जलवायु परिवर्तन के खतरे भीषण चुनौती बन चुके हैं. हालात और शोध इस बात के सबूत हैं कि एक ओर धरती का तापमान बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ दुनिया के विभिन्न इलाके पानी के संकट से जूझ रहे हैं. जलवायु परिवर्तन से समुद्री जलस्तर बढ़ने से कई द्वीपों और तटीय महानगरों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है. सूखी और जमी मिट्टी के ढीली होने के चलते तेजी से बिखरने, सूखने, जलापूर्ति कम होने, मिट्टी में कार्बन सोखने की क्षमता कम होते जाने
खारापन बढ़ने, बेमौसम बारिश की अधिकता के कारण बाढ़ आने, शुष्क भूमि पर निर्भर लोगों के लिए भोजन का संकट बढ़ने जैसी भीषण समस्याएं पैदा हो गयी हैं. अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इससे सूखे जैसे हालात समूची दुनिया के लिए आम हो जायेंगे. ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भविष्य के मौसम के मॉडल सिमुलेशन के निष्कर्षों के बजाय 160 से अधिक देशों के 43,000 वर्षा स्टेशनों और 5,300 नदी निगरानी स्थलों के असली आंकड़ों के विश्लेषण के बाद पाया कि जलवायु परिवर्तन के चलते वैश्विक जलापूर्ति पर संकट मंडराने लगा है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतेरेस का कहना है कि असलियत में अभी भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य पहुंच से बाहर हैं. यही वह अहम कारण है कि जलवायु आपदा टालने में विश्व पिछड़ रहा है. वैश्विक जलापूर्ति में कमी के बारे में अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि गर्म हवा में अधिक नमी संग्रहित होती है. जलवायु मॉडल की भी यही मान्यता थी.
इसलिए हमें बारिश के बढ़ने की उम्मीद थी, लेकिन हमें यह उम्मीद कतई नहीं थी कि दुनिया में बहुत जगहों पर अधिक बारिश के बावजूद नदियां सूख रही हैं. इसका अहम कारण जलग्रहण क्षेत्र में मिट्टी का सूखना रहा है. सबसे अहम बात यह रही कि यदि मिट्टी नम होती, तो अतिरिक्त बारिश का पानी नदियों में बहकर चला जाता. चूंकि वे बारिश का पानी ज्यादातर मात्रा में सोख लेती हैं, इसलिए वे अभी भी सूखी हैं. यही वजह है कि कम पानी बह पाता है.
हमारी नदियों में कम पानी का मतलब होता है कि शहरों और खेतों में कम पानी की उपलब्धता. सूखी मिट्टी का सीधा मतलब है कि किसानों के लिए पानी की अधिक मांग. विडंबना कहें या दुखद बात कि आजकल इस स्वरूप की दुनियाभर में तेजी से पुनरावृत्ति हो रही है, जो भयावह खतरे का संकेत है. गौरतलब है कि धरती पर पड़ने वाली बारिश की 100 बूंदों में से केवल 35-36 बूंदें ही हमारी नदियों, झीलों, तालाबों जैसे जल स्रोतों में ही जा पाती हैं.
यह पानी ही हमारी जरूरतों की पूर्ति करता है, जिसे ब्लू वाटर कहा जाता है तथा बारिश के शेष पानी, जो मिट्टी द्वारा सोख लिया जाता है, उसे ग्रीन वाटर कहा जाता है. धरती का ताप बढ़ने से मिट्टी ज्यादा पानी सोख लेती है. नतीजतन जलस्रोतों में पानी की कमी हो जायेगी और हमें जल संकट का सामना करना पडे़गा.
जलवायु परिवर्तन के कारण भूमि का क्षरण 10 से 20 गुणा तक बढ़ गया है, जो भूमि निर्माण की तुलना में सौ गुणा से भी ज्यादा है. आंकड़ों की मानें, तो 1961 से 2013 के बीच दुनिया में शुष्क जमीन की दर एक फीसदी से भी ज्यादा बढ़ी है. आगामी दिनों में इसमें बढ़ोतरी की आशंका है. भारत में गंगा बेसिन सर्वाधिक संवेदनशील इलाका है. पाकिस्तान में सिंधु बेसिन, चीन में येलो रिवर व चिन युंग के मैदानी इलाकों से हरियाली गायब हो चुकी है.
अमेरिका में यह आंकड़ा 60 फीसदी, यूनान, इटली, पुर्तगाल और फ्रांस में 16 से 62 फीसदी, उत्तरी भूमध्यसागरीय देशों में 33.8 फीसदी, स्पेन में 69 फीसदी, साइप्रस में यह खतरा 66 फीसदी जमीन पर मंडरा रहा है, जबकि अफ्रीका के 54 में से 46 देश बुरी तरह इसकी जद में हैं. हमारे देश की करीब 69 फीसदी शुष्क भूमि बंजर होने का सामना कर रही है. दुनिया के 52 से 75 फीसदी देश भूमि क्षरण की मार झेल रहे हैं और इससे 50 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हैं. सदी के अंत तक इसके बढ़ कर दोगुना से भी ज्यादा होने का अनुमान है. उस स्थिति में जलापूर्ति के संकट की भयावहता की आशंका से ही दिल दहल उठता है.
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतेरेस का कहना है कि यदि सदी के अंत तक धरती के तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी हुई, तो दुनिया के 115.2 करोड़ लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और भोजन का संकट पैदा हो जायेगा. यदि वैश्विक प्रयास तापमान को डेढ़ डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे, तो भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा. समय की मांग है कि समूचा विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये कि इस दिशा में हम पिछड़ रहे हैं और हमें तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है. इसके बिना बदलाव की उम्मीद बेमतलब है.