Explainer: अन्ना हजारे के इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन से पहले शायद ही कोई अरविंद केजरीवाल को जानता था. उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन को अपना मजबूत हथियार बनाया. भारतीय राजस्व सेवा (IRS) की नौकरी छोड़ने के बाद अरविंद केजरीवाल ने ‘सूचना का अधिकार’ के लिए जमकर काम किया, फिर अन्ना आंदोलन में शामिल हुए. कुछ ही समय में केजरीवाल अन्ना के दाहिना हाथ बन गए. जब अन्ना आमरण अनशन में बैठे थे, तो मंच पर उनके बगल में अरविंद केजरीवाल नजर आते थे. अन्ना को जरूरी मंत्रणा केजरीवाल ही दिया करते थे.
अन्ना आंदोलन के शिल्पकार अरविंद केजरीवाल
जन लोकपाल को लेकर समाजसेवी अन्ना आंदोलन अपने समर्थकों के साथ 5 अगस्त 2011 को दिल्ली के जंतर-मंतर में आमरण अनशन पर बैठ गए. जिसमें अरविंद केजरीवाल, देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी, सुप्रीम कोर्ट के फेमस वकील प्रशांत भूषण भी शामिल हुए. अन्ना आंदोलन को जन आंदोलन में तब्दिल करने में अरविंद केजरीवाल का हाथ रहा. हर मोर्चे पर अन्ना के साथ दिखने वाले केजरीवाल को आंदोलन का शिल्पकार भी माना जाता है. आंदोलन के दौरान केजरीवाल मीडिया के फोकस में रहे. उन्होंने आक्रोशित राष्ट्र के गुस्से को सरकार के दरवाजे तक पहुंचाया. जब 9 अगस्त 2011 को अन्ना हजारे ने अपना अनशन समाप्त किया, तो युवाओं की भीड़ ने काली मूंछ वाले छोटे कद के व्यक्ति को घेर लिया और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे. वह आदमी कोई और नहीं बल्कि अरविंद केजरीवाल थे.
अन्ना आंदोलन के रास्ते केजरीवाल ने राजनीति में की एंट्री
2011 में अन्ना आंदोलन ने देश को आंदोलित कर दिया था. उसका लाभ अरविंद केजरीवाल को मिला. अन्ना ने 9 अगस्त को अपना अनशन समाप्त किया, लेकिन उसी दिन से केजरीवाल का नया जन्म हुआ. उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागी और सियासी राह पर चलने का फैसला लिया. उन्होंने आंदोलन का चोला उतारा और राजनीति के अखाड़े में उतर गए. हालांकि अन्ना हजारे केजरीवाल के इस फैसले से दुखी हुए और अपनी राह अलग कर ली. इधर केजरीवाल ने अपने सपने को साकार करने के लिए 2 अक्टूबर 2012 को आम आदमी पार्टी का गठन किया.
निर्भया केस से अरविंद केजरीवाल को मिली संजीवनी
16 दिसंबर 2012 का दिन शायद ही कोई भूल पाएगा. जब 23 साल की लड़की के साथ चलती बस पर सामूहिक दुष्कर्म किया गया था. हैवानों ने उस घटना को जिस तरह से अंजाम दिया था, उसे यादकर आज भी रूह कांप उठती है. बहरहाल, निर्भया कांड से पूरा देश गुस्से में था. देश के गुस्से को अरविंद केजरीवाल ने हवा दी. अन्ना आंदोलन समाप्त होने के बाद केजरीवाल को निर्भया का मुद्दा मिल गया, जो उनके लिए संजीवनी का काम किया. उन्होंने अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में जोरदार विरोध प्रदर्शन किया और लोगों को यह बताने में सफल रहे कि निर्भया कांड के लिए दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार जिम्मेदार है. उन्होंने विकल्प के रूप में खुद को पेश किया. इस घटना का जिक्र देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक और मीडिया आलोचक दयाशंकर मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘राहुल गांधी – सांप्रदायिकता, दुष्प्रचार, तानाशाही से एतिहासिक संघर्ष’ में की है. उन्होंने लिखा, “अरविंद केजरीवाल टीवी चैनलों पर लगातार भ्रष्टाचार पर मुखर थे. विकल्प के रूप में स्वंय को आक्रामक रूप से पेश कर रहे थे. लोकपाल की मांगें पूरी होने के बाद अन्ना आंदोलन समाप्त हो गया. इसके बाद केजरीवाल को एक ऐसा मुद्दा मिला, जिसने उनको नई संजीवनी दे दी. यह जानते हुए भी कि दिल्ली पुलिस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कोई नियंत्रण नहीं है, अरविंद केजरीवाल और उनके संगठन ने दिल्ली में आक्रामक विरोध प्रदर्शनों और टेलीविजन पर मीडिया कवरेज की मदद से ऐसा वातावरण निर्मित किया, जिससे सीधे तौर पर संदेश गया कि निर्भया केस के लिए शीला दीक्षित जिम्मेदार हैं. शीला दीक्षित बार-बार यह कहती रहीं, लेकिन उनके बयानों को कहीं महत्व नहीं दिया गया. यह विडंबना है कि निर्भया मुद्दे का राजनीतिकरण करने के बाद अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं.”
कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन और उसी की गोद में जा बैठे केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे के साथ जब जन लोकपाल को लेकर आंदोलन की शुरुआत की थी, उस समय केंद्र में कांग्रेस की अगुआई में यूपीए की सरकार थी. केजरीवाल ने केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ पूरा माहौल बनाया और दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए. अन्ना आंदोलन और निर्भया केस को लेकर केजरीवाल ने ऐसा माहौल तैयार किया कि 2013 की दिल्ली चुनाव में 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे. लेकिन अपने बच्चों की कसम (“मैं अपने बच्चों की कसम खाता हूं कि न भाजपा के साथ गठबंधन करेंगे और न ही कांग्रेस से हाथ मिलाएंगे.”) खाने वाले केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस की गोद में जा बैठे. हालांकि 49 दिनों में ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया. लंबे इंतजार के बाद 2015 में जब फिर से चुनाव हुए तो केजरीवाल ने विस्फोटक जीत दर्ज की. उन्होंने 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में अकेले 67 सीटों पर कब्जा कर लिया. कांग्रेस का आम आदमी पार्टी ने पूरी तरह से सफाया कर दिया. उस चुनाव के बाद अबतक कांग्रेस दिल्ली में वापसी नहीं कर पाई है.