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नैतिक पुलिस भंग करना ईरान का सही कदम

आज के ईरान की यह खूबी भी है कि वहां के युवा प्रतिभाशाली हैं, कार्यबल और शिक्षा में महिलाओं की बड़ी संख्या है तथा वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं. अब जब वे समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं. ईरान की घटनाओं का मुस्लिम दुनिया पर भी असर होगा.

ईरान में लगभग तीन महीने से चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बाद सरकार की ओर से कहा गया है कि नैतिक पुलिस, जिसे ‘गश्ते-इरशाद’ के नाम से जाना जाता है, को भंग कर दिया गया है. ईरानी न्यायपालिका से संबंधित वरिष्ठ अधिकारी मोहम्मद जाफर मोंताजेरी ने यह घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि इस नैतिक पुलिस बल का कोई संबंध न्यायपालिका से नहीं है. यह जगजाहिर तथ्य है कि दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है तथा सोशल मीडिया और तकनीक की वजह से हर जगह वैश्विक मूल्यों एवं आकांक्षाओं का प्रवेश हो रहा है. आज के युग में युवा वर्ग को नैतिकता से कहीं अधिक स्वतंत्रता की चाहत है. ऐसे में जोर-जबरदस्ती और पाबंदी कोई विकल्प नहीं हो सकते.

असल में, जब भी किसी चीज पर पाबंदी लगायी जाती है, तो उस के पक्ष में लामबंदी अधिक होने लगती है. अगर ईरान के शासन को किसी तरह का धार्मिक आचार-व्यवहार लागू करना है, तो उसे पहले बड़े पैमाने पर अपने प्रस्ताव के पक्ष में जनमत जुटाना चाहिए, लोगों को भरोसे में लेने का प्रयास करना चाहिए. जनता को उन आचरणों की अच्छाइयां बताकर मानसिक रूप से तैयार कराने की कोशिश होनी चाहिए. शिक्षित और जागरूक करने के लिए जो पहलें होनी चाहिए थीं, वह तो हुईं नहीं और सत्ता ने पुलिस का इस्तेमाल कर और दमन का डर दिखाकर सीधे जनता पर अपनी बातें थोप दीं.

साल 2005 में महमूद अहमदीनिजाद ईरान के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे. वे कट्टरपंथी विचारों के नेता हैं. उन्हीं के शासनकाल में इस नैतिक पुलिस का गठन हुआ था, जो पहनावे पर निगरानी रखती थी. अगर हिजाब या अन्य तरह के व्यवहारों के महत्व को मूल्यों के साथ जोड़कर लोगों को समझाया जाता तथा दमन और अत्याचार का सहारा नहीं लिया जाता, तो विरोध इस तरह तीव्र नहीं होता. एक तरफ पश्चिमी दुनिया पूरी तरह खुलेपन की ओर जा रही है, तो दूसरी तरफ अन्य संस्कृतियों के अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक मूल्य हैं. भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के कई मूल्य इस्लामिक देशों के मूल्यों से मेल खाते हैं.

हमारे देश में भी खुलेपन की प्रक्रिया धीरे-धीरे चल रही है. चूंकि यह थोपा नहीं जा रहा है, तो उसके पक्ष या विपक्ष में कोई विरोध नहीं हो रहा है. कहने का अर्थ यह है कि दुनिया में हो रहे बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता है. आप इसे किस हद तक करना चाहते हैं, उस संबंध में आपको युवाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करना पड़ेगा. आप बल प्रयोग से उन्हें अपने हिसाब से संचालित नहीं कर सकते हैं. तो ईरान ने रास्ता अपनाया था, वह गलत था. मुझे लगता है कि अब उन्होंने जो निर्णय लिया है, वह समाज में स्त्रियों की बराबरी और आजादी के लिए बेहतर साबित होगा.

पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक मूल्यों की रक्षा का दायित्व भी समाज पर होता है. ईरान को व्यापक शैक्षणिक अभियान चलाकर अपने आचार-व्यवहार की खूबियों तथा पश्चिमी संस्कृति की खामियों के बार में लोगों को बताना चाहिए. यह बेहतर तरीका हो सकता है. यदि ईरान ने दमन का रास्ता नहीं अपनाया होता, तो बीते दिनों के प्रदर्शनों में इतनी मौतें नहीं होतीं, अस्थिरता नहीं फैलती. खुद ईरानी सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारी कह रहे हैं कि दो से तीन सौ के बीच मौतें हुई हैं. मुझे लगता है कि नैतिक पुलिस बल को भंग करने तथा हिजाब को अनिवार्य बनाने के कानून पर पुनर्विचार करने के सराहनीय निर्णयों के साथ-साथ ईरानी जनता, विशेषकर युवाओं और महिलाओं, में जो रोष है, सरकारी दमन से उन्हें जो पीड़ा हुई है, भावनाएं आहत हुई हैं, उन पर मरहम लगाने की तुरंत जरूरत है. मृतकों के परिजनों तथा घायलों को समुचित मुआवजा भी दिया जाना चाहिए. ईरान की अर्थव्यवस्था को भी इन प्रदर्शनों और सरकारी ज्यादती से बड़ा नुकसान हुआ है. उसकी भी जल्द भरपाई की कोशिशें होनी चाहिए क्योंकि पहले से ही ईरान अनेक परेशानियों का सामना कर रहा है.

ईरान की सरकार चीन की तरह मीडिया और सोशल मीडिया पर पहरेदारी या पाबंदी तो नहीं लगा सकती है, तो उसे अपनी संस्कृति के हिसाब से अच्छे कंटेंट को बढ़ावा देना चाहिए. पश्चिमी सभ्यता में अच्छाई है, तो कमियां भी हैं. उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह सब डंडे के जोर पर नहीं होना चाहिए. युवाओं के विरुद्ध दमन का इस्तेमाल और भी खतरनाक होता है क्योंकि वह उसे चुनौती मान लेता है. ईरान की सरकार को अब यह बात कुछ हद तक समझ आ गयी होगी. ईरान की सरकार को अत्यधिक खुलेपन और पाबंदियों के बीच का रास्ता निकालना होगा, जिसमें उदारता के मूल्य समाहित हों. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि

आज से सात-दस दशक पहले ईरान की आधुनिकता की तुलना यूरोप के देशों से की जाती थी. समूची मुस्लिम दुनिया में ईरान सबसे अधिक आधुनिक था और उसके बाद तुर्की का स्थान आता था. लेकिन एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन होने से एक व्यक्ति पूरे देश की संस्कृति को बदल देता है. यही ईरान में हुआ. डेढ़-दो दशकों से तुर्की भी कट्टरपंथ की राह पर चल पड़ा है. जिस तरह तुर्की में राष्ट्रपति एर्दोगन कट्टरपंथी विचारों और व्यवहारों को बढ़ावा दे रहे हैं, उसी तरह ईरान में महमूद अहमदीनिजाद के सत्ता में आने के बाद बहुत तरह की चरमपंथी पाबंदियां ईरान में लागू हुईं. उनसे पहले अयातुल्ला खुमैनी के समय ऐसा हुआ था.

इस प्रकार ईरान आधुनिक देश से रूढ़िवादी देश में बदलता चला गया. फिर भी वहां के धार्मिक और राजनीतिक नेताओं में उदारवादियों की अच्छी-खासी तादाद है तथा वे सरकार में निर्वाचित भी होते रहते हैं. आज के ईरान की यह खूबी भी है कि वहां के युवा प्रतिभाशाली हैं, कार्यबल और शिक्षा में महिलाओं की बड़ी संख्या है तथा वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं. अब जब वे समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं, तो उन पर डंडा चलाना किसी भी तरह से उचित नहीं माना जा सकता है. खैर, अब जो फैसला हुआ है, वह स्वागतयोग्य है. ईरान की घटनाओं का मुस्लिम दुनिया पर भी असर होगा. दुनियाभर के मुस्लिम बहुल देशों को उदाहरणों से सीखना चाहिए. दुबई ने पहले से ही उदार मूल्यों को अपनाया है. अल्जीरिया और मोरक्को में बेहतर स्थिति है. सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने समय की आहट को देखते हुए प्रगतिशील कदम उठाना शुरू कर दिया है. धार्मिक मूल्यों पर चलना और आडंबर में खो जाना अलग-अलग चीजें हैं, इसे समझा जाना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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