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आधी आबादी : बेटी होना गुनाह है क्या ?

इस बार आधी आबादी के अंक में पढ़िए बोकारो की ऐसी ही चंद महिलाओं की कहानी उनकी जुबानी, जिन्होंने बताया कि एक महिला जब कुछ ठान लेती है तो उसे कोई भी ताकत मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोक सकती. पेश है चीफ सब एडिटर कृष्णाकांत सिंह की रिपोर्ट...

आधी-आबादी: रीता, संगीता, पूजा, पुष्पा और पल्लवी, ये महज एक नाम नहीं है. हुनर की चादर सीते हुए इन सबने बता दिया कि घर की दहलीज पार कर सफलता की कहानी लिखना मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं. सामाजिक रुढ़ियों की बेड़ियों ने इनके भी पांव जकड़ रखे थे, मगर इन्हें तो खुले आसमान में उड़ना था. हमारी आपकी तरह तरक्की का सफर तय करना था. ऐसे में इन्हें इनकी मंजिल को पाने से भला कौन रोक सकता था. वैसे भी मौके जब सीमित हों और महत्वाकांक्षाएं बड़ी तो संघर्ष बड़ा हो जाता है. हम पुरुष यह भूल जाते हैं कि महिलाओं के सामने अवसर बहुत हैं. फिर भी मौका मिलने पर हम यह कहने से नहीं चूकते हैं कि महिलाएं फलां काम नहीं कर सकती हैं, लेकिन हमें भी यह याद रखना चाहिए कि मर्द जिस काम को करने का दम भरते हैं, उस मर्द की जननी भी एक महिला ही है. उसके वजूद से ही हमारा मुस्तकबिल है.

मुखिया पुष्पा देवी की कहानी

सवाल आज भी मेरे जेहन में गूंजता रहता है. शायद इसलिए भी कि 21वीं सदी में जब यह हाल है तो पहले के जमाने में क्या होता होगा. यह सोच कर रूह कांप जाती है कि कैसे एक महिला ही महिला की दुश्मन हो सकती है. यह कहानी है जरीडीह प्रखंड के बाराडीह गांव की मुखिया पुष्पा देवी की. जिनकी दादी नहीं चाहती थीं कि मैं जिंदा रहूं. बेटी जो ठहरी. शायद यही वजह थी कि मेरी शादी महज 15 साल की उम्र में आठवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान इसलिए कर दी गयी कि बेटी सयानी हो जायेगी तो कौन हाथ थामेगा. और फिर बेटी तो पराया ही होती है. उसे क्या करना है पढ़ लिख कर. उसे तो चूल्हा चौका ही करना है. पति की सेवा करनी है. लेकिन पुष्पा ऐसी नहीं थी. जिस उम्र में बच्चे गुड्डे गुड़ियों से खेलते हैं, उसी उम्र में पुष्पा ने सपने देखना शुरू कर दिया था. औरों की तरह वह भी पढ़ लिख कर कुछ बड़ा करना चाहती थी, लेकिन क्या पता था कि गांव में जन्मी बेटियों को तो सपने भी देखना गुनाह है.

कम उम्र में हो गई थी शादी

कम उम्र में शादी और फिर बच्चे. कुछ समय बाद लाडले का इस दुनिया से चले जाना. इतना ही काफी था जिंदगी तार-तार होने के लिए, लेकिन पुष्पा ने हार नहीं मानी. जिंदगी की शुरुआत की. शादी के बाद बीए किया और समाजसेवा के जरिये अपना मुस्तकबिल तय किया. वो कहती हैं कि हजारीबाग के इचाक प्रखंड के छोटे से गांव लुंदुरु में पैदा होने के बाद मंजिल पाना आसान नहीं था. जिस समाज में बेटियों का होना ही बोझ समझा जाता है वैसे दोयम दर्जे के समाज में दो बार पंचायत समिति का चुनाव लड़ना और अपने काम के दम पर जीत दर्ज करना बहुत मुश्किल था. लोगों की आवाज बनना और उनके लिए लगातार काम करने के लिए ही दो बार पुरस्कार से नवाजा गया. राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं होता है. इसके बावजूद गंभीर मुद्दे पर हमेशा मुखर रहीं.

हर मुद्दे पर बनीं मुखर

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बात हो या फिर भ्रूण हत्या की, डायन प्रथा के खिलाफ हल्ला बोलने की बात हो या फिर दहेज के लिए जला दी जानेवाली लड़कियों के पक्ष में खड़ा रहने की. बुजुर्गों को राशन दिलाने की बात हो या विधवा पेंशन की. हर मोर्चे पर लड़ाई लड़ी और खुद को साबित किया कि एक बेटी, एक महिला वो सब कर सकती है, जो पुरुष कर सकता है. बकौल पुष्पा, जीवन में कई उतार-चढ़ाव देख चुकी हैं. बेटी होने की सजा तक मिली, लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाये घर की दहलीज मुझे रोक नहीं सकती. वो कर दिखाना है जिसे देख और सुन कर लोग बेटी होने पर गर्व करें. यह पूछे जाने पर कि आज जब आप मुखिया हैं तो समाज में क्या बदलाव लाना चाहती हैं. इस पर कहा कि मेरा विजन बहुत साफ है. शराबबंदी हो, बेटी को कमतर नहीं समझें, दहेज प्रथा खत्म हो और महिला को उसका अधिकार मिले. वो कहती हैं कि आज मुझे इस मुकाम तक पहुंचाने में पति मानकी प्रसाद कुशवाहा ने भरपूर सहयोग किया. आज तक उन्होंने मेरे किसी भी काम में हस्तक्षेप नहीं किया बल्कि हौसला देते हैं और कहते हैं कि मैं हूं ना.

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