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रंगमंच: नाटक दृश्य के साथ श्रव्य भी है जरूरी

दृश्य रचना में श्रम दिखता है, पर यह भी उल्लेख करना चाहिए कि वे इस बात को पकड़ने में चूक गये हैं कि नाटक दृश्य के साथ श्रव्य भी है. उसे उतना ही साफ सुनाई देना चाहिए. बिहार की नयी पीढ़ी के तीन निर्देशकों की प्रस्तुतियां हुई थीं. तीनों नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित है और रंगकर्म के लिए अपनी जमीन पर लौटे

अमितेश, रंग समीक्षक

पटना के कालीदास रंगालय में अगस्त के पहले सप्ताह में आयोजित तीन दिनों के पुरबिया रंग महोत्सव में बिहार की नयी पीढ़ी के तीन निर्देशकों की प्रस्तुतियां हुई थीं. ये तीनों नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित हैं तथा रंगकर्म के लिए अपनी जमीन पर लौटे हैं. ये रंगकर्मी हैं मोहम्मद जहांगीर, हरिशंकर रवि और श्याम साहनी. जहांगीर मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित हैं तथा रवि और श्याम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं.

महोत्सव की प्रस्तुतियों में अपनी बात कहने के लिए उपयुक्त साहित्य का चुनाव किया गया था. जहांगीर ने हृषिकेश सुलभ की ‘खुला’ कहानी का ‘पकवाघर’ शीर्षक से, हरिशंकर रवि ने तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ का और श्याम साहनी ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी रसप्रिया’ की प्रस्तुति की. तीनों प्रस्तुतियों में अस्मितामूलक विमर्श केंद्र में है. ‘पकवाघर’ में मुस्लिम सामाजिक जीवन की आलोचना है मुस्लिम स्त्री के जीवन के जरिये.

कहानीकार सुलभ मुस्लिम परिवेश को जीवंत भाषा में सामाजिक अंतर्विरोधों के साथ दर्ज करते हैं, जिसे निर्देशक अपनी रंगभाषा में सफलतापूर्वक विन्यस्त करता है. जहांगीर की इस प्रस्तुति में मंच पर न्यूनतम सामग्री है और अभिनेता अलग अलग भूमिकाओं में आवाजाही करते हैं. कहानी की रंगभाषा को जहांगीर ने इधर की अपनी प्रस्तुतियों से अलग त्वरा दी है, लेकिन कहानी के बीच स्थित मार्मिक सौंदर्य स्थलों का चुनाव कर उसे विशेष रूप से उभारने में नाकाम रहे हैं.

हरिशंकर रवि ने तुलसीराम की चर्चित आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ को मंजरीमणि त्रिपाठी के नाट्य रूपांतर में प्रस्तुत किया है. नाट्य विद्यालय से निकलने के बाद की पहली ही प्रस्तुति में रवि दिखाते हैं कि महाकाव्यात्मक कैनवास की प्रस्तुति करने का सामर्थ्य उनमें है. ‘मुर्दहिया’ में तुलसीराम ने अपने जीवन के माध्यम से पूर्वांचल के भारत के ग्रामीण समाज के दलित जीवन के यथार्थ को मार्मिकता से सामने रखा है. इस कहानी के मर्म को उभारने में रवि कामयाब रहे हैं और एक सटीक रंगदृष्टि और सौंदर्यबोध के साथ. इस प्रस्तुति की विशेषता उसकी दृश्य भाषा है, जिसमें लालेटन, चौकी, पत्तल, दोना आदि सामग्रियों के साथ ग्रामीण व्यवहारों को भी अभिनेताओं के भंगिमा में शामिल किया गया है. प्रस्तुति के संगीत के लिए रवि उन आवाजों और संगीतों की खोज में गये हैं, जिनसे दलितों का जीवन घिरा रहता है. उत्साह इस प्रस्तुति का आश्वस्तकारी है, लेकिन इसे संयमित और संपादित करने की जरूरत है.

दोनों ही प्रस्तुतियों में निर्देशकों ने ध्यान रखा है कि नाट्य सौंदर्य की वृद्धि के लिए प्रयोग करते हुए कथ्य की स्पष्टता रहे. देह, उसकी गतियों और सामग्री से अंतरक्रिया करते हुए दृश्य रचना में श्रम दिखता है, पर यह भी उल्लेख करना चाहिए कि दृश्य रचना में निर्देशक इस बात को पकड़ने में चूक गये हैं कि नाटक दृश्य के साथ श्रव्य भी है. उसे उतना ही साफ सुनाई देना चाहिए. प्रभावी प्रस्तुति के लिए केवल दृश्य ही काफी नहीं हैं. इधर नाट्य विद्यालयों के प्रशिक्षण में भी जोर इसी पर दिया जाता रहा है, लेकिन अब दृश्य के इतने रूप हमारे सामने है कि नाट्य प्रस्तुतियों को दृश्य के नये आयामों की खोज करनी होगी, जिसमें श्रव्य की उपेक्षा नहीं हो.

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