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Azadi Ka Amrit Mahotsav : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती नेताओं में से एक थे सुरेंद्रनाथ बनर्जी

ब्रिटिश राज्य को दौरान शुरुआती दौर के भारतीय राजनीतिक नेताओं में से एक थे. उन्होंने इंडियन नेशनल एसोसिएशन की स्थापना की. जो प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक संगठनों में से एक था. बाद में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गए थे. वह राष्ट्रगुरू के नाम से भी जाने जाते हैं.

आजादी का अमृत महोत्सव: 10 नवंबर 1848 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी का जन्म पेशे से चिकित्सक दुर्गा चरण बनर्जी के घर हुआ था. सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने शुरुआत में प्रेसीडेंसी कॉलेज से अपनी शिक्षा प्राप्त की. स्नातक की पढाई के बाद वे, रमेशचंद्र दत्त और बिहारी लाल गुप्ता के साथ 1868 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में बैठने के लिए इंग्लैंड चले गये. परीक्षा में चयन होने के बाद उन्हे ब्रिटिश भारत सरकार के अंतर्गत सिलहट (बांग्लादेश) में सहायक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्ति मिली, पर जल्द ही सुरेंद्रनाथ को पद से बर्खास्त कर दिया गया था. उन्होंने इल्बर्ट बिल का विरोध किया था.

पहले अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन किया

26 जुलाई, 1876 को उन्होंने आनंदमोहन बोस के साथ मिलकर इंडियन नेशनल एसोसिएशन और ऑल इंडिया नेशनल कॉन्फेंस की स्थापना की. वर्ष 1883 में कलकत्ता में प्रथम अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन में प्रमुख योगदान दिया. बनर्जी भारत में निर्मित माल की वकालत करते थे. साल 1879 में उन्होंने अंग्रेजी के समाचार पत्र ‘बंगाली’ को खरीदकर इसका संपादन भी किया, जो उनके उदारवादी राजनीतिक विचारों का मुखपत्र भी था. साल 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने अपने संगठन का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय कर दिया. बनर्जी ने 1895 में पुणे के 11वें अधिवेशन और 1902 में अहमदाबाद के 18वें अधिवेशन की अध्यक्षता की.

निधन से पहले लिखी आत्मकथा

स्वाधीनता आंदोलन में गरमपंथी नेताओं के बढ़ते प्रभाव ने सुरेंद्रनाथ के प्रभाव को भी कम कर दिया. देश के बड़े हिस्से और राष्ट्रवादी राजनेताओं द्वारा 1909 के मालें मिन्टो सुधारों की सहारना के बीच उन्होंने इसका विरोध किया. बंगाल सरकार में मंत्री पद स्वीकार करने के बाद उनकी घोर आलोचना हुई. 1923 में स्वराज पार्टी के बिधान चंद्र रॉय से हारने के बाद वे सार्वजनिक जीवन से अलग ही रहे. 6 अगस्त, 1925 को बैरकपुर में इनका निधन हो गया. मृत्यु से पहले उन्होंने 1925 में अपनी आत्मकथा ‘एक राष्ट्र का निर्माण’ लिखी थी.

सुबह हुई बेटे की मौत, शाम में सभा को किया संबोधि

एक दिन शाम को कलकत्ता में एक बड़ी राजनीतिक सभा होने वाली थी. उस सभा के प्रमुख वक्ता सुरेंद्रनाथ बैनर्जी ही थे. दुर्भाग्यवश उसी दिन सुबह उनके बेटे की मृत्यु हो गयी. यह दुखद सूचना चारों ओर फैल गयी. सभी ने सोच लिया कि इतने बड़े आकस्मिक आघात के साथ उनके द्वारा सभा का संबोधन भला कैसे हो सकता है. सभा में देश से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात होनी थी. अत: उसे रद्द नहीं किया गया. तय समय पर सभा शुरू हुई और वहां बैठी जनता यह देखकर दंग रह गई कि सुरेंद्रनाथ शांत कदमों से मंच की ओर बढ़े. उन्होंने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार ही सभा संबोधित की. वह सभा को ऐसे संबोधित कर रहे थे, मानो कुछ हुआ ही न हो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब कुछ नेताओं ने उनसे दुख प्रकट किया तो वह सहज भाव से बोले- जाने वाले को रोका नहीं जा सकता, लेकिन अपने कार्यों और संघर्ष से अंग्रेजों को यहां से अवश्य खदेड़ा जा सकता है. जो हमें छोड़कर जा चुका है, वह दोबारा जीवित नहीं हो सकता. यह कहते हुए उनकी आंखे नम हो गयी. वहां मौजूद भीड़ सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे व्यक्तित्व के आगे अपना सिर झुकाये खड़ी थी.

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