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Jivitputrika Vrat 2022: पुत्र की लंबी आयु का पर्व जिउतिया आज से, रविवार को माताएं करेंगी निर्जला व्रत

Jivitputrika Vrat 2022: बेटे की लंबी आयु के लिए माताओं द्वारा किया जाने वाला निर्जला व्रत जिउलिया नहाय-खाय के साथ शनिवार से शुरू होगा. कल रविवार को माताएं निर्जला व्रत रखेंगी.

भागलपुर: बेटे की लंबी आयु के लिए माताओं द्वारा किया जाने वाला निर्जला व्रत जिउलिया नहाय-खाय के साथ शनिवार से शुरू होगा. शनिवार को जिउतिया करने वाली महिलाएं गंगा स्नान करने के बाद घर की महिलाओं के साथ कई तरह की सब्जी जिसमें नोनी के साग जरूर होता है. इस साग का इस पर्व में बड़ा महत्व है. इस पर्व में झिगंली और उसके पत्ते का बड़ा ही महत्व होता है.

24 घंटे निर्जला व्रत पर रहेंगी माताएं

शनिवार को व्रती घर में बने खाना खाती है. नहाय-खाय के दूसरे दिन रविवार की सुबह से ही व्रती महिलाओं का निर्जला व्रत शुरू हो जाता है. 24 घंटे निर्जला व्रत करने के बाद महिलाएं सोमवार को झिगंली के पत्ते में दूध-चूड़ा रख कर पूजा करती हैं और उस पत्ते को छत पर रख देती है, ताकि उस प्रसाद को पक्षी ग्रहण कर सके. रविवार को व्रत के दिन गंगा घाट किनारे एक साथ बैठक कर कथा सुननी हैं. व्रती महिलाएं सिलो-सियारिन की कथा सुननी हैं. शनिवार को बाजार में महिलाओं की भीड़ थी. महिलाएं बाजार में डलिया, फल, मिठाई की खरीदारी कर रही थी. गंगा घाट पर स्नान करने वालों की भीड़ थी.

जिउतिया व्रत कब है.. 17 या 18 को?

बनारसी पंचांग में जान-बूझकर मतभेद पैदा किया जा रहा है. बनारसी परम्परा में भी पहले प्रदोषव्यापिनी जीवित्पुत्रिका का विधान था. कुछ वर्षों से उदय व्यापिनी का बोलबाला चला आ रहा है.

पंचांगों में अष्टमी तिथि की स्थिति

  • हृषीकेश पंचांग के अनुसार इस वर्ष 17 सितम्बर को दिन में 2 बजकर 56 मिनट से अष्टमी तिथि प्रारम्भ होकर 18 सितंबर को 4 बजकर 39 मिनट तक है.

  • मैथिल पंचांग के अनुसार भी तिथि का आरम्भ 17 सितंबर को 3 बजकर 06 मिनट पर है तथा समाप्ति 18 सितंबर को 4 बजकर 38 मिनट है.

  • इस प्रकार, गणना में ऐसा कोई अंतर नहीं है, जिसके कारण व्रत के दिन में अंतर हो जाये.

मिथिला की परम्परा में है, इस व्रत का विशिष्ट विधान

यह व्रत मिथिला के अतिरिक्त दक्षिण बिहार और उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रचलित है. मैथिल को छोड़कर अन्य श्रद्धालु इस व्रत के निर्णय के लिए बनारसी परम्परा को मानते रहे हैं. बनारसी परम्परा के निबंधकारों में कमलाकर ने ‘निर्णयसिन्धु’ में इसका उल्लेख नहीं किया है. बनारसी परम्परा के विद्वान कमलाकर कृत ‘निर्णयसिन्धु’ तथा काशीनाथ उपाध्याय कृत ‘धर्मसिन्धु’ को प्रमाण मानते रहे हैं. इन दोनों ग्रन्थों में आश्विन कृष्ण अष्टमी को महालक्ष्मी व्रत का उल्लेख तो है किन्तु जीमूतवाहन व्रत या जीवत्पुत्रिका व्रत का उल्लेख नहीं है.

इस ग्रंथ में किया गया है व्रतों की विवेचना

पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में तेरह अध्यायों में व्रतों के विवेचन में भी इसे स्थान नहीं दिया है. तेरहवें अध्याय में बृहत् व्रतसूची में एक पंक्ति में इसका उल्लेख मैथिल निबन्धकार अमृतनाथ कृत ‘कृत्यसारसमुच्चय’ के आधार पर उन्होंने किया है. मध्यकाल और वर्तमान काल के मैथिलों में रुद्रधर, पक्षधर, महेश ठक्कुर, परमानन्द ठक्कुर, शुभंकर ठक्कुर, अमृतनाथ और दामोदर मिश्र आदि ने इस व्रत पर पूरा विवेचन किया है. 1931-35 तक दरभंगा में गठित धर्मसभा में पं. दीनबन्धु झा ने इस विषय पर अपना बृहत आलेख प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने सभी मैथिल तथा गौड़ निबन्धकारों के मतों का उल्लेख करते हुए गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है. पं. झा का यह विशिष्ट निबन्ध कुशेश्वर शर्मा द्वारा सम्पादित ‘पर्वनिर्णय’ ग्रन्थ में प्रकाशित है.

मिथिला परम्परा में है ओठगन की विशेष व्यवस्था

जीवित्पुत्रिका की परम्परा मिथिला में विशिष्ट है. यहां सप्तमी तिथि में रात्रि में स्त्रियों के लिए ओठगन की व्यवस्था है. लोक में इस ओठगन के सम्बन्ध में अनेक कहावतें प्रचलित हैं. ‘जितिया पावनि बड़ भारी। धियापुताकेँ ठोकि सुतौलनि अपने लेलनि भरि थारी।’ स्वाभाविक है कि जीमूतवाहन व्रत में बनारस के पंचांगकारों के पास अपनी परम्परा नहीं है, तो वहां उसे वे सामान्य व्रत के रूप में उदयव्यापिनी तिथि मानते हुए निर्णय देंगे. अतः इस वर्ष बनारसी पंचांग में 18 को लिख दिया गया है. प्रमाण के रूप में पंचांगकार लिख रहे हैं कि ‘यत्रोदयं वै कुरुते दिनेशो जीवत्सुताख्या व्रतमस्तु तत्र.’ यानी जिस दिन सूर्योदय अष्टमी में हो उस दिन जीवत्पुत्रिका व्रत करना चाहिए. वहीं पर उन्होंने मैथिल निबन्धकारों का भी मत दे दिया है कि मैथिल लोग प्रदोषकालिक अष्टमी के दिन व्रत करते हैं. परम्परा भेद प्रदर्शित कर उन्होंने तिथिभेद दिखा दिया.

17 सितंबर को करें जीमूतवाहन व्रत

इस प्रकार, यह सिद्ध है कि जीवित्पुत्रिका व्रत की मूल परम्परा मैथिलों की है. मैथिलेतर यदि इस व्रत को करते हैं, तो उन्हें मिथिला की परम्परा माननी चाहिए. लेकिन केवल भिन्नता दिखाने के लिए इस प्रकार की अव्यवस्था फैलने से हमारे व्रतों-पर्वों की परम्परा की हानि होगी, यह बात हम सबको समझनी चाहिए. सिद्धान्त रूप में हमें चाहिए कि जहां का व्रत हम करते हैं. वहां की जो अपनी मूल परम्परा है, उसका अनुसरण करें. अतः सभी श्रद्धालुओं को दिनांक 17 को जीमूतवाहन व्रत करना चाहिए.

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