नये साल में नया दरअसल क्या है! एक अंक, जो बताता है कि काल प्रवाह में हम कुछ और आगे बह आये हैं. जीवन का प्रारंभिक और सबसे जीवंत तत्व भाषा ही है. विश्व की सभी संस्कृतियों में नववर्ष के लिए बदलाव सूचक पद मिलते हैं. चाहे ऋतु चक्र से प्रेरित हो या गति, वेग की सामान्य शब्दावली से. इस बदलाव में घुमाव या मोड़ महत्वपूर्ण है. समय या वर्ष सूचक ऐसे ही दो शब्द हैं ‘आवर्त’ या ‘परिवर्त’, जिनका मूल भाव गति, घुमाव या चक्रमण है.
भारत-यूरोपीय भाषाओं में घुमाना, दोहरा करना, लपेटना जैसे आशय प्रकट करने वाली एक क्रिया है ‘वर’. इससे मिलती-जुलती संस्कृत क्रिया है ‘वृ’, जिसमें ‘व’ और ‘र’ साफ नजर आ रहे हैं, जिसका अर्थ है घेरना, लपेटना, ढकना, छुपाना और गुप्त रखना. इससे बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं, जो प्राचीन भारोपीय क्रिया ‘वर्’ में हैं. गोल, चक्राकार के लिए हिंदी-संस्कृत का ‘वृत्त’ शब्द भी इसी मूल से बना है. गोलाई दरअसल घुमाने, लपेटने की क्रिया का ही विस्तार है. वृत्त, वृत्ताकार जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं.
संस्कृत की ‘ऋत्’ क्रियापद से भी इसकी रिश्तेदारी है, जिससे ‘ऋतु’ शब्द बना है. गोलाई और घूमने का रिश्ता ऋतु से स्पष्ट है क्योंकि सभी ऋतुएं बारह माह के अंतराल पर खुद को दोहराती हैं अर्थात उनका पथ वृत्ताकार होता है. दोहराने की यह क्रिया ही आवृत्ति है, जिसका अर्थ मुड़ना, लौटना, पलटना, प्रत्यावर्तन, चक्करखाना आदि है. ‘बरताव’ के मूल में संस्कृत ‘वर्तन’ है, जिसमें घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार आदि आशय है. कोई व्यवस्था तभी बनती है, जब उसकी कोई प्रणाली हो.
इसे रीति कहते हैं, जो ऋत् धातु से बनती है. ऋत् में भी क्रम-गति निहित है. इसका बदला हुआ रूप रुत है, जो ऋतु का फारसी शब्द है. ‘रुत बदलना’ जैसे मुहावरे में भी होता है, जो परिवर्तन को ही इंगित करता है. ऋ से ही बना है ऋत्, जिसके मायने हुए पावन प्रथा या उचित प्रकार से. ऋतुएं अपने मूल चक्र से कभी भटकती नहीं. एक वृत्त (वृत्त में भी ‘व’ को लोप करें, तो ऋत ही बचता है) है, जो ऋतुचक्र कहलाता है. चक्र की कल्पना के लिए प्राचीन मनुष्य के पास गोलाई, आवृत्ति से जुड़े अनेक-अनेक अनुभव थे. जन्म चक्र से लेकर ऋतुचक्र तक.
वर्तन के मूल में वैदिक ‘वृत’ है. इसमें भी मूलतः घूमना, फिरना, घेरा, गोल, टिके रहना, होना, दशा या परिस्थिति आदि भाव हैं. ‘वृत’ से बने ‘वृत्त’ में घेरा या गोलाई स्पष्ट है. आचरण, स्वभाव के संदर्भ में ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग भी हम करते हैं. आचरण दरअसल क्या है? इसमें ‘चरण’ है, जो चलते हैं. चरण, जो करते हैं, वही चलन है अर्थात ‘चाल-चलन’ ही आचरण है. ‘वर्तन’ में निहित घूमना, फिरना, जीने का ढंग या व्यवहार संबंधी जो आशय हैं, वे ‘वृत’ में निहित घूमने-फिरने के भाव से जुड़े हैं.
‘वृत्ति’ का एक अर्थ जीविका भी है और दूसरा अर्थ आचरण भी. वर्तन में गति के साथ-साथ स्थिरता या ठहराव भी है. घुमाव, वृत्त गति से वर्तन में भी गति का आशय व्यापक रूप लेता है और इसमें चाल-ढाल, बोल-चाल, हाव-भाव का समावेश होता है. भारोपीय भाषा परिवार में ‘पर’ जैसी क्रियाएं उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होती हैं. इसमें चारों ओर, आस-पास, इर्द-गिर्द, घेरा जैसे भाव हैं. संस्कृत का ‘परि’ उपसर्ग इसी का विकास है. दर्जनों शब्द हम रोज इस्तेमाल करते हैं, जैसे परिवहन, परिस्थिति, परिधान आदि. ‘वर्त’ के साथ भी जब परि उपसर्ग जुड़ता है, तो बनता है परिवर्त. इसका आशय है घूमना, चक्कर लगाना, अदला-बदली, लेन-देन आदि.
घूर्णन या चक्रगति वाले आशय का विस्तार ही किसी खगोलीय ग्रह का अपनी धुरी पर चक्कर लगाना भी है. सूर्य के चारों ओर एक चक्र पूरा करने में पृथ्वी को जितना समय लगता है, उसे एक वर्ष कहा जाता है. यह चक्र ही परिवृत्त है अर्थात किसी केंद्र के इर्द-गिर्द बनाया गया घेरा. यही ‘परिवर्त’ है. ‘वर्त’ में निहित ‘ऋत्’ को पहचानना चाहिए. ऋतु यानी जो लौट कर आये. इसीलिए तीनों ऋतुओं की आवृत्ति को ऋतुचक्र कहते हैं.
‘परिवर्त’ में ऊपर जिस लेन-देन की बात कही गयी है, वह भी दरअसल लौटाना ही है. हम किसी चीज को तब प्राप्त करते हैं, जब उसके बदले में कुछ देते हैं. परिवर्त में सम्मान, पुरस्कार का भाव भी है. मनुष्य समाज के हित में कुछ विशिष्ट करता है और समाज उसे पुरस्कृत करता है. ऋतुओं में निहित भावार्थ भी लौटने-लौटाने का है. गौर करें, झूला हर बार प्रस्थान बिंदु पर लौट कर आता है.
ऋतुएं भी एक वृत्त में घूम कर फिर लौट आती हैं. ग्रीष्म में भाप बनी बूंदों को वर्षाकाल में धरती पर लौटना होता है. धरती की कोख में यही बूंदें जीवन बन कर प्रवेश करती हैं और दाने बनकर किसान के अन्नागार में लौट आती हैं. यही ‘परिवर्त’ है यानी काल, समय, वर्ष है. काल का परिवर्तन नववर्ष है. ‘परिवर्त’ में परिवर्तन को पहचानना है. नये साल में नया क्या है! जाहिर है, परिवर्तन ही.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)