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खाद्य नीति में डॉ मनमोहन सिंह की दूरदर्शिता

food-policy : वर्ष 2008 वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों की गंभीर कमी और कई देशों में इस कारण हुए दंगों के लिए जाना जाता है. दुनिया में अनाज की कमी होने से बहुत पहले, हमने देश के ‘अनाज बजट’ पर विचार करने की कवायद शुरू कर दी थी.

Food Policy : जून 2006 का अंतिम सप्ताह था. मैं झारखंड में तीन काम संभाल रहा था- विकास आयुक्त, अपर मुख्य सचिव एवं अध्यक्ष विद्युत बोर्ड. अंतरराष्ट्रीय असाइनमेंट से लौटने के बाद मैं अक्तूबर तक भारत सरकार में पोस्टिंग की उम्मीद कर रहा था. एक दोपहर मुझे कैबिनेट सचिव के कार्यालय से फोन आया कि मुझे खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग में ‘विशेष सचिव’ नियुक्त किया गया है और मुझे तुरंत दिल्ली में रिपोर्ट करना है. मैं अचानक हुए बदलाव के लिए तैयार नहीं था. उस विभाग के लिए मेरा चयन, जिसका मुझे कोई अनुभव नहीं था, मेरे लिए एक आश्चर्य था. मैंने आदेश का पालन किया और दिल्ली आ गया.


विभाग पूरी तरह तैयार था. कई वर्षों के अंतराल के बाद पहली बार भारत को पर्याप्त मात्रा में गेहूं का आयात करना था. प्रक्रिया शुरू तो कर दी गयी थी, पर वह अपेक्षित गति नहीं पकड़ पायी थी. सरकार के भीतर प्रक्रियाओं और नौकरशाही स्तर पर विलंब ने चीजों को धीमा कर दिया था. मैंने अगले दिन प्रधानमंत्री से शिष्टाचार भेंट की. उन्होंने मुझे ‘राष्ट्र’ के लिए काम करने के लिए कहा. यह मेरे लिए शीर्ष स्तर से मिला प्रोत्साहन था. मैं काम में लग गया और प्रक्रिया तेज कर दी. नतीजे दिखने लगे. ऐसी कई बैठकें हुईं जिनमें प्रधानमंत्री ने स्वयं खाद्य पदार्थों की स्थिति पर चर्चा की. एक दिन पीएम से ‘वन टू वन’ मीटिंग के दौरान, मैंने उनसे विशेषज्ञ द्वारा की जा रही आलोचना के बारे में पूछा, जिसमें कहा जा रहा था कि ऊंची कीमतों पर गेहूं का आयात करना गलत है और यह आगे जाकर हमारी खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करेगा.

उन्होंने कहा, मैं किसी भी भारतीय को भोजन के बिना नहीं रहने दे सकता. कमी है और आपूर्ति बढ़ानी होगी. हमें मांग कम करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. हमारे पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा है और अगर हम अपने लोगों के लिए भोजन नहीं खरीद सकते तो इस भंडार का क्या अर्थ है. बाद में हुई एक बातचीत में मैंने प्रश्न उठाया कि हम एक या दो वर्ष से ज्यादा आयात पर निर्भर नहीं रह सकते, हम भविष्य में ऐसी स्थिति से कैसे बचें? उन्होंने इस प्रश्न पर कई अन्य प्रमुख मंत्रियों और विशेषज्ञों से सलाह ली. इसके बाद उन्होंने दो योजना बनायी- राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाइ) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम से यह भिन्न था) को लॉन्च करने की, ताकि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ायी जा सके.


आरकेवीवाइ की परिकल्पना राज्य के नेतृत्व वाले केंद्र समर्थित कार्यक्रम के रूप में की गयी थी, जहां संपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया राज्य के मुख्य सचिवों को सौंपी गयी थी. एनएफएसएम का लक्ष्य मुख्य रूप से बाजरा और दालों के एक छोटे घटक के साथ गेहूं और चावल की उत्पादकता बढ़ाना था. इसे कृषि मंत्रालय ने लागू किया और भारत ने अपने उत्पादन को ऐसे स्तर तक बढ़ाया गया, जो आरामदायक स्थिति से भी अधिक था. इसके लिए 4500 करोड़ रुपये की राशि (5000 करोड़ रुपये के अनुमान के मुकाबले) खर्च की गयी. कार्यक्रम के अंत (2012) में समीक्षा में कहा गया कि केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयासों से, 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंत में 2006-07 के आधार वर्ष के दौरान हुए उत्पादन की तुलना में चावल उत्पादन में 12.1 मिलियन टन (लक्ष्य 10 मिलियन), गेहूं में 19.1 मिलियन टन (लक्ष्य आठ मिलियन) और दाल उत्पादन में 2.9 मिलियन टन (लक्ष्य दो मिलियन) की वृद्धि हुई है. यह सर्वोत्तम योजना और उसका कार्यान्वयन था. एक अन्य अवसर पर मुझे उनके साथ एफसीआइ में बफर स्टॉक की मात्रा पर चर्चा करने का अवसर मिला. जहां मेरे सुझाव को तुरंत मान लिया गया.


वर्ष 2008 वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों की गंभीर कमी और कई देशों में इस कारण हुए दंगों के लिए जाना जाता है. दुनिया में अनाज की कमी होने से बहुत पहले, हमने देश के ‘अनाज बजट’ पर विचार करने की कवायद शुरू कर दी थी. इसमें एफसीआइ स्टॉक के अतिरिक्त निजी तौर पर रखे गये स्टॉक का अनुमान भी शामिल था. तब अधिकांश खाद्य नीति निर्णय सार्वजनिक स्टॉक (एफसीआइ+राज्य) के आसपास केंद्रित थे और ऐसा लगा था कि यह 2006 जैसी स्थिति से बचने के लिए अपर्याप्त थे. हमने पाया कि चावल की स्थिति चिंताजनक है. जब मैंने ये आंकड़े और अपनी आशंका पीएम के सामने रखी, तो उन्होंने मूल्य को लेकर कैबिनेट कमेटी की बैठक बुलायी. मंत्रालय ने कहा कि गैर-बासमती चावल निर्यात पर अस्थायी रोक लगायी जा सकती है. अन्य लोगों के साथ, निर्यातकों और निर्यात प्रोत्साहन एजेंसियों ने इसका कड़ा विरोध किया, पर डॉ सिंह ने कहा कि दूसरे देशों में चावल भेजने से पहले मुझे यह सुनिश्चित करना होगा कि देश में हमारे लोगों के लिए पर्याप्त चावल हो. उनके इस कदम की भी आलोचना हुई. पर डॉ सिंह स्पष्ट थे कि वे क्या चाहते हैं. इसी दूरदर्शिता के कारण 2009 के भीषण सूखे को खाद्यान्नों के आयात के बिना प्रबंधित किया जा सका. व्यक्तिगत स्तर पर, मैं डॉ सिंह का एक छात्र था और वह मेरे पथ-प्रदर्शक, मार्गदर्शक और गुरु थे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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