्टी सीटें घट गयी. हालांकि चुनाव जीतने के बाद उनके 6 विधायकों ने पार्टी से इस्तीफा देते हुए बीजेपी का दामन थाम लिया. इसके बाद साल 2019 में उनकी पार्टी सिर्फ 3 सीटें ही जीत सकी. इसके बाद साल 2020 में उन्होंने झाविमो का बीजेपी में विलय कर लिया. उसकी पार्टी के दो अन्य नेता प्रदीप यादव और बंधु तिर्की कांग्रेस में शामिल हो गये. बीजेपी ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष भी बनाया लेकिन सदन में उसे मान्यता नहीं मिल सकी. इसके बाद साल 2023 में पार्टी ने उसे बड़ी जिम्मेदारी देते हुए प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी. लेकिन बीजेपी को कामयाबी नहीं मिली और राज्य गठन के बाद उनका दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन रहा.
बाबूलाल का बेटा मारा जा चुका है नक्सली हमले में
बाबूलाल मरांडी के बेटा अनूप मरांडी नक्सली में हमला मारा जा चुका है. 27 अक्टूबर 2007 में को उनका बेटा एक फुटबॉल मैच में बतौर अतिथि गये हुए थे. इस दौरान नक्सलियों ने अचानक धावा बोला दिया और फायरिंग शुरू कर दी. इसमें उनका बेटा मारा गया. इस तरह पूर्व मुख्यमंत्री ने अपने ही जवान बेटे को अर्थी दी.
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