21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक संबंध

जब पाकिस्तान चारों तरफ से समस्याओं से घिरा हुआ है, भारत के लिए पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाना एक उचित कदम साबित हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसे पहल की सराहना होगी.

15 सितंबर से उजबेकिस्तान में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ एक मंच पर होंगे. इस सम्मेलन में चीन और तालिबान के प्रतिनिधि भी उपस्थित रहेंगे. बड़ी बात यह है कि दोनों नेताओं के आमने-सामने बैठने और द्विपक्षीय बैठक की भी संभावना है. प्रधानमंत्री मोदी खुद पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने के लिए हाथ बढ़ाना चाहते हैं.

इस साल मोहर्रम के दिन प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर एक पवित्र दिन के तौर पर मोहर्रम का जिक्र किया था. इस ट्वीट से भाजपा के कट्टर नेताओं के खेमे में नाराजगी भी देखी गयी थी. भाजपा के एक नेता ने यहां तक कह दिया था कि ऐसे ट्वीट अकल्पनीय हैं और अमित शाह ऐसे पोस्ट कभी नहीं करेंगे. इसी तरह पाकिस्तान में प्राकृतिक आपदा की पीड़ा पर प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर सहानुभूति प्रकट की थी. यहां तक कि पाकिस्तान के मंत्री ने भी भारत से सहायता करने की अपील की थी, हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय की तरफ से ऐसी किसी मदद की बात को खारिज कर दिया गया.

ट्रैक टू डिप्लोमेसी करने वालों ने मोदी सरकार को यह तक कह दिया है कि अगर पाकिस्तान की मदद के लिए भारत हाथ बढ़ाता है, तो इमरान खान शाहबाज सरकार को नेस्तनाबूद कर देंगे. वहां पंजाब के उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन के बाद से इमरान को मानो ऑक्सीजन मिल गया है. भारत के कूटनीतिज्ञ जानकारों का कहना है कि देश में कट्टरवादियों की कमी नहीं है.

सब जानते हुए भी अगर भारत हाथ बढ़ाता है और कुछ दिन बाद कश्मीर में ऐसी कोई घटना घटती है, जिसके पीछे पाकिस्तान का हाथ हो, तब क्या होगा? शाहबाज शरीफ सैन्यबल के समर्थन में प्रधानमंत्री बने. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ पाक सेना के प्रधान संपर्क में रहे थे. यही वजह है कि शाहबाज के प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने उन्हें शुभकामनाएं दीं. शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक में ठोस फैसला लेने का एक मौका था, जहां जयशंकर और बिलावल भुट्टो मिले थे.

कश्मीर की बात करें तो मोदी वहां के नेताओं के साथ कई बार बैठकें कर चुके हैं. यहां तक कि कश्मीर में चुनाव कराने की योजना बना रहे हैं. मोदी ने तो यह भी कहा है कि अगर डीलिमिटेशन के तहत वोटर तालिका तैयार नहीं की जा सकी, तो पुरानी तालिका के हिसाब से भी चुनाव हो सकता है.

नूपुर शर्मा प्रकरण की आंच विदेशों तक पहुंची थी. तब प्रधानमंत्री मोदी ने आबू धाबी हवाई अड्डे पर संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख बिन जायेद से मिले थे. सवाल उठता है कि मोदी आखिर ऐसा क्यों कर रहे हैं. क्या वे गोधरा कांड की छवि भूलना चाहते हैं? क्या वे अटल जी जैसा बनना चाहते हैं? लालकृष्ण आडवाणी की छवि कट्टर हिंदुत्ववादी की रही है. उन्होंने पाकिस्तान दौरे में जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कह दिया था, जिसके कारण उन्हें आरएसएस की नाराजगी झेलनी पड़ी थी.

वे दिन क्या मोदी भूल गये? उस वक्त मेरे संपादक ने इसका समर्थन करते हुए कहा था कि जब हम धर्मनिरपेक्ष होते हैं, तो इसका समर्थन करना होता है. मगर एक वरिष्ठ संवाददाता ने मेरे लेख पर सवाल उठाया था कि बिल्ली अगर कहती है कि मछली नहीं खाऊंगी, काशी जाऊंगी, तो इस पर क्या कोई विश्वास करेगा. आडवाणी स्वयं कट्टर भाव मूर्ति का उदाहरण हैं.

अफगानिस्तान में तालिबान सरकार आने के बाद कूटनीतिक संपर्क बनाना जरूरी हो गया है, जिसे मोदी ने सफलतापूर्वक किया है. यूक्रेन मुद्दे पर अमेरिका के साथ मधुर संपर्क बनाते हुए रूस के साथ पुराने संपर्क को भी खराब नहीं होने दिया मोदी ने. चीन के साथ भी इसी कूटनीति के तहत मोदी आगे बढ़ रहे हैं

जेएन दीक्षित ने कहा था कि चीन के साथ संपर्क रखना होगा. पर सावधानी के साथ कदम बढ़ाने की आवश्यकता है. पाकिस्तान के साथ चीन के संपर्क में भी कई अटकलें हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी है. चीन के पास जो हथियार हैं, उनकी गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है, इसलिए अमेरिका से ही पाकिस्तान हथियार लेना चाहता है. तीसरी बात यह है कि चीन अगर किसी को ऋण देता है, तो उसका हश्र क्या होता है, श्रीलंका में यह सबने देखा है.

इसलिए पाकिस्तान चीन के इस झमेले में नहीं पड़ना चाहता. तालिबानी सरकार पर पाक का नियंत्रण कम हो रहा है, जबकि भारत का प्रभाव बढ़ता हुआ दिख रहा है, इसलिए चीन की तुलना में पाकिस्तान के लिए भारत अधिक महत्वपूर्ण है. पांचवीं बात, चीन में कई ऐसे इलाके हैं, जहां तालिबान और पाक के आतंकी सक्रिय हैं. इस स्थिति में जब पाकिस्तान चारों तरफ से समस्याओं से घिरा हुआ है,

भारत के लिए पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाना एक उचित कदम साबित हो सकता है. पाकिस्तान अभी अनुच्छेद 370 से जुड़ी मांगों से पीछे हट गया है. पाक सेना के प्रधान जनरल बाजवा से भारत के अच्छे संपर्क हैं. ऐसे समय में भारत-पाक वार्ता की प्रक्रिया अगर शुरू होती है, तो यह एक अच्छा वक्त माना जायेगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसे पहल की सराहना होगी. मोदी की विदेश नीति के नये अभियान की सराहना हो रही है, किंतु इसमें समस्याएं भी हैं.

हाल की दो घटनाएं उल्लेखनीय हैं. कर्नाटक में एक मैदान में गणेश पूजा को लेकर मामला अदालतों में गया. गुजरात में बिलकीस बानो के बलात्कारियों की रिहाई के बाद उन्हें माला पहनाया गया. कुछ दिन पहले मोदी ने गुजरात दौरा भी किया, मगर इस मामले पर वे चुप रहे. देशभर में हिंदुत्व के नाम पर समाज बंटता दिख रहा है. मोदी सरकार सवालों के घेरे में भी आ रही है. ऐसे में मोदी विश्व नेता बनने में कितने सफल होंगे, यह एक बड़ा सवाल है.

याद करें कि गोधरा कांड के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपने भाषण में गुजरात दंगे का उदाहरण देते हुए भारतीय मुसलमानों की सुरक्षा का मामला उठाया था. उस वक्त वाजपेयी सरकार को विश्व स्तर पर सवालों का सामना करना पड़ा था. मोदी के कार्यों का स्वागत भले किया जा रहा है, मगर यह प्रश्न है कि देश के भीतर भाजपा राजनीतिक स्तर पर अगर सर्वोच्च है और समाज हिंदुत्व के नाम पर बंट रहा है, तो ऐसे में विश्व स्तर पर मोदी अपनी कूटनीति में कितने सफल होते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें