भारत एक साथ अनेक मोर्चों पर युद्धरत है. अभी चीन के साथ तवांग में हुई मुठभेड़ ने भारतीय सैनिकों के बढ़े हुए मनोबल और चीनी अहंकार के टूटने का परिचय दिया. पूरे देश ने इसका अभिनंदन किया, लेकिन क्या इसमें किसी विपक्षी दल का कोई स्वर सुनाई दिया? सेक्युलर और कम्युनिस्ट दल, जो फिलीस्तीन, ईरान, सऊदी अरब आदि के मामलों पर अक्सर बोलते रहते हैं, भारतीय सेना के अप्रतिम शौर्य और पराक्रम पर चुप ही नहीं रहे, बल्कि सत्तारूढ़ दल को घेरने के प्रयास करते रहे.
जब संसद में कांग्रेस को चीन सरकार से सवा करोड़ रुपये (राजीव गांधी फाउंडेशन) को मिलने का प्रश्न उठा, तो कांग्रेस ने सदन ही नहीं चलने दिया. तमाम कथित सेक्युलर सरकारों के मुखिया एक बार भी सैनिकों का मनोबल बढ़ाने वाले शब्द नहीं कहते. उनका देश वहीं तक सीमित होता है, जहां तक उनके वोट होते हैं. अगर ऐसा नहीं है, तो भारतीय सेना के जवानों के शौर्य के प्रति उनका यह उदासीन रवैया देखने को नहीं मिलता. विपक्ष के साथ मुश्किल यह है कि वह हर काम को वोट के नजरिये से देखता है.
चीन से 1962 से ही हमारा रक्तरंजित वैमनस्य चला आ रहा है. दोनों देशों के हजारों वर्ष पुराने संबंध हैं. महाभारत में मानसरोवर और चिन देश का उल्लेख मिलता है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी चीन का उल्लेख है. एक सहस्त्राब्दी पूर्व भारत से दो सौ से अधिक बौद्ध विद्वान चीन गये और वहां बौद्ध मत का प्रसार किया. कुमारजीव को तंग वंश के राजा ने राजगुरु की उपाधि दी थी. आज भी चीन में उनके दस से अधिक मंदिर हैं.
कुंगफू से चीन को भारत के कांची क्षेत्र से गये बोधिधर्म ने परिचित कराया. वहां उनका नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है. फिर ऐसा क्या हुआ कि वह अपने सबसे निकटतम मित्र और गुरु के विरुद्ध हुआ? इसका कारण चीन की कम्युनिस्ट विचारधारा में ढूंढा जा सकता है. जबसे चीन में इस विचारधारा का उद्भव हुआ, भारत के प्रति शत्रुता का विस्तार हुआ. चीन के कम्युनिस्ट विस्तारवादी राष्ट्रीयता को मानते हैं.
उनकी जिद है कि जहां-जहां चीन ने अतीत में अपने क्षेत्र घोषित किये, उन्हें वापस लेना है. भारतीय भूभाग में अक्साई चिन (अक्षय चिह्न) से लेकर अरुणाचल तक वह अनेक भारतीय क्षेत्र चीन के मानता है. दक्षिण चीन सागर में भी उसने जापान से लेकर अनेक सागर तटीय देशों के साथ शत्रुता बांध रखी है. भारत के नाथुला एवं तवांग क्षेत्रों के निकट अनेक नये कृत्रिम गांव बनाकर चीनी सैनिकों को बसा दिया है. श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान को ऋण देकर तथा निवेश कर भारत के विरुद्ध घेराबंदी उसका कूटनीतिक आक्रमण ही है.
शी जिनपिंग 2013 में पहली बार चीन के राष्ट्रपति बने और उन्होंने अपने पूर्ववर्ती च्यांग छेमिन की नीतियां उलटते हुए हिंसक आक्रामकता को अपनाया. भारत की चीन के साथ कुल सीमा 3488 किलोमीटर है. चीन इसे केवल दो हजार किलोमीटर मानता है. घुसपैठ की सर्वाधिक घटनाएं लद्दाख और अरुणाचल में हुईं क्योंकि ये क्षेत्र उसके लिए अधिक सामरिक महत्व के हैं. साल 1967 में चूमर घाटी में भारत ने चीन को जबरदस्त चोट पहुंचायी थी और उसके बाद हुए समझौते के चलते गलवान की घटना से पहले 53 वर्षों में दोनों देशों के सैनिकों के बीच एक भी गोली नहीं चली.
वर्ष 1993 में हुए समझौते में उल्लेख है कि सीमा पर कोई हथियार जमा नहीं होंगे, सैनिकों की बड़ी संख्या में तैनाती नहीं होगी, यदि कोई सैन्य अभियान करना है, तो एक-दूसरे को सूचना दी जायेगी. कारगिल युद्ध के समय चीन ने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया था. शी के आने के बाद चीन ने सभी पूर्व समझौते तोड़े. हर वैश्विक मंच पर भारत का तीव्र विरोध शी के अहंकार और विस्तारवाद का परिचयात्मक मुख्य बिंदु बना है.
माना जा रहा है कि भारतीय सीमा क्षेत्र में चीनी सेना मुठभेड़ करती रहेगी. आवश्यक है कि सीमा वाले प्रदेश सीमावर्ती क्षेत्रों से पलायन रोकें और अच्छी इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाएं दें, जो आज नहीं हो रहा है. शत्रुता के बावजूद चीन से आयात में कमी नहीं आयी है. इस परिस्थिति के दो संदेश हैं- एक, भारत को चीन से बड़ी आर्थिक शक्ति होना होगा और दूसरा, हमारी सैन्य शक्ति अधिक बलशाली बनानी होगी. नरेंद्र मोदी सरकार ने सैन्य शक्ति के अनेक महत्वपूर्ण उपाय किये हैं.
पर देश की एकजुटता और रक्षा के संबंध में सबका एक साथ आना आवश्यक होता है. साल 1962 के युद्ध में कम्युनिस्टों ने चीन का साथ दिया था. इस पर कांग्रेस सरकार ने श्वेत पत्र जारी किया था. सुरक्षा पर बंटा हुआ राजनीतिक नेतृत्व शत्रु की सबसे बड़ी सहायता करता है. यह कहना कि चीन अपनी सेना पर भारत से पांच गुना ज्यादा खर्च करता है या चीन की सेना भारत से दो गुनी बड़ी एवं उनकी अर्थव्यवस्था वैश्विक महाशक्ति बनाने की ओर बढ़ रही है, पराजयवादी सोच है. हम भी आगे बढ़ रहे हैं. आज चीन भारत से बड़े युद्ध से डरता है, क्योंकि उसका आर्थिक ढांचा चरमरा जायेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)