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महिलाओं के खिलाफ खत्म हो हिंसा

महिलाओं के खिलाफ हर तरह की हिंसा समाप्त करने के लिए सिर्फ सरकारों की नहीं, आम जन की भी असली भागीदारी चाहिए. यह कैसे हो, इस पर सोचा जाना चाहिए.

हर वर्ष 25 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाया जाता है. इस दिवस को मनाने के पीछे 1960 की एक घटना है. बताया जाता है कि तब डोमिनिकन गणराज्य के शासक राफेल ट्रुजिलो के आदेश पर तीन महिला राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी थी. इन तीनों का अपराध यह था कि वे राफेल जैसे तानाशाह की नीतियों का लगातार विरोध कर रही थीं. इस तिहरे हत्याकांड से तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ता सन्न रह गये थे.

वर्ष 1981 से इस दिवस को इन महिलाओं की स्मृति के रूप में मनाया जाने लगा. फिर 1999 में बाकायदा संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की कि 25 नवंबर को हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाया जायेगा. इस दिवस को 2000 से मनाया जा रहा है. इस वर्ष 25 नवंबर से 10 दिसंबर तक महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाया जा रहा है. एनसीआरबी के 2021 के आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाली तरह-तरह की हिंसा के 4,28,278 मामले दर्ज किये गये थे.

जो 2020 के मुकाबले 56,775 अधिक थे. इनमें सबसे ज्यादा मामले पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा की गयी हिंसा के थे. इसके अतिरिक्त, स्त्री की शालीनता का लाभ उठाना, अपहरण और दुष्कर्म आदि के मामले शामिल थे. ये सारे मामले वे हैं, जिनकी शिकायत थानों में दर्ज होती है. ऐसे न जाने कितने मामले होते हैं, जो प्रकाश में आ ही नहीं पाते. सामाजिक भय, लज्जा की भावना, लोगों द्वारा बहिष्कार के डर से दर्ज नहीं कराये जाते. दर्ज कराने के बाद भी न्याय की धीमी और महंगी प्रक्रिया से कितनों को न्याय मिल पाता है?

महिलाओं के प्रति हिंसा को सिर्फ वे ही अपना अधिकार नहीं मानते, जो आम राय में पढ़े-लिखे और जागरूक नहीं हैं, बल्कि वे भी इस हिंसा में गाहे-बगाहे शामिल हो जाते हैं, जिन्हें समाज का क्रीम कहा जाता है. दशकों पहले की बात है. बड़े पद पर काम करने वाले एक पत्रकार थे. समाज में महिलाओं की स्थिति पर अक्सर अपने क्रांतिकारी विचार प्रकट करते रहते थे. एक बार उनके दोस्त अपनी पत्नी की तरह-तरह से शिकायत कर रहे थे. कह रहे थे कि बात-बात पर लड़ती है. हर वक्त पैसे मांगती है.

मायके जाने की धमकी देती है. पहले तो क्रांतिकारी पत्रकार महोदय सुनते रहे और खूब ठहाके लगाते रहे जैसे मजेदार चुटकुले सुन रहे हों. फिर उन्होंने सुझाव दिया- तुम्हारी पत्नी है कि आफत. अगर तुम्हारे सामने उसकी इतनी बोलने की हिम्मत है, तो फिर सिर पर भी तुमने ही चढ़ाया होगा. दो-चार दिन जैसे ही मुंह खोले, दो हाथ धर देना. फिर भी न माने, तो कह देना कि अपने मायके चली जाए और तब तक न आए जब तक कि मन न भर जाए. अपने आप ठीक हो जायेगी. पिटाई के डर से बड़े-बड़ों के भूत भागते हैं. यानी कि औरत को वश में रखना हो, तो उसे पीटना बहुत जरूरी है.

बहुत सी लोक कथाएं, कहावतें, फिल्में, लोकोक्तियां इस तरह के विचार का बाकायदा समर्थन करती पायी जाती हैं. औरत को पिटाई से ही काबू में रखा जा सकता है, इस तरह की सोच बहुत से पुरुषों की ही नहीं, महिलाओं की भी है. और सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनियाभर में इस विचार के समर्थक मिलते हैं. बनाते रहिए घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून. यहां एक बात और ध्यान देने लायक है कि अक्सर वैसी गरीब, साधनहीन स्त्रियां जो पूरी तरह पति पर निर्भर हैं, या निर्भर नहीं हैं तब भी, इस तरह की हिंसा का शिकार सबसे अधिक वे ही होती हैं.

इनमें से अधिकांश इस तरह की मार-पीट के लिए शराब को जिम्मेदार ठहराती हैं. पर इसी वर्ग की अधिकांश महिलाएं हिंसा का समर्थन भी करती हैं. कुछ वर्ष पहले हुए एक सर्वे में बड़ी संख्या में महिलाओं ने कहा था कि पति द्वारा पिटाई ठीक होती है. यदि स्त्री समय पर खाना न बनाए, बच्चों की देखभाल न करे, सास-ससुर की सेवा न करे, पति की बात न माने, तो पति द्वारा पिटाई सही है.

यह बात केवल घरेलू हिंसा तक ही सीमित नहीं है. घर से बाहर भी बहुत से लोग महिलाओं को आसान शिकार समझते हैं. मार-पीट, छेड़छाड़, हमला बोल देना, दुष्कर्म आदि की घटनाएं तो होती ही रहती हैं. महिलाओं को राजनीतिक हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है. संयुक्त राष्ट्र ने 2008 में एक अभियान शुरू किया था कि 2030 तक महिलाओं के खिलाफ हर तरह की हिंसा रुकनी चाहिए.

पर फिलहाल ऐसा होता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा. बहुत से देश और सरकारें महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली हिंसा के विरोध में एकजुट भी हैं. अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार महिलाओं को हिंसा से बचाने के लिए कानूनों में सुधार, विचार-विमर्श, लोगों में जागरूकता बढ़ाना, सुरक्षित आवास मुहैया कराना, घर-बाहर, कार्यस्थलों आदि पर सुरक्षित वातावरण आदि तैयार करने पर भी एकमत होना जरूरी है.

लेकिन महिलाओं के खिलाफ हर तरह की हिंसा समाप्त करने के लिए सिर्फ सरकारों की नहीं, आम जन की भी असली भागीदारी चाहिए. यह कैसे हो, इस पर सोचा जाना चाहिए. कोरोना के दौरान भी महिलाओं ने तरह-तरह की हिंसा के अनुभव बताये थे. दस में से सात महिलाओं ने कहा था कि इस दौरान साथी द्वारा शारीरिक और घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई.

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