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संतालियों की संस्कृति व परंपरा का उद्गम स्थल है लुगु बुरु, लुगु बाबा की अध्यक्षता में बने थे रीति-रिवाज

हजारों-लाखों वर्ष पूर्व इसी स्थान पर लुगु बाबा की अध्यक्षता में संतालियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के रीति-रिवाज यानी संताली संविधान की रचना हुई थी. इस प्रकार, लुगुबुरु घांटाबाड़ी देश-विदेश में निवास कर रहे हर एक संताली के लिए गहरी आस्था का केंद्र है.

संतालियों की संस्कृति व परंपरा का उद्गम स्थल है लुगु बुरु. लुगु बाबा की अध्यक्षता में यहीं संताली समाज के रीति-रिवाज बने थे. लुगु बुरु से संतालियों की जड़ें जुड़ी हुईं हैं. लुगु बुरु झारखंड के बोकारो जिला के ललपनिया में है. यहां लुगु बुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ संतालियों की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी है.

लुगु बाबा ने की थी संताली संविधान की रचना

मान्यता है कि हजारों-लाखों वर्ष पूर्व इसी स्थान पर लुगु बाबा की अध्यक्षता में संतालियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के रीति-रिवाज यानी संताली संविधान की रचना हुई थी. इस प्रकार, लुगुबुरु घांटाबाड़ी देश-विदेश में निवास कर रहे हर एक संताली के लिए गहरी आस्था का केंद्र है. उनके गौरवशाली अतीत से जुड़ा महान धर्मस्थल है.

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संताली समाज के लोग हर अनुष्ठान में लुगु बुरु का बखान करते हैं. कहा जाये, तो लुगुबुरु संतालियों की संस्कृति, परंपरा का उद्गम स्थल है. विभिन्न प्रदेशों से आगंतुक श्रद्धालु यहां पहुंचते ही मानो धन्य हो जाता है. उनके चेहरे के भाव से साफ देखा जाता है. लुगु बुरु मार्ग में ऐसी कई चट्टानें हैं, जहां से श्रद्धालु चट्टानों को खरोंचकर अवशेष अपने साथ ले जाते हैं. इससे संतालियों की लुगु बुरु के प्रति आस्था व विश्वास को समझा जा सकता है.

12 साल तक बैठक के बाद पूरी हुई संविधान की रचना

जानकारों के मुताबिक, लाखों वर्ष पूर्व दरबार चट्टानी में लुगु बुरु की अध्यक्षता में संतालियों की 12 साल तक मैराथन बैठक हुई. हालांकि, संताली गीत में एक जगह गेलबार सिइंया, गेलबार इंदा यानी 12 दिन, 12 रात का भी जिक्र आता है. इतने लंबे समय तक हुई बैठक के दौरान संतालियों ने इसी स्थान पर फसल उगायी और धान कूटने के लिए चट्टानों का प्रयोग किया. इसके चिह्न आज भी आधा दर्जन उखल (उखुड़ कांडी)के स्वरूप में यहां मौजूद हैं.

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लुगु बाबा पीते थे सीता नाला का पानी

बगल से बहने वाली पवित्र सीता नाला के पानी का उपयोग पेयजल के रूप में किया. अंत में यह नाला करीब 40 फुट नीचे गिरता है. संताली इसे सीता झरना कहते हैं. छरछरिया झरना के नाम से भी यह सुप्रसिद्ध है. इसके जल को संताली गाय के दूध के समान पवित्र मानते हैं. कहा जाता है कि इस झरना के पानी का लगातार सेवन करने से कब्जियत, गैस्टिक व चर्म रोग दूर हो जाते हैं.

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झरना के निकट एक गुफा है, जिसे संताली लुगु बाबा का छटका कहते हैं. मान्यता के अनुसार, लुगुबुरु यहीं स्नान करते थे और इसी गुफा के जरिये वे सात किमी ऊपर स्थित घिरी दोलान (गुफा) तक आवागमन करते थे. कहा जाता है कि लुगु बुरु के सच्चे भक्त इस गुफा के जरिये ऊपर गुफा तक पहुंच जाते थे.

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सात देवी-देवताओं की होती है पूजा

दरबार चट्टानी स्थित पुनाय थान (मंदिर) में सबसे पहले मरांग बुरु और फिर लुगु बुरु, लुगु आयो, घांटाबाड़ी गो बाबा, कुड़ीकीन बुरु, कपसा बाबा, बीरा गोसाईं की पूजा की जाती है.

देश-विदेश से मत्था टेकने आते हैं लाखों श्रद्धालु

लुगु बुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ में हर साल कार्तिक पूर्णिमा (सोहराय कुनामी) पर यहां आयोजित होने वाले दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संताल सरना धर्म महासम्मेलन में देश के विभिन्न प्रदेशों झारखंड, बिहार, बंगाल, ओड़िशा, असम, मणिपुर, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के अलावा नेपाल, बांग्लादेश, भूटान व अन्य देशों से यहां श्रद्धालु मत्था टेकने आते हैं. महासम्मेलन में शामिल होकर अपने, धर्म, भाषा, लिपि व संस्कृति को उसके मूल रूप में संजोये रखने, प्रकृति की रक्षा पर चर्चा करते हैं, उसका संकल्प लेते हैं.

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यूं तो लुगु बुरु में संतालियों की हजारों-लाखों वर्षों से गहरी आस्था का केंद्र है. लेकिन, यहां सम्मेलन की शुरुआत वर्ष 2001 में हुई. समिति के अध्यक्ष बबूली सोरेन व सचिव लोबिन मुर्मू की अगुवाई में उनके साथियों ने देश-विदेश के संतालियों को एकसूत्र में बांधने को लेकर शुरू के 5-6 वर्ष जबर्दस्त प्रचार-प्रसार किया. परिणामस्वरूप, आज राजकीय महोत्सव का दर्जा प्राप्त है. 10 लाख से अधिक श्रद्धालु साल के दो दिनों में यहां मत्था टेकने आ रहे हैं.

भाषा, धर्म और संस्कृति को मूल रूप में संजोये रखने पर बल

लुगु बुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ में कार्तिक पूर्णिमा की चांदनी रात में लाखों संताली अपनी धर्म, भाषा व संस्कृति को मूल रूप में संजोये रखने पर चर्चा करते हैं. विभिन्न परगनाओं से पधारे धर्मगुरु संतालियों को बताते हैं कि वे प्रकृति के उपासक हैं और लाखों-करोड़ों वर्षों से प्रकृति पर ही उनका संविधान आधारित है. प्रकृति व संताली एक-दूसरे के पूरक हैं. प्रकृति के बीच ही उनका जन्म हुआ, भाषा बनी और हमारा धर्म ही प्रकृति पर आधारित है. ऐसे में हमें अपने मूल निवास स्थान प्रकृति की सुरक्षा के प्रति सदैव सजग रहना होगा.

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तभी हमारा मूल संविधान भी बचा रहेगा और आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम अपने अस्तित्व के साथ जुड़े भी रह पायेंगे. जब देश-विदेश से जुटे लाखों लोग एक साथ यहां अपने धर्मगुरुओं की बातों पर अमल करने का प्रण लेते हैं, तो संतालियों की सामूहिकता में जीने की परंपरा और मजबूत होती है. इससे इस सम्मेलन की महत्ता खास हो जाती है. खास इसलिए भी कि आज जब विश्व पर्यावरण संकट से निजात पाने को गहरी चिंता में डूबा हुआ है, संताली समुदाय हजारों-लाखों सालों से प्रकृति की उपासना कर यह भी बताता है कि उनकी समस्त परम्पराओं में विश्व शांति का मंत्र निहित है.

जाहेरगढ़ (सरना स्थल) संतालियों का उपासना केंद्र

संतालियों की अपने आराध्यों की उपासना के प्रमुख धार्मिक स्थानों में जाहेरगढ़ होता है. यहां सखुआ के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं. यहां संताली अपने सभी देवी-देवताओं का आह्वान कर उनकी पूजा करते हैं. सरहुल आदि अन्य अनुष्ठान सभी जाहेरगढ़ में मनाते हैं. संताली यहां सर्वप्रथम मरांग बुरु, फिर जाहेर आयो, लीट्टा गोसाईं, मोड़े को और तुरुई को देवी-देवताओं की पूजा करते हैं. खास बात यह भी है कि संताली अपनी उपासना में प्रकृति की सुरक्षा की मन्नत भी मांगते हैं. चूंकि, यहां सरना अनुयायी पूजा करते हैं. इसलिए इस स्थल को आम भाषा में सरना स्थल भी कहा जाता है.

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ललपनिया स्थित लुगु बुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ रांची से 90 किलोमीटर, दुमका से 218 किलोमीटर और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर से 307 किमी की दूरी पर स्थित है. सड़क मार्ग से दो रास्ते से ललपनिया पहुंच सकते हैं. पेटरवार-गोमिया रूट और रामगढ़-नयामोड़ रूट. इसी तरह, रेलवे के जरिये बोकारो रेलवे स्टेशन पहुंचा जा सकता है. ललपनिया से 17 किमी की दूरी पर गोमिया रेलवे स्टेशन और 33 किमी की दूरी पर रांची रोड रेलवे स्टेशन है. इन रेल रूटों से भी ललपनिया पहुंचा जा सकता है. दोनों ही स्टेशन धनबाद-बरकाकाना रेलखंड पर हैं. जिला प्रशासन नजदीकी रेलवे स्टेशनों से श्रद्धालुओं के यातायात को बस की सुविधा मुहैया कराने पर बल दे रही है.

रिपोर्ट- राकेश वर्मा/रामदुलार पंडा

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