डॉ अजीत रानाडे
अर्थशास्त्री
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उत्तर भारत में मार्च में पड़ी असाधारण गर्मी के कारण गेहूं उत्पादन घटा था. उत्तरी यूरोप में तो स्थिति और खराब थी और उसका असर भी गेहूं की पैदावार पर पड़ा. गर्मी और यूक्रेन से निर्यात बंद होने से वैश्विक बाजार में लगभग 1.40 करोड़ टन गेहूं की कमी होने का अनुमान है. बड़े आयातक- कूटनीतिक और व्यावसायिक दोनों- पिछले साल के भंडारों से गेहूं हासिल करने की पुरजोर कोशिश में हैं.
भारतीय प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया था कि हमारा देश दुनिया को खाना खिला सकता है क्योंकि हमारे यहां बहुत अच्छी पैदावार हुई है. लेकिन मार्च की गर्मी के बाद हुए आकलनों के मद्देनजर तुरंत में गेहूं निर्यात पर रोक लगा दी गयी, जिससे किसानों को निराशा हुई क्योंकि वे अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ीं कीमतों से बड़ी कमाई की आस में थे. लेकिन अब स्थिति और चिंताजनक हो सकती है.
इस साल की पैदावार पिछले साल की तुलना में 10 फीसदी कम हो सकती है. कम खरीद तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के लिए अधिक आवंटन के कारण मौजूदा भंडार बहुत कम हैं. वितरण प्रणाली और मुफ्त राशन की अन्न योजना की कुल सालाना जरूरत लगभग 3.20 करोड़ टन है. इसके अतिरिक्त, कम से कम 80 लाख टन अनाज का भंडार होना चाहिए ताकि आपात स्थितियों से निपटा जा सके और दाम स्थिर बने रहें.
पिछले साल के भंडार और दो करोड़ टन की ताजा खरीद के बाद भी अभी संग्रहण कम है. खाद्य एवं जन वितरण विभाग ने ऐसी संभावित कमी से इनकार किया है. किसी आसन्न कमी का सबसे अच्छा सूचक कीमतें होती हैं. गेहूं मुद्रास्फीति अभी 12 फीसदी है. व्यापारी मानकर चल रहे हैं कि सालाना उत्पादन 9.50 करोड़ होगा, जो पिछले साल के 11.10 करोड़ टन से बहुत कम है. अमेरिकी कृषि विभाग का भी आकलन है कि भारत में इस बार उत्पादन 9.80 करोड़ टन होगा. अन्न योजना की अवधि छह बार बढ़ायी जा चुकी है और यह सितंबर तक चलेगी. मुफ्त अनाज देने की इस योजना ने न केवल कुछ हद तक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की है, बल्कि लाभार्थियों को अन्न मुद्रास्फीति से भी संरक्षित किया है.
सरकार इस योजना में धीरे-धीरे कमी ला सकती है, पर इसे यकायक बंद नहीं करना चाहिए. इस संदर्भ में यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि गेहूं का आयात न तो राष्ट्रीय शर्म की बात है और न ही इसका राजनीतिकरण होना चाहिए. हरित क्रांति की प्रारंभिक सफलता के बाद से कई दशकों तक भारत गर्व के साथ आत्मनिर्भर रहा है. सरकारी खरीद के जरिये किसानों को उत्पादन के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है. पर बीते वर्षों में भारतीयों के उपभोग का तौर-तरीका बदला है. लोग ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाजों की जगह गेहूं-चावल जैसे महीन अनाज अधिक खाने लगे हैं.
मांस और दूध से बनी चीजों का उपभोग बढ़ा है. ऐसे में अधिक अनाज के उत्पादन की जरूरत है. जानवरों के भोजन के लिए मक्के और सोया की खेती भी बढ़ानी पड़ी है. पशु आहार की मांग और कीमत बढ़ने से दूध में भी मुद्रास्फीति बहुत अधिक है. उपभोग में बदलाव का तीसरा रुझान यह है कि रेस्तरां और सामुदायिक रसोई में बना-बनाया खाना अधिक परोसा जा रहा है.
ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि उत्पादन में वृद्धि की वर्तमान दर से घरेलू उपलब्धता हमारे लिए पर्याप्त नहीं होगी. इसलिए देर-सबेर भारत को खाद्य सुरक्षा की ऐसी योजना बनानी होगी, जिसमें आयात पर या भारतीय कंपनियों को दूसरे देशों में खाद्य उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने पर बहुत जोर दिया गया हो. खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है. वैश्विक खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति पर हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019-21 के बीच भारत की आबादी का 40.6 फीसदी हिस्सा औसत या गंभीर खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त रहा. यह 10.7 फीसदी के वैश्विक औसत से बहुत अधिक है.
इस तरह, दुनिया के एक-तिहाई से अधिक भूखे और कुपोषित लोग भारत में हैं, जो कि चिंताजनक ही नहीं, अफसोसनाक भी है. वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत 101वें स्थान पर आ गया है. हालांकि इस सूचकांक में भारत की स्थिति कुछ वर्षों से सुधर रही है, पर अभी भी यह गंभीर है तथा संबंधित आंकड़े शोचनीय स्तर पर हैं. वैश्विक भूख सूचकांक में देशों की स्थिति का आकलन तीन आयामों- शिशु मृत्यु दर, बाल कुपोषण तथा खाद्य आपूर्ति का स्तर- के आधार पर किया जाता है.
खाद्य अर्थव्यवस्था के अन्य पहलू को देखें, तो खाद्य तेलों के आयात पर भारत की बहुत अधिक निर्भरता है. दाल, जो प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, का उत्पादन भी अपेक्षित गति से नहीं बढ़ रहा है और हमें अपनी आवश्यकता का 10 से 15 प्रतिशत हिस्सा बाहर से खरीदना पड़ता है. भविष्य में इसमें वृद्धि की संभावना भी है. हमारा देश दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन प्रति व्यक्ति उपभोग के वैश्विक औसत तक पहुंचने के लिए उत्पादन में व्यापक वृद्धि की आवश्यकता है.
दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए मक्के जैसे पशु आहार की पैदावार में भी भारी बढ़ोतरी की दरकार है. साथ ही, कृषि उत्पादन में वृद्धि की गति बढ़ाने का दबाव भी स्वाभाविक है. इस विवरण से स्पष्ट है कि निकट भविष्य में खाद्य आयात पर भारत की निर्भरता में बढ़ोतरी होगी. अब यह अपने-आप में न तो राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मामला है और न ही अपमान का. आखिरकार हम ऊर्जा स्रोतों के बड़े आयातक हैं, जिसे स्वच्छ ऊर्जा के अधिकाधिक उपयोग से कम होने की हमारी उम्मीद है.
इसी तरह से हमें खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए आगामी वर्षों में आयात बढ़ाने की दरकार है. इसके साथ-साथ हमें रणनीतिक योजना और समन्वय पर भी काम करना है. पैदावार बढ़ाने और फसलों में विविधता लाने में तकनीक की भी एक भूमिका होगी. लेकिन तब तक हमें खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करना है, उत्पादन में वृद्धि के लिए उन्नत तकनीकी क्षमता हासिल करना है तथा आयात को लेकर समुचित रणनीति बनानी है. खाद्य सुरक्षा तथा मूल्य स्थायित्व के लिए हमें बड़े पैमाने पर गेहूं आयात करना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)