सुबोध कुमार नंदन/ आज 23 जनवरी है. आज ही के दिन देशभक्ति का जज्बा व जोश से भर देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (Netaji Subhas Chandra Bose Jayanti) मनायी जाती है. पटना से नेताजी की गहरी यादें जुड़ी हुई हैं. बोस का बिहार और खासतौर पर पटना से गहरा लगाव था. उन्होंने आजादी के पूर्व पटना के बांकीपुर, दानापुर, खगौल के कच्ची तालाब, मंगल तालाब (पटना सिटी) आदि स्थानों पर सभाएं कीं. नेता जी के आह्वान पर हजारों लोग की भीड़ से पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान भर गया था, सबकी जुबान से बस एक ही नारा लग रहा था ‘तुम मुझे खून दो मै तुझे आजादी दूंगा’. पटना की धरती पर नेताजी को अभूतपूर्व स्वागत किया गया था. बिहार बंगाली एसोसिएशन के सचिव व बांग्ला के वरीय साहित्यकार विद्युत पाल ने प्रभात खबर के साथ पटना से बोस की जुड़ी स्मृतियों को साझा किया.
सुभाष दौड़े चले आते थे पीआर दास के पास
सुभाष चंद्र बोस के राजनैतिक गुरु चित्तरंजन दास मरते वक्त अपने छोटे भाई प्रफुल्ल रंजन (पीआर दास) को बोल गये थे- ‘प्रफुल्ल! ये सुभाष है, थोड़ा ख्याल रखना’. छोटे भाई प्रफुल्ल पटना में अपनी बैरिस्टरी की व्यस्तताओं के बीच बड़े भइया के आदेश कभी नहीं भूले. सुभाष चंद्र बोस भी जरूरत पड़ते ही पीआर दास के पास दौड़े चले आते थे. उन्होंने बताया कि आइसीएस से इस्तीफा देने के बाद से ही सुभाष चंद्र के प्रति बिहारवासियों की दृष्टि आकर्षित हुई. सुभाष चंद्र बोस बिहार आते थे मुख्यतः एक श्रमिक नेता के तौर पर. चित्तरंजन दास की ओर से, टाटा कारखाने के मजदूर संघ के कामकाज के लिए. उसी समय से किसान सभा के सहजानन्द सरस्वती, शीलभद्र याजी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जयप्रकाश नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि व्यक्तियों के साथ उनकी मित्रता बनती रही थी. बोस अपने संबोधन में पटना के लोगों को स्वराज का असली अर्थ भी बताया करते थे.
पटना में कई सभाओं में मुख्य वक्ता थे नेता जी
पटना में सुभाष चंद्र बोस की कई सभाओं में ये मुख्य वक्ता के तौर पर आते थे. पटना एवं अन्य कई जगहों पर सुभाष चंद्र बोस की सभाओं में बांग्लाभाषी जनता भी, खासकर महिलाएं आती थीं. तब सुभाष की गर्जना, हिंदी के साथ-साथ बांग्ला में भी सुनायी पड़ती थी. पटना एवं दानापुर में आयोजित सुभाष की कई सभाओं की जो सीआइडी रिपोर्ट मिली है. उनमें इन सभाओं का विस्तृत वर्णन लिपिबद्ध है. पोलिटिकल (स्पेशल) डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट (फाईल संख्या 491 वर्ष 1939) में, सुभाष एवं शीलभद्र याजी को डिफेन्स ऑफ इंडिया रूल में गिरफ्तार किया जायेगा या नहीं, पूछा गया था. बिहार के प्रधानमंत्री (उस समय मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) कृष्ण सिंह ने यह नोट ईकर गिरफ्तारी को मना किया था कि गांधी का समर्थन न रहे तो सुभाष से डरने की जरूरत नहीं.
27 अगस्त 1939 से शुरू हुई थी सभा यात्रा
पाल ने बताया कि सुभाष चंद्र बोस द्वारा कांग्रेस की अध्यक्षता त्याग दिया जाना, फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन आदि कार्यों में प्रफुल्ल रंजन दास का समर्थन था. अपने प्रचार अभियान की शुरुआत सुभाष चंद्र बोस, दास जी से सलाह-मशविरे के बाद पटना से करना चाहते थे. इसलिए इस बार भी पहले की तरह सुभाष चंद्र बोस दास के आवास शांतिनिकेतन (फ्रेजर रोड) में प्रवास करते थे. उनकी सभा यात्रा 27 अगस्त 1939 से शुरू हुई. सुबह उन्होंने सभा किया दानापुर में, कांग्रेसियों ने हल्का फुल्का विरोध जताया. भूतपूर्व कांग्रेसी मंत्री जीमूतवाहन सेन के पटना स्थित घर में उन्होंने दोपहर का लंच किया. अपराह्न में चले गये पटना सिटी, मंगल तालाब में सभा करने के लिए. वहां बड़ी तादाद में जनता उनका इंतजार कर रही थी. नौ मानपत्र तैयार किये गये थे. उनमें से केवल एक, बंगाली युवा संघ का मानपत्र, चांदी के पात्र में रखकर सुभाष को देने के लिए चुना गया था. मंगल तालाब की सभा का समापन कर सुभाष पटना लौट आये बांकीपुर मैदान (मौजूदा गांधी मैदान) की सभा को संबोधित करने के लिए. कांग्रेसियों के सुभाष-विरोधी विक्षोभ, ‘गो बैक सुभाष’ आदि के नारे तथा गुंडागर्दी के कारण इस सभा को स्थगित करना पड़ा था. उधर स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने पीआर दास के साथ सलाह-मशविरा कर तत्काल घोषित किया कि दूसरे दिन यानी 29 अगस्त को बांकीपुर मैदान में फिर उसी समय स्थगित की गयी सभा दोबारा संपन्न की जायेगी.
जय प्रकाश नारायण ने की थी बांकीपुर में सभा की अध्यक्षता
29 अगस्त 1939 को पटना के बांकीपुर मैदान में आयोजित सभा की अध्यक्षता जय प्रकाश नारायण ने की. रामवृक्ष बेनीपुरी ने स्वागत-भाषण दिया. शाम पांच बजे से लेकर शाम 6:40 बजे तक चलने वाले आयोजन में 20 हजार लोगों की भीड़ थी. भीड़ में 150 से अधिक बंगाली महिलाएं भी मौजूद थीं. सभा को चारों ओर से घेरकर, मुंगेर-जमालपुर से ट्रक व ट्रेन में लदकर आये किसान सभा के वे लाठी धारी कार्यकर्ता पहरा दे रहे थे, जो स्वामी सहजानन्द सरस्वती के आह्वान पर आये थे. हालदार जी ने जो बंगला मानपत्र पढ़ा था. स्वामी सहजानंद सरस्वती सुभाष चंद्र बोस के परम मित्र थे. अपने मित्र की गिरफ्तारी की खबर सुनकर, सुभाष चंद्र बोस और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश राज द्वारा उनकी कैद के विरोध में 28 अप्रैल को अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया. बिहटा स्थित सीताराम आश्रम जाकर स्वामी सहजानंद सरस्वती से मिले थे.सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि स्वामी सहजानंद सरस्वती हमारे देश में एक ऐसा नाम है, जिसे याद रखना चाहिए.
26 अगस्त, 1939 को मुजफ्फरपुर आये थे बोस
मुजफ्फरपुर. नेताजी सुभाष चंद्र बोस 26 अगस्त, 1939 को मुजफ्फरपुर आये थे. उन्होंने क्रांतिकारी ज्योतिंद्र नारायण दास और शशधर दास की बंका बाजार स्थित कप-प्लेट वाली चाय की दुकान का उद्घाटन किया था. यह कप-प्लेट की पहली चाय दुकान थी. दोनों क्रांतिकारियों ने इस दुकान के बहाने क्रांतिकारियों को एकत्र होने की जगह बनायी थी. उस समय शहर के सोशलिस्ट नेता रैनन राय ने सुभाष चंद्र बोस को यहां बुलाया था. दुकान के उद्घाटन के बाद सुभाष चंद्र बोस तत्कालीन गवर्नमेंट भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज (अब एलएस कॉलेज) पहुंचे थे. यहां उनको सम्मानित किया गया था. नेताजी ने तिलक मैदान की सभा में करीब 70 मिनट भाषण देकर क्रांतिकारियों में आजादी का जज्बा फूंका था. इसके बाद नेताजी ओरिएंट क्लब पहुंचे. यहां बांग्ला भाषी समुदाय की ओर से उन्हें सम्मानित किया गया.
सुभाष चंद्र बोस के निजी सचिव थे कर्नल महबूब
मुजफ्फरपुर निवासी महबूब अहमद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मिलिट्री सेक्रेटरी और निजी सचिव थे. इनके पिता डॉ वली अहमद ने इनहें 1932 में देहरादून मिलिट्री स्कूल भेज दिया था. 1940 में इनकी नियुक्ति ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सेकेंड लेफ्टिनेंट के तौर पर हुई थी. ये सुभाष चंद्र बोस के विचारों से काफी प्रभावित थे. इस कारण 1942 में नौकरी छोड़ कर आजाद हिंद फौज में शामिल हो गये. सुभाष चंद्र बोस से इनकी पहली मुलाकात सिंगापुर में हुई. इन्हें सुभाष रेजीमेंट का एड-ज्वाइंट के पद पर नियुक्त किया गया. कर्नल महबूब का पहला मोर्चा भारत- बर्मा, सीमा, पर चीन हिल पर था. इस युद्ध में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को कामयाबी हासिल हुई. इस युद्ध की जीत पर नेताजी ने कर्नल महबूब को शाबाशी देते हुए कहा कि, ‘‘महबूब 23 वर्ष की उम्र में तुमने तो कमाल कर दिया.’’ 1943 के आखिरी महीने में ‘सुभाष रेजीमेंट को मयरांग मोर्चे पर भेज दिया गया, जहां अंग्रेजी फौज व आजाद हिंद फौज के बीच युद्ध हुआ, इसमें कर्नल महबूब के सिपाहियों को जीत मिली. 14 मई,1944 को हुए युद्ध में कर्नल महबूब के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की क्लांग घाटी पर अधिकार हो गया.