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‘रेवड़ियों’ पर सिमटी दिल्ली में चुनावी चाल, पढ़ें राज कुमार सिंह का खास लेख

Delhi Elections : पानी, बिजली, महिलाओं की मुफ्त बस यात्रा तथा बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य से अपनी अलग पहचान बनानेवाली आप ने अभी तक लागू न हो पायी महिला सम्मान योजना की राशि 1,000 रुपये से बढ़ा कर 2,100 करने का ऐलान किया, तो कांग्रेस और भाजपा ने 2,500 रुपये का वायदा कर दिया.

Delhi Elections : मतदाताओं का मन तो आठ फरवरी को पता चलेगा, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव पूरी तरह मुफ्त रेवड़ियों के वायदों पर लड़ा जा रहा है. दस साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज ‘आप’ इस बार भी मुफ्त रेवड़ियों के सहारे मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है, तो रेवड़ी-राजनीति को अर्थव्यवस्था के लिए घातक बतानेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा भी रेवड़ियां बांटने की स्पर्धा में किसी से पीछे नहीं रहना चाहती. कभी लगातार 15 साल दिल्ली में सत्तारूढ़ रही, पर पिछले दो विधानसभा चुनावों में खाता तक खोलने में नाकाम कांग्रेस की भी सारी उम्मीदें मुफ्त रेवड़ियों के वायदों पर टिकी हैं.

चुनाव घोषणापत्रों के नये नामकरण के इस दौर में भाजपा दिल्ली चुनाव के लिए अभी तक तीन हिस्सों में अपना ‘संकल्प पत्र’ जारी कर चुकी है. पानी, बिजली, महिलाओं की मुफ्त बस यात्रा तथा बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य से अपनी अलग पहचान बनानेवाली आप ने अभी तक लागू न हो पायी महिला सम्मान योजना की राशि 1,000 रुपये से बढ़ा कर 2,100 करने का ऐलान किया, तो कांग्रेस और भाजपा ने 2,500 रुपये का वायदा कर दिया. ‘आप’ ने पुजारियों और ग्रंथियों के वेतन का ऐलान किया, तो कांग्रेस ने दिल्ली में बड़ा वोट बैंक बन चुके पूर्वांचलियों के लिए विकास बोर्ड बनाने का वायदा कर दिया है.

कांग्रेस युवाओं को एक साल की इंटर्नशिप और साढ़े आठ हजार रुपये मासिक देने का वायदा कर रही है, तो भाजपा ने केजी से पीजी तक मुफ्त शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठनेवाले छात्रों को 15 हजार रुपये देने की बात कही है. कांग्रेस की तरह भाजपा भी 500 रुपये में गैस सिलेंडर तो देगी ही, होली-दिवाली पर मुफ्त सिलेंडर भी दिया जायेगा. मुफ्त रेवड़ियों की यह फेहरिस्त लंबी है, पर विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था में भी ऐसी विडंबना पर शर्म किसी के चेहरे पर नजर नहीं आती.


पांच साल तक सत्ता में रही भाजपा और 15 साल तक सत्ता में रही कांग्रेस लंबे समय से विपक्ष में होने के तर्क के सहारे अपनी वायदों की राजनीति का बचाव करती हैं, तो 10 साल से सत्तारूढ़ आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने भी यमुना सफाई जैसे अधूरे वायदों के बचाव में पहले ढाई साल ‘कोरोना’ और फिर ‘जेल का खेल’ का तर्क देते हुए 15 गारंटियां बांट दी हैं. मुफ्त रेवड़ियों का यह चुनावी खेल तब परवान चढ़ रहा है, जब प्रधानमंत्री के अलावा भारतीय रिजर्व बैंक और नीति आयोग भी मुफ्त रेवड़ियों की राजनीति के आर्थिक खतरों पर चिंता जता चुके हैं.

रेवड़ी राजनीति के चुनावी असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिन-रात केजरीवाल को कोसने वाली भाजपा को कहना पड़ रहा है कि अगर वह सत्ता में आयी, तो भी आप सरकार की जन कल्याण योजनाएं जारी रहेंगी, पर यह बताने की जहमत कोई दल नहीं उठा रहा कि जन कल्याण के नाम पर बांटी जा रही रेवड़ियों पर कितना खर्च आयेगा और वह कहां से जुटाया जायेगा? सत्ता के तीनों दावेदार खुद अपनी पीठ भी थपथपा रहे हैं.

संकल्प पत्र का पहला भाग जारी करते हुए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दावा किया कि 500 में से 499 चुनावी वायदे पूरे करने के साथ ही उनकी पार्टी का रिकॉर्ड सबसे बेहतर है. कांग्रेस और आप लोकसभा चुनाव से लेकर तमाम विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में भाजपा के अधूरे चुनावी वायदे गिना रही हैं. भाजपा भी पंजाब में आप तथा हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस के चुनावी वायदों को अधूरा बता रही है. इन आरोप-प्रत्यारोपों का सच जो भी हो, इतना तय है कि भारत की राजधानी में इस बार भी चुनाव मुफ्त रेवड़ियों के वायदों पर ही लड़ा जा रहा है. महंगाई पर अंकुश और रोजगार बढ़ाने का विजन किसी राजनीतिक दल ने पेश नहीं किया है. ऐसे में, दिल्ली के मतदाताओं को मुफ्त रेवड़ियों के वायदों के आधार पर ही अपनी पसंद का राजनीतिक दल और उम्मीदवार चुनना होगा.


हाल ही में आयी भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि खासकर आधी आबादी के वोट बटोरने के लिए की घोषित की जा रही मुफ्त योजनाएं राज्यों की अर्थव्यवस्था के लिए चुनौतियां बन रही हैं. दिल्ली में 1,000 रुपये मासिक महिला सम्मान योजना पर ही बजट का तीन प्रतिशत खर्च होने का अनुमान था. अगर उसे बढ़ा कर 2,100 या 2,500 रुपये किया गया, तो वह और बढ़ जायेगा. देश के आठ राज्यों में ही महिलाओं को मुफ्त नकदी बांटने वाली योजनाओं का खर्च डेढ़ लाख करोड़ रुपये के पार चला गया है.

आधी आबादी को बिना काम नकदी, चुनाव जीतकर सत्ता पाने का कारगर फॉर्मूला बन रहा है. आनेवाले समय में यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही. ऐसे में दीर्घकालीन सर्वांगीण विकास की सोच और योजनायें हमारे नीति-नियंताओं के एजेंडा से गायब ही होती जायेंगी. देश की राजधानी दिल्ली की यह चुनावी तस्वीर मुफ्त रेवड़ियों की चुनावी राजनीति से मुक्ति की उम्मीद तो हरगिज नहीं जगाती. इसलिए राज्यों पर बढ़ते कर्ज का बोझ कम होने की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. यह भी याद रखना चाहिए कि राज्य पर कर्ज का बोझ अंतत: नागरिकों पर ही कर्ज का बोझ है, क्योंकि राजनेता तो सत्ता-सुख भोग कर आते-जाते रहेंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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