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नयी किताब: नयी ज्ञान परंपरा की खोज

मणीन्द्र नाथ ठाकुर की किताब ‘ज्ञान की राजनीति’ समाज अध्ययन में व्याप्त पश्चिमी दर्शन के रूढ़ियों को रेखांकित करती है. समाधानस्वरूप किताब में ‘मनुष्य के स्वभाव की जटिलता’ को भारतीय चिंतन परंपरा के दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न किया गया है. आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण पर भी विशेष बल दिया है.

ज्ञान की राजनीति

मणीन्द्र नाथ ठाकुर की किताब ‘ज्ञान की राजनीति’ समाज अध्ययन में व्याप्त पश्चिमी दर्शन के रूढ़ियों को रेखांकित करती है. समाधानस्वरूप किताब में ‘मनुष्य के स्वभाव की जटिलता’ को भारतीय चिंतन परंपरा के दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न किया गया है. लेखक का तर्क है कि ‘भारतीय दर्शन में मनुष्य के स्वभाव के बहुआयामी होने की अवधारणा है’, जिससे समाज की जटिलता का बहुकोणीय विश्लेषण संभव है. किताब के पहले अध्याय- ‘भारतीय दर्शन से संवाद’ का मूल प्रश्न है कि समाज अध्ययन के विद्वान भारतीय दर्शन को क्यों महत्व नहीं देते हैं? उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में किताब के शेष अध्याय जुड़ते गये हैं. दूसरे अध्याय में ‘पुरुषार्थ’ और ‘विकार’ की अवधारणा को आधार बना कर समाज अध्ययन में इसके तार्किक प्रयोग को रेखांकित किया गया है. यहां ठाकुर का आग्रह है कि समाज अध्ययन के विद्वानों को समाज के तत्त्व मीमांसा की एक वैकल्पिक समझ बनानी चाहिए.

अनुभवजन्य ज्ञान की उपयोगिता

तीसरे अध्याय में समाज अध्ययन के लिए भाषा का विमर्श, अनुभवजन्य ज्ञान की उपयोगिता, भारतीय चिंतन परंपरा में मुक्तिकामी पक्ष इत्यादि विषयों पर विद्वानों के उपलब्ध समझ का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया है. लेखक का मूल प्रश्न है कि क्या हाशिये के समाज में समाज अध्ययन का कोई अपना स्वरूप संभव है. अगले अध्याय में आधुनिक चिंतन दर्शन में व्याप्त एकपक्षीय खंडित ज्ञान का सीमांकन करता है. पांचवा अध्याय चिंतन संवाद से न सिर्फ ‘ज्ञान की औपनिवेशिक राजनीति से ज्ञान परंपराओं को मुक्त’ करने के साथ ही ‘आज के समय की समस्याओं का भी बेहतर विश्लेषण करना संभव होगा.’

भारतीय जनतंत्र के जटिल प्रश्नों का हल भी खोजने का प्रयत्न

कई प्रकार के ‘विश्लेषणात्मक प्रयोगों’ को ठाकुर लगातार समय की कसौटी पर कसते रहने का आग्रह करते हैं. वे ज्ञान की राजनीति को आधार बना कर भारतीय जनतंत्र के जटिल प्रश्नों का हल भी खोजने का प्रयत्न करते हैं. अंतिम अध्याय धर्म के विमर्श को एक नया आयाम देता है और हिंदू धर्म में आंतरिक आलोचना की गंभीर परंपरा को रेखांकित करने के साथ ही उसकी उपयोगिता को प्रकट करता है. हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘अनाम दास का पोथा’ और जयशंकर प्रसाद की ‘कंकाल’ को आधार बना कर किताब इस सिद्धांत का परीक्षण भी करती है कि किस प्रकार मानव मुक्ति के आंदोलनों में संस्कृति, धर्म, दर्शन और भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, बशर्ते उसमें आंतरिक आलोचना का आत्मबल हो.

आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण पर विशेष बल

ज्ञान की राजनीति के संदर्भ में लेखक ने आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण पर विशेष बल दिया है. लेखन का अन्य पहलू है कि इसमें ज्ञान की राजनीति को व्यक्ति, समाज, दर्शन, राजनीति और अर्थनीति के उपागमों के संदर्भ में विश्लेषित किया गया है. समाज अध्ययन में हिंदी में इस तरह के सार्थक बहस का एक किताब के रूप में आना सुखद संभावनाओं को जन्म देता है. पश्चिमी दर्शन की सीमितता, पहचान और धर्म की राजनीति तथा मनुष्य की मुक्तिकामी होने की जिजीविषा के विभिन्न आयाम को किताब में तार्किक ढंग से रखा गया है. समाज अध्ययन के सुधि पाठकों के लिए यह किताब निश्चित रूप से एक नयी दृष्टिकोण उपलब्ध कराती है.

ज्ञान की राजनीति: समाज अध्ययन और भारतीय चिन्तन / मणीन्द्र नाथ ठाकुर / सेतु प्रकाशन, नयी दिल्ली

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