-सदानंद सिंह यादव-
Nandalal Bose Jayanti 2022 : भारतीय चित्रकला को शिखर तक ले जाने वाले कूची के जादूगर आचार्य नंदलाल बोस भारत के गौरवशाली इतिहास के प्राणवंत अध्याय हैं. नंदलाल बोस- पुरोधा कला सर्जक हैं, जिनकी कला दृष्टि में पुरातन के प्रति आदर भाव के साथ नूतनता का आह्वान भी शामिल है. पुरातन कलाकृतियों में पौराणिक आख्यानों व व्यवहारिक प्रसंगों से जुड़े जितने भी हार्दिक मूल्य है, जितनी भी अहोभाव से जुड़ी घटनाएं हैं, आज भी प्रासंगिक है.
कलाकृतियों में छिपे होते हैं क्रांति और परिवर्तन के उत्स. ये सिखाते हैं, सलीके से अनैतिकता से परिष्कार की तहजीब, शोषण से मुक्ति के लिए मुट्ठियां-भींचने की कोशिश और अमानवीयता के विरुद्ध अस्वीकार की आदत. जीवन के विविध पक्षों पर उकेरी हुई उनकी रंगों की संवेदनशील अभिव्यक्ति काल प्रवाह के सेतु पर आज भी पूरी ताजगी के साथ उपस्थित है. कला के लिए जीवन और जीवन के लिए कला उनके संपूर्ण व्यक्तित्व की परिभाषा रही है .पौराणिक आख्यानों से लेकर दैनंदिन क्रियाकलापों, विरासतों के सांस्कृतिक परंपराओं से लेकर प्रकृति के नैसर्गिक छटाओं तक कूची और रंगों का यह आयोजन पूरी कुशलता से आचार्य नंदलाल बोस ने संपादित किया है.
उनकी साधना से उपजे टेक स्वर में रंगों की आभा ने एक भारतीय पहचान को स्थापित किया है. विविध रंगों से अपनी कल्पना को एक सार्थक व सजीव आयाम देने और जीवन के हलचल को बखूबी उपस्थित करने वाले इस सिद्ध साधक चित्रकार का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के एक छोटे से कस्बे हवेली खड़गपुर में 3 दिसंबर 1882 को हुआ था. इनके पिता श्री पूर्ण चंद्र बोस महाराजा दरभंगा के तत्कालीन राज में हवेली खड़गपुर तहसील के व्यवस्थापक थे. उनकी स्नेह वत्सला मां क्षेत्रमणि देवी, जिनकी सहज प्रवृत्ति में ग्राम्य परिवेश का सोंधापन, धार्मिक क्रियाकलापों की पवित्रता रची बसी थी. अपनी चर्चित कलाकृति “सती” के माध्यम से नंदलाल बोस ने यह पूछने का जोखिम उठाया था कि सभ्य समाज में इस बर्बर प्रथा के नाम पर असहाय स्त्रियों की दहन- लीला का औचित्य क्या है? इस चर्चित कृति ने सती प्रथा के विरोध में जनमानस के बीच असहमति की लहर पैदा कर दी थी. नंदलाल बोस ने कला परंपरा को जीवंतता से आगे बढ़ाया.
भारत के कला-वैभव की उन्नत संपन्नता में झांक कर उसके सौंदर्य का उद्घाटन किया. सामाजिक सरोकार से जुड़े जितने दैनंदिन क्रियाकलाप उनको नैतिक स्वीकार की वकालत करते हुए कलाकृतियों के माध्यम से चेतना जगाने का स्तुत्य प्रयास नंदलाल बोस ने किया. यही नहीं राष्ट्रीय हित से जुड़ी चिंताओं को भी उन्होंने अपनी रचनात्मक चित्रकारी का विषय बनाया. गांधी की दांडी यात्रा, सीमांत गांधी, कुरुक्षेत्र जैसी कलाकृतियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. नंदलाल बोस के अनुसार संवेदना के धरातल पर ही वेदना जन्म लेती है .वेदना से प्रेरणा जन्म लेती है.
वेदना जितनी गंभीर होती है प्रेरणा उतनी ही वेगवती होती है. नंदलाल बोस ने स्कूली शिक्षा हवेली खड़गपुर के प्रारंभिक माध्यमिक विद्यालय में पायी थी, किंतु उनके अंदर छटपटाती कला की खोज जो नये रास्तों की तलाश में विकल रहती , स्कूली शिक्षा से परे कुछ और ही ढूंढती रहती थी,इस तलाश में उनकी मुलाकात हवेली खड़गपुर के ही एक कुंभकार से हो गयी. स्कूल जाते, लौटते घंटों बैठकर इस कुंभकार के मिट्टी को शक्ल देने और उसमें रंगों से प्राण फूंकने की प्रक्रिया को मनोयोग से वे देखते रहते. नंदलाल का यह कुंभकार ही प्रथम कला गुरु था, जिसकी प्रेरणा से प्राकृतिक, सुषमाओं और मानवीय भावनाओं को आत्मसात कर यह अप्रतिम चितेरा कागजों ,दीवारों पर सौंदर्य का जीवंत रूप उपस्थित करने में सफल रहा.
आचार्य नंदलाल निर्भीक और प्राणवान शिल्पी थे, उनकी गिनती अवनींद्रनाथ ठाकुर के प्रधान शिष्यों में की जाती है. अवनींद्रनाथ की कला साहित्यिक वातावरण में विकसित हुई थी,जबकि नंदलाल का प्रारंभिक पुरानी संस्कृति और संस्कारों से विजडित समाज में बीता था. परंपरागत और आधुनिक कला प्रवृत्तियों के बीच की खाई को पाटने में नंदलाल पूर्ण सफल हुए थे .वास्तव में जिस संस्कृति से जितना कुछ लिया जा सकता था, उन्होंने ग्रहण करने में संकोच नहीं किया. लंका, जापान, अजंता, चीन, राजपूत आदि की शैलियों को उन्होंने बड़ी बारीकी से अध्ययन किया और केलिग्राफिक तत्वों ने एक अद्भुत आकर्षण उनके आकृतियों में पैदा किया था. चित्रों के रंगों रेखाओं में जीवंतता के पुट की उपस्थिति नंदलाल बोस की दक्षता का परिचायक है. चीन, जापान और भारतीय शैली का मिश्रित प्रयोग उनकी वाश और टेम्परा चित्रांकन कुशलता में इस बात का प्रमाण है कि अपनी परंपरा और विरासत के प्रति उनमें निष्ठा थी.
नंदलाल बोस के कला- संस्कार में समाज के हर तबके से जुड़े रोजी- रोटी के लिए जूझते आदमी की अपनी छोटी- छोटी दुनिया के लिए जगह है .ऐसा इसलिए भी है कि बचपन के दिनों के अनुभव, सृजन की व्याकुलता, हवेली खड़गपुर की धरती की सोंधी सुगंध और मां के दूध की चुमकार के साथ थपकियों की पुलक से धमनियों में उतरती चली आयी ऊर्जा सब कुछ तो अपनी जड़ों से जुड़े रहने का संस्कार बालक नंदलाल में भरता रहा.
अतुल सृजनात्मक , प्रतिभा के धनी नंदलाल ने कला के जिस अंग को स्पर्श किया किया, उसे समृद्ध बनाया .उनका अतृप्त शिल्पी मन विभिन्न माध्यमों से प्रयोग करने के लिए व्याकुल रहता था. उडकट, लिनोकट, एचिंग, भित्ति, चित्र, रंगमंच, सज्जा,उत्सव, अनुष्ठान, आदि में उनका मौलिक योगदान था, साथ ही उनकी अद्भुत प्रतिभा का स्पर्श स्टाइलाजेशन अर्थात किसी एक शैली द्वारा अंकन ,इस संदर्भ में आचार्य नंदलाल ने स्पष्ट नीति अपनाई, उनका मानना था कि कलाकार इससे एकरस हो जाता है .
प्रतिभावान कलाकार की प्रत्येक से नयापन होना चाहिए. यही नूतत्व उसके काम की विशिष्टता होगी और यही उसका प्राण होगा. लेकिन अपनी हो या दूसरों की, स्टाइल की नकल करना दोष है. स्टाइलाइजेशन का पक्षधर कलाकार काम में प्रशंसा के पात्र हो सकते हैं, पर आगे बढ़ने का रास्ता बंद हो जाता है. वे अपने ही अनुकृति स्वयं करते है अर्थात सृजन पिटे-पिटाए रास्तों पर नहीं चलते .आचार्य नंदलाल बोस की प्रतिभा केवल सृजन में ही नहीं बल्कि उन्होंने असंख्य कलाकारों की भी रचना की. छात्र के रूप में जो आजादी नंदलाल ने अपने शिष्यों को दी, वह अन्य कला केन्द या संस्था के लिए कल्पना से बाहर है.
शांतिनिकेतन के सांस्कृतिक वातावरण के स्पर्श से छात्र वर्ग में आजादी का उद्देश्य उन्ही के सहारे पनप सका.आज के संदर्भ में आम जीवन शैली ,हमारी परंपराओं सभी कुछ पश्चिमीकरण की अंधी दौड़ में शामिल है. यहां तक कि भारतीय कला भी अपनी शास्त्रीय पहचान खोती जा रही है. ऐसे में आचार्य नंदलाल बोस की मात्र औपचारिकता न होकर भारतीय आधुनिक कला की आवश्यकता हो जाती है.भारतीय कला के जिस आधुनिक पक्ष को चितेरे कला गुरू आचार्य नंदलाल बोस ने उजागर किया,उसके उसके कारण वे सदा अमर रहेंगे .