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Republic Day 2025: 75 बरसों में पूरी तरह बदल गयी है भारतीय सिनेमा की दुनिया

Republic Day 2025: भारतीय सिनेमा यूं तो 1940 के दशक में ही अपनी मजबूत नींव रख चुका था, लेकिन उस नींव पर ऊंची इमारत 1950 में तब बननी शुरू हुई, जब भारत में गणतंत्र स्थापित हुआ. आज 75 बरसों बाद वही भारतीय सिनेमा एक भव्य महल बनकर विश्व को आकर्षित कर रहा है.

Republic Day 2025: भारतीय सिनेमा यूं तो 1940 के दशक में ही अपनी मजबूत नींव रख चुका था, लेकिन उस नींव पर ऊंची इमारत 1950 में तब बननी शुरू हुई, जब भारत में गणतंत्र स्थापित हुआ. आज 75 बरसों बाद वही भारतीय सिनेमा एक भव्य महल बनकर विश्व को आकर्षित कर रहा है. हालांकि, यह भी सच है जब भारतीय सिनेमा अपने शैशव काल में था, तब भी हॉलीवुड फिल्में दुनिया के सिर चढ़ कर बोलती थीं. इधर, आज हम सिनेमा के अनेक सोपान चढ़ एक नये शिखर पर पहुंच गये हैं. लेकिन, हॉलीवुड की फिल्में आज भी बेजोड़ हैं. इन बरसों में भले ही हम हॉलीवुड की फिल्मों से आगे नहीं निकल पाये और न ही उनके समतुल्य बन सके, लेकिन आज भारत विश्व में सर्वाधिक फिल्म बनाने वाला देश बन गया है. हॉलीवुड सिनेमा का मुकाबला करने में भी हम सक्षम होने लगे हैं. आज भारतीय फिल्में विश्व के 100 से अधिक देशों में पसंद की जा रही हैं.

पुराने इतिहास में जायें, तो मई 1913 में जब दादा साहब फाल्के ने मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाकर भारतीय सिनेमा की आधारशिला रखी, तब इस उपलब्धि पर देश को गर्व था. लेकिन, तब सिनेमा अनेक सवालों के घेरे में भी था. साथ ही तब फिल्मों में काम करना ही नहीं फिल्मों को देखना भी बुरा माना जाता था. सन 1931 में ‘आलम आरा’ फिल्म से सवाक फिल्मों का युग शुरू होने पर भी सिनेमा के प्रति समाज का नजरिया अच्छा नहीं था, लेकिन देश में भारतीय गणतंत्र स्थापित होते-होते सिनेमा ने ऐसी करवट ली कि सिनेमा एक ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया. हालांकि, 1940 के दशक में हमारी फिल्मों ने लंबे डग भरने शुरू कर दिये थे. साल 1946 में चेतन आनंद की पहली फिल्म ‘नीचा नगर’ ने कान फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ‘पाम डी ओर’ पुरस्कार जीतकर विश्व में पहली बार भारतीय फिल्मों की पताका फहरा दी थी. बंधन, चित्रलेखा, किस्मत, राम राज्य, शकुंतला, शहीद, अंदाज, महल और बरसात जैसी फिल्मों ने इस दशक में दर्शकों की सिनेमा के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ा दी थी, लेकिन भारतीय सिनेमा को पंख साल 1950 में प्रथम गणतंत्र दिवस के बाद ही लगे.

गणतंत्र स्थापित होने के बाद साल 1950 में जो फिल्में सर्वाधिक सफल रहीं वे ‘समाधि’, ‘जोगन’, ‘हर हर महादेव’, ‘सरगम’ और ‘आरजू’ थीं. अशोक कुमार, नलिनी जयवंत, सुरैया कामिनी कौशल, नर्गिस की तब धूम थी. साथ ही राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की त्रिमूर्ति भी उभर रही थी. उधर भारतीय गणतंत्र के प्रथम दशक में सिनेमा में एक साथ अनेक बदलाव हुए. जहां सिनेमाटोग्राफी एक्ट 1950 के अंतर्गत जनवरी 1951 में सेंसर बोर्ड की स्थापना हुई, वहीं विश्व में फिल्म संस्कृति के आदान-प्रदान और भारतीय सिनेमा की पहुंच दुनियाभर में पहुंचाने के उद्देश्य से साल 1952 में देश में ‘भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’ की शुरुआत भी कर दी गयी. फिर फिल्मकारों को भारत सरकार की ओर से प्रोत्साहित और सम्मानित करने के लिए 1954 में प्रथम राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह भी आरंभ किया गया. उधर फिल्मफेयर पुरस्कार भी इसी वर्ष शुरू हुए. इस सबसे गणतंत्र के तुरंत बाद ही भारतीय सिनेमा की दशा एक दम बदल गयी.

सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के इन प्रयासों के साथ हमारे फिल्मकारों ने इस दशक में इतनी खूबसूरत फिल्में बनायी कि यह काल भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग बन गया. राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ ने 1951 में इतनी लोकप्रियता पायी कि भारतीय सिनेमा देश की सीमाएं पार कर रूस सहित विश्व में लोकप्रिय होने लगा.

राज कपूर, सत्यजित राय, लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन

गणतंत्र के इन 75 बरसों में यूं तो कई दिग्गज और शानदार फिल्मकार हुए, जिनके कारण भारतीय सिनेमा समृद्ध होने के साथ देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ, लेकिन ऐसे यदि सिर्फ दो फिल्मकारों को चुना जाये तो उनमें राज कपूर और सत्यजित राय सर्वोपरि हैं. दोनों ने विश्व में भारतीय सिनेमा को एक विशिष्ट पहचान और सम्मान दिलाने में बड़ी पहल की. सत्यजित राय ने 1955 में अपनी प्रथम निर्देशित बांग्ला फिल्म ‘पथेर पांचाली’ से ही अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों से विश्व का ध्यान भारतीय फिल्मों की ओर कराया. फिर राय का नाम देश की उन दो फिल्म हस्तियों में हैं, जिन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न मिला है. भारत रत्न पाने वाली दूसरी हस्ती लता मंगेशकर हैं, जिन्होंने अपने स्वर से फिल्म संगीत को अप्रतिम योगदान देकर इसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित करने में अत्यंत विशिष्ट भूमिका निभाई. उधर, इन बरसों के महानायक सिर्फ एक हैं-अमिताभ बच्चन.

इधर, हम 1951 से 1960 के दस बरसों को देखें, तो यह समय कालजयी फिल्में देने में सबसे आगे रहा. हिंदी सिनेमा की शिखर की पांच कालजयी फिल्मों में तीन – ‘आवारा’, ‘मदर इंडिया’ और ‘मुगल-ए-आजम’ इस एक दशक में आयीं. इन फिल्मों के बाद शिखर की अब तक की दो और कालजयी फिल्मों में हम ‘शोले’ और ‘बाहुबली’ को रख सकते हैं.
इन बरसों में भारतीय सिनेमा तकनीकी रूप से भी निरंतर प्रगति कर रहा है. अब तो हम तकनीक के ऐसे युग में पहुंच गये हैं, जहां एआइ तकनीक से कुछ भी संभव हो सकता है. इससे पहले स्पेशल इफेक्ट्स, 4 साउंड ट्रैक, 3डी, डॉल्बी, वीएफएक्स, आइ मैक्स और 4के जैसी कितनी ही तकनीक सिनेमा की पुरानी तस्वीर को पूरी तरह बदल चुकी हैं.

फिल्मों के विषय और कथानक में भी आये हैं बदलाव

पिछले 75 बरसों के सफर में फिल्मों के विषय और कथानक में भी बड़े बदलाव आये हैं. पहले जहां धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्में अधिक बनती थीं, फिर आजादी और देशभक्ति फिल्मों का युग भी आया तो सामाजिक और एक्शन फिल्मों का भी. प्रेम कहानी फिल्मों में हर दौर में रही, लेकिन आगे चलकर फिल्मों में नारी चित्रण और प्रेम कथाओं में ऐसे बदलाव हुए जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

साल 1936 में प्रदर्शित ‘अछूत कन्या’ की नायिका कस्तूरी का विवाह उसकी जाति के चलते ब्राह्मण युवक प्रताप से नहीं हो पाता. दोनों की शादी अलग-अलग जगह हो जाती है, लेकिन विवाह के बाद जब एक दिन मेले में कस्तूरी, प्रताप से मिलती है, तो इतना हंगामा हो जाता है कि कस्तूरी आत्महत्या कर लेती है. वहीं, 1959 में फिल्म ‘सुजाता’ की नायिका को प्राण नहीं त्यागने पड़ते. उसे समाज स्वीकार कर लेता है.

उधर विवाह पूर्व नायिका के मां बनने के प्रसंग तो समयानुसार फिल्मों के बदलते कथानक को बखूबी दर्शाते हैं. साल 1959 की फिल्म ‘धूल का फूल’ की मीना विवाह पूर्व मां बनने पर कलंक से बचने के लिए अपने बच्चे को जंगल में छोड़ देती है, लेकिन दस साल बाद 1969 में ‘आराधना’ की नायिका वंदना अपने बच्चे को जंगल में तो नहीं छोड़ती, पर अपने सामने पल रहे अपने बच्चे को अपना बेटा नहीं कह पाती. उधर 1975 में ‘जूली’ की जूली अपने नाजायज बच्चे को जन्म तो देती है, लेकिन अपने शहर से कहीं दूर जाकर. साल 2000 की फिल्म ‘क्या कहना’ की नायिका प्रिया अपने गर्भ के साथ बेखौफ कॉलेज भी जाती है और बच्चे को उसी शहर में ही रहकर जन्म देती है. इधर, पिछले कुछ बरसों में लिवइन संबंधों को भी फिल्मों में दिखाया जा रहा है, तो कई अन्य बोल्ड विषयों पर बिना संकोच फिल्में बन रही हैं. उधर देश में 1990 के दशक में शुरू हुए सीक्वल फिल्मों का सिलसिला अब चरम पर है.

अब फिल्में कमाई के मामले में भी नये रिकॉर्ड बना रही हैं. पहले सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली डायमंड जुबली से फिल्म की सफलता आंकी जाती थी, लेकिन 2008 में ‘गजनी’ के बाद फिल्म की सफलता उसकी बॉक्स ऑफिस पर अर्जित आय से होने लगी है. पहले यह सफलता 100 से 500 करोड़ रुपये से आंकी जा रही थी, लेकिन अब जब ‘पुष्पा-2’ जैसी फिल्म 2 हजार करोड़ तक की कमाई करने लगी हैं, तो सफलता के सभी पुराने समीकरण पीछे छूट गये हैं.

(वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक)

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