गोत्र क्या है? अगर यह सवाल आज के युवाओं से किया जाये तो संभवत: वे इसका ठीक-ठीक जवाब ना दें पायें. उन्हें सिर्फ यही पता है कि गोत्र की जरूरत पूजा-पाठ या शादी-विवाह के अवसर पर होती है. गोत्र के इतिहास को अगर हम खंगालें तो यह पायेंगे कि दरअसल गोत्र का संबंध मानव के पहचान से है.
भारतीय समाज में गोत्र, मूल और पुर जैसे शब्द प्रचलित हैं, जिनका इतिहास मानव के पहचान से जुड़ा है. सनातन धर्म में गोत्र को ऋषि परंपरा से जोड़कर देखा जाता है. यानी जो जिस ऋषि परंपरा से जुड़ा होता था उसका गोत्र वही होता था. मसलन अंगिरा, वशिष्ठ, कश्यप, भृगु, भारद्वाज, अत्रि, वत्स,कौशिक, गौतम, गर्ग इत्यादि. लेकिन ऋषि परंपरा से पहले भी इंसानों की पहचान के लिए गोत्र बनाये गये थे, जो वनस्पति और पशु से जुड़े थे. आदिवासियों के यहां टोटम और पत्थलगड़ी का इतिहास भी उसी से जुड़ा है.
झारखंड के आदिवासियों में कई गोत्र प्रचलित हैं, जिन्हें उनकी पहचान से जोड़कर देखा जाता है. रांची के डोरंडा काॅलेज में कुडुख भाषा विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ नारायण भगत ने बताया कि उरांव जनजाति के लोगों के बीच पहले गोत्र लिखने की परंपरा नहीं थी. गोत्र हमारे लिए बहुत ही पवित्र चीज है और हम इसे सार्वजनिक तभी करते हैं, जब इसकी जरूरत होती है, अन्यथा हम इसे किसी को बताते नहीं हैं. लेकिन ईसाई मिशनरियों के झारखंड में प्रवेश के बाद जब आदिवासियों का धर्मांतरण हुआ तो उन्होंने अपने नाम के साथ गोत्र लिखना शुरू किया, अन्यथा उससे पहले जो जिस जाति का होता था वह अपने नाम के साथ वही सरनेम या पहचान लिखता था. मसलन मैं अगर उरांव जनजाति का हूं तो अपने नाम के साथ नारायण उरांव लिखूंगा. लेकिन चूंकि मेरा पिता उरांव जनजाति में भगत थे और अपने नाम के साथ भगत लिखते थे तो मैं भी भगत लिखता हूं. भगत यानी ऐसा व्यक्ति जिसकी पूजा पाठ में विशेष रुचि हो और जो खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर चुका हो. उरांव जनजाति के लोग अपने नाम के साथ पहान भी लिखते हैं. पहान यानी पूजा पाठ कराने वाला.
डाॅ नारायण भगत का कहना है कि आदिवासियों में ऐसी मान्यता है कि सृष्टि की रचना के बाद धर्मेश यानी महादेव शिव ने सोचा कि इंसानों की पहचान कैसे होगी, तो उन्होंने सबसे कहा कि तुम्हें सृष्टि में जो चीज सबसे ज्यादा पसंद हो वो लेकर आओ. महादेव से अनुमति लेकर सभी अपने पसंद की चीज लेने चले गये और उन्होंने जिस भी चीज के साथ वापसी की, उसी के आधार पर उनकी पहचान बनी. अगर कोई पक्षी लेकर आया तो वही पक्षी उनके परिवार या समूह की पहचान बना, अगर कोई पशु लाया या फिर वनस्पति लाया तो वह उनकी पहचान बना. इंसान की यही पहचान उनका गोत्र कहलाया, सृष्टि की शुरुआत में एक गोत्र के लोग एक समूह में रहते थे, लेकिन समय के साथ समूह विभाजित होता गया. समूह विभाजित होने के साथ ही लोगों की पहचान करना मुश्किल हो गया, उस वक्त लोगों ने गोत्र को पहचाान का आधार बनाया. चूंकि गोत्र को रक्त संबंध से जोड़कर देखा जाता है इसलिए एक गोत्र के लोगों को एक परिवार का माना जाता है और उनके बीच शादी-विवाह वर्जित है. आदिवासी समुदाय आज भी गोत्र के इस नियम को मानता है.
उरांव जनजाति के लोगों का मानना है कि गोत्र मुख्यत: ये हैं-पशु गोत्र, पक्षी गोत्र, जलचर गोत्र, रेंगने वाले पशु का गोत्र, वनस्पति गोत्र, धातु गोत्र एवं स्थान गोत्र. चूंकि आदिवासियों का जल, जंगल और जमीन से गहरा नाता है और आदिवासी सहजीवन में भरोसा करते हैं इसलिए वे पशु, पक्षी और वनस्पति सबसे प्रेम करते हैं और उनके गोत्र का इनसे संबंध होना इसी सहजीवन का आधार है. उरांव जनजाति के लोगों के बीच ऐसी मान्यता है कि हम जिस गोत्र के हैं वह पशु -पक्षी हमें नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. अगर हम उनके करीब जाकर यह कह दें कि हम आपके गोत्र के हैं और उन्हें प्रणाम करें तो वे हमें किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचायेंगे. आदिवासियों का मानना है कि यह धरती इंसानों के साथ-साथ पशु,पक्षियों की भी है, इसलिए सबको साथ-साथ सहजीवन में रहना चाहिए. ऐसी मान्यता भी है कि जो जिस गोत्र का है वो उस पशु, पक्षी और वनस्पति को संरक्षित करेगा. यही वजह है कि आज भी अपने गोत्र के पशु और पक्षी का मांस उरांव जनजाति के लोग नहीं खाते हैं.
उरांव जनजाति में गोत्र पशु, पक्षी , जलचर, रेंगने वाले पशु , वनस्पति, धातु एवं स्थान के नाम पर हैं. कुछ प्रमुख गोत्र और उनके अर्थ इस प्रकार हैं- खेस यानी धान, लकड़ा यानी बाघ, मिंज यानी मछली, किस्पोट्टा यानी सूअर का पोटा, चिरआवो-एक प्रकार का पक्षी, खाखा यानी कौआ, टोप्पो यानी विशेष चिड़िया, एक्का यानी कछुआ, खलखो यानी मछली, मिंज यानी मछली और मोर(यह वंशावली के अनुसार अलग होते हैं). लिंडा यानी लंबा केंचुआ. आइंद यानी लंबी मछली, तिडू एक प्रका की मछली, गिद्धी यानी गिद्ध, केरकेट्टा यानी एक प्रकार का पक्षी, गेड़े यानी बतख, ओरगोड़ा यानी बाज, बकुला यानी बगुला, बांड्डो यानी बिल्ली, बरवा यानी जंगली कुत्ता, चिगालो यानी गीदड़, गाड़ी यानी बंदर, तिग्गा का अर्थ भी बंदर.
उरांव जनजाति के ईष्ट देव महादेव शिव हैं, जिन्हें धर्मेश कहा जाता है. उनकी पत्नी पार्वती इनकी पूज्य देवी हैं. उरांव जनजाति का मूल निवास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा है. माना जाता है कि कालांतर वे कोंकण प्रदेश आ गये. उरांव जनजाति को द्रविड़ मूल का माना जाता है. रोहतासगढ़ में इनका शासन था. उरांव जनजाति शिकारी से कृषक बने हैं और आज कृषि उरांव जनजाति का मूलपेशा है. इनकी संस्कृति में धुमकुड़िया का महत्वपूर्ण स्थान है. यह जनजाति झारखंड के अलावा बंगाल और छत्तीसगढ़ में भी निवास करते हैं. उरांव जनजाति की भाषा कुडुख है.
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