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नेपाल चुनाव से नया सवेरा

यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस बार के चुनाव दबावों के बावजूद बेहतर हुए हैं, बेहतर नतीजे लेकर आये हैं और बेहतर भविष्य की ओर इशारा करते हैं.

चुनाव नतीजों की अंतिम तस्वीर साफ सामने आये बगैर यदि नेपाल में नयी सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गयी है, तो इसकी वजह है कि अब नतीजों की दिशा नहीं बदल सकती. यहां 20 नवंबर को चुनाव हुए थे और काफी कुछ दांव पर था, सबसे अधिक तो हर पार्टी और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही दांव पर थी. इधर पिछले कुछ वर्षों में नेपाल की राजनीति में जितना कुछ हुआ था, उसने यह शक भी पैदा कर दिया था कि क्या नेपाल बगैर राजशाही चल भी पायेगा,

क्या वहां की पार्टियां अपने समाज का मिजाज, वहां की क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर देश बनाने का विचार रखती भी हैं या हवाई नारों और घटिया आचरण से इस गरीब मुल्क के लोगों को सब्जबाग दिखा कर कुछेक लोगों के लिए लूट और सत्ता सुख भोगने का उपकरण भर हैं? हर पार्टी की प्रतिष्ठा गिरी थी. इसमें वे नेता और पार्टी लोगों की नजर में ज्यादा ही गिरे थे, जो किसी भी तरह भारत की तरफ झुके हुए थे.

दो सौ पचहत्तर (275) सीटों वाले नेपाली संसद की 165 सीटों का नतीजा तो हर सीट पर सर्वाधिक मत वाले उम्मीदवार की जीत से तय होना है, जबकि बाकी 110 सीटें पार्टियों को मिले मत के अनुपात से बंटनी हैं. आखिरी हिसाब आने तक जितने नतीजे आये थे, उनसे साफ हो गया था कि नेपाली कांग्रेस की अगुआई वाला पांच दलों का गठबंधन बहुमत पा चुका है. शुरू में लोगों को एक खतरा लग रहा था कि सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के चलते कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल- यूएमएल आखिर में आगे आ सकती है.

ओली का रुख भारत के प्रति अनुदार है, इसलिए भी इस नतीजे की कल्पना से भारत के जानकार डरते थे. उन्होंने कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख जैसे इलाके नेपाल के अधीन लाने की घोषणा के साथ चुनाव प्रचार शुरू भी किया था. उनको चीन का साथ ज्यादा सुहाता है जिसकी बड़ी वजह शायद भारत को चिढ़ाना रहा है.

भारत की मुश्किल यह रही है कि वह अभी हाल तक नेपाल राजशाही को ज्यादा करीबी पाता था. फिर वह नेपाली कांग्रेस को अपना मानता था, जिसकी कीमत भी नेपाली कांग्रेस को चुकानी पड़ी थी. वैसे उनके अपने झगड़े, भ्रष्टाचार और नेताओं का आचरण उनकी प्रतिष्ठा गिराने के लिए पर्याप्त थे. यही हाल बाद के समय में मित्र बने माओवादी दल का भी था. पर सबसे बुरा हाल मधेशी दलों का था, जिनका आचरण भी हल्का रहा और जिन्होंने आपसी लड़ाई भी खूब की.

यही कारण है कि 51 प्रतिशत जनसंख्या के बावजूद मधेशी लोग एक बार फिर राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुंच गये हैं, पर मधेश को एक जैसा प्रदेश और वहां के पूरे समाज को भारतीय समाज का एक विस्तार भर मानना भी बड़ी गलती है. इस बार भी ऐसा हुआ है कि दो बड़ी पार्टियों के विजयी गठबंधन का हिस्सा होने के बावजूद मधेश की छोटी पार्टियों ने छिटपुट सीटें ही जीती हैं.

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में यह संख्या भी महत्वपूर्ण हो सकती है, पर प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने इस चुनाव में और उससे पहले गठबंधन बनाने में जो समझदारी दिखाई है, उससे उम्मीद बंधती है कि आगे की स्थितियों को भी वे और यह गठबंधन बेहतर ढंग से संभालेगा.

असल में यह समझ ही इस बार के नेपाल चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है कि ऊंचे-ऊंचे आदर्श और वैचारिक नारों की जगह गठबंधन ही नेपाली समाज और राजनीति के लिए सबसे उपयुक्त व्यवस्था है. जब समाज इतनी विविधता से भरा हो और उसके कार्य-व्यापार में परस्पर सहयोग और मेल-मिलाप ही सबसे प्रबल गुण हैं, तो गठबंधन की राजनीति ही उसके सबसे उपयुक्त है. कभी नेपाली कांग्रेस की पहुंच समाज के हर वर्ग और क्षेत्र तक थी, पर उसके कमजोर पड़ने के साथ बिखराव बढ़ा.

अब यदि उसकी पहल पर पांच दलों का गठबंधन बना और एकजुट चुनाव लड़ा गया, तो यह नयी शुरुआत है. इस गठबंधन में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, पर प्रतिपक्षी गठबंधन की तरह यह एकतरफा नहीं थी. इसकी आधी सीटें साझीदारों के पास रहीं. दूसरे, इस बार नेपाली कांग्रेस ने नया नेतृत्व विकसित करने की कोशिश की है. तीसरे, देउबा के साथ माओवादी नेता प्रचंड और एमाले नेता माधव नेपाल का अच्छा मेल है. ऐसा मेल ओली के नेतृत्व वाले गठबंधन में नहीं दिखा.

यदि चुनाव होंगे और लोकतंत्र अपनी रंगत में आयेगा, तो उसमें दूसरी चीजें भी निकलेंगी हीं. इस चुनाव में गठबंधन राजनीति का उभार, नेतृत्व का तालमेल, नये नेतृत्व के उभरने और मधेशी पार्टियों एवं मधेश की बिखराव वाली राजनीति का सिमटना बड़ा बदलाव है, तो गीत और संगीत की दुनिया में रचे-बसे रवि लामछिने की नेतृत्व वाली स्वतंत्र पार्टी के उदय ने सबको उनकी राजनीति को गंभीरता से लेने को मजबूर किया.

काठमांडू समेत शहरी सीटों पर उनकी पार्टी के प्रदर्शन ने सभी स्थापित दलों के नेताओं को चिंतित किया. चुनाव मैदान में इस बार राजतंत्र की पक्षधर पार्टियां और नेता भी थे, पर उनका प्रदर्शन पहले से खराब हुआ है. इसलिए यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस बार के चुनाव दबावों के बावजूद बेहतर हुए हैं, बेहतर नतीजे लेकर आये हैं और बेहतर भविष्य की ओर इशारा करते हैं. वर्ष 1990 के बाद शुरू हुए लोकतांत्रिक प्रयोग में कभी इतनी उम्मीद भरी चीजें नहीं दिखी थीं.

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