भारत की विशुद्ध सनातन संस्कृति व सभ्यता के इतिहास में अनैतिक व अमानवीय कृतियों को न केवल सर्वथा निंदनीय माना गया है अपितु धर्म विहीन व धर्म विपरीत भी माना गया है. यद्यपि ऐसी सत्यता को भारत के अविस्मरणीय और अक्षुण्ण सभ्यता व संस्कृति का अभिन्न अंग भी इंगित किया गया है, तथापि अपवाद भी समक्ष हैं इन्हीं अपवादों की श्रृंखला में एक अपवाद की ओर आप प्रबुद्ध विद्वत जनों का ध्यान आकृष्ट कराने की विनम्र अनुमति चाहता हूं. आगे जो विचारणीय प्रश्न रखूं उसके पूर्व यह भी कहना चाहूंगा कि यह अपवाद सुखद नहीं दुखद है अनीति का खंडन नहीं महिमामंडन करता है और यह सदियों से करता आ रहा है.
तथ्य इस प्रकार है कि राक्षस राज रावण कैलाश के स्वामी महादेव से अनुनय कर अपने राज्य लंका नगरी चलने को, मुश्किल से ही सही, पर सहमत कर लेता है. सर्वेश्वर सदाशिव महादेव तो सर्वज्ञ हैं. खैर भोलेबाबा तो ठहरे भोले भाले और रावण के अनुरोध को मना नहीं कर पाते हैं. तदनुसार अपने प्रतीक शिवलिंग को रावण के हाथ सौंप देते हैं जिसे वह लंका नगरी में प्रस्थापित करने हेतु लंका नगरी को प्रस्थान करता है. शिवलिंग सौंपने के पूर्व ही महादेव रावण के समक्ष एक शर्त बिंदु भी रखते हैं कि वह शिवलिंग को जिस भी स्थान पर भूमि पर रखेगा शिवलिंग वही अवस्थित हो जाएगा जिसे रावण स्वीकार कर लेता है.
रावण लंका प्रस्थान करने के क्रम में मार्ग में ही मूत्र उत्सर्जन हेतु अपने समक्ष उपस्थित ब्राह्मण को अनचाहे ही शिवलिंग इस आशय से सौपता है कि जैसे ही वह निवृत होगा वह शिवलिंग वापस प्राप्त कर लेगा. ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं श्री हरि नारायण श्री विष्णु ही होते हैं और अत्यंत प्रतीक्षा के उपरांत शिवलिंग को उसी स्थान पर भूमि पर रख देते हैं और शर्त के अनुसार शिवलिंग झारखंड प्रांत के वर्तमान देवघर में ही स्थित हो जाते हैं.
इस प्राचीन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि ना तो रावण की कभी कामना थी कि स्वयं शिव से प्राप्त शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा देवघर के पावन भूमि में करे ना ही उसने स्वयं शिवलिंग देवघर की भूमि पर रखी बल्कि यह तो ब्राह्मण स्वरूप स्वयं श्री विष्णु के कर कमलों द्वारा ही स्थापित हुआ. यह भी एक अद्भुत तथ्य है की महादेव के देवघर में ही स्थापित होने को लेकर राक्षस राज रावण अति क्रोधित भाव से शिवलिंग पर प्रहार करता है जिसके फलस्वरूप शिवलिंग भूमि पर थोड़े तिरछे से प्रतीत होते हैं.
शिव के अनन्य भक्तों में से एक भक्त राक्षस राज रावण अपने राक्षसी प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुरूप अपने इष्ट महादेव पर ही क्रोधित और कुपित हो उनके प्रतीक शिवलिंग पर ही प्रहार करता है जो उसके भक्ति और श्रद्धा का उपहास करती है और उसके शिव भक्ति पर प्रश्न चिह्न लगाती है. अब विचार बिंदु यह है कि बाबा बैद्यनाथ को किस प्रकार से रावणेश्वर बैद्यनाथ कहना उचित माना जाए और क्यों कहा जाए रावणेश्वर बैद्यनाथ संबोधन क्या रावण के धूमिल कृतित्व व व्यक्तित्व को गरिमामय करने का क्षुद्र प्रयास नहीं करती है? रावण न केवल अनीति, अधर्म और अमर्यादित कृत्य का पर्याय व प्रतीक है, अपितु सनातन समाज में सर्वथा वर्जनीय नाम है .
एक दुष्प्रचार भी है कि रावण परम विद्वान था. यदि इसे मान भी लिया जाय तो ये कहां तक ठीक है की पहले एक अच्छी सब्जी बनाओ और फिर उसमें एक बूंद केरोसिन तेल मिला दो. हां तो रावण परम विद्वान था या परम मूर्ख यह तो उद्भट विद्वान कालीदास के संदर्भ में और अच्छे से विश्लेषित किया जा सकता है. यह भी सत्य है कि रावण तो कभी भी देवघर में महादेव का वास चाहता ही नहीं था ना ही उसने देवघर की पावन भूमि पर महादेव स्वरूप शिवलिंग को रखा था ना रावण के कोई वंशज श्री बैद्यनाथ को रावणेश्वर बैद्यनाथ जैसे संबोधन से संबोधित करने की मांग रखी.
बल्कि सर्वज्ञ सदाशिव महादेव स्वयं देवघर की भूमि में स्थित कर निवास करने की इच्छा पूर्ण की जिसमें श्री हरि नारायण का सशरीर सहयोग प्राप्त हुआ. एक तथ्य और भी समक्ष प्रस्तुत है की ज्योतिर्लिंग रामेश्वरम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा प्राण प्रतिष्ठित है अतः शिवलिंगों में रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग सर्वथा गौरवशाली औचित्यपूर्ण संबोधन है. अतः यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या श्री बैद्यनाथ महादेव को रावणेश्वर बैद्यनाथ कहा जाए या इसे तत्काल प्रभाव से इस शब्द को अनुचित और अमर्यादित समझ इसका सर्वथा बहिष्कार हो? हांलाकि लेखक के व्यक्तिगत मत से शिव तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित चराचर के भी ईश्वर हैं अतः महादेव को रावणेश्वर के स्थान पर सर्वेश्वर बैद्यनाथ जैसे संबोधन या कोई अन्य संबोधन, जो विद्वत जनों के सर्वसम्मति में उचित हो, का प्रयोग होना चाहिए.
शिव भक्त
वेणु गुंजन झा (अधिवक्ता)
दिल्ली बार काउंसिल