विश्व राजनीति की नियत और प्रकृति एक समान नहीं होती. वह समय और परिस्थिति के अनुरूप करवटें लेती है. पिछले दिनों जो कुछ हुआ, वह भारत की विदेश नीति के पक्ष में हुआ. अमेरिका, भारत, इजरायल और यूएई ने पिछले साल अक्तूबर में एक समूह बनाने की पहल की थी. नौ महीने में यह ढांचा तैयार हो गया और हाल में इस समूह की शिखर बैठक भी संपन्न हो गयी. शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पहली बैठक से आई2यू2 ने एक सकारात्मक एजेंडा स्थापित कर लिया है.
हमने कई क्षेत्रों में साझा परियोजनाओं का एक रोडमैप बनाया है. आई2यू2 समूह बनाने की मांग 18 अक्तूबर, 2021 को चार देशों के विदेशमंत्रियों की बैठक में पेश की गयी थी. आई2यू2 से तात्पर्य ‘भारत, इजरायल, अमेरिका और यूएई’ से है. संगठन का उद्देश्य पानी, ऊर्जा, परिवहन, अंतरिक्ष, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे छह अहम पारस्परिक क्षेत्रों में संयुक्त निवेश को प्रोत्साहित करना है.
पानी की समस्या, ग्रीन एनर्जी की किल्लत, खाद्य सामग्री और स्वास्थ्य सेवा जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर संयुक्त रूप से काम किया जायेगा. भारत में फूड कोर्ट के लिए पहल की गयी है. संगठन के भावी समीकरण को समझने की कोशिश करें, तो कई आयाम दिखायी देते हैं. इसके साथ ही, इस क्षेत्र में विविधता और कूटनीतिक विसंगतियों की चर्चा भी जरूरी है. शीतयुद्ध की शुरुआत के साथ ही अमेरिका ने दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया को दो अलग-अलग खेमों में बांट दिया था.
इजरायल-फिलीस्तीन टकराव को उसने मोहरा बनाया और पश्चिम एशिया के चंद देशों को अपना पिट्ठू. तेल व्यापार पर पकड़ मजबूत करने के लिए उनके बीच के तालमेल को कभी बढ़ने नहीं दिया. दूसरी तरफ, पाकिस्तान के बहाने अमेरिका भारत को पश्चिम एशिया से दूर ही रखा. भारत की परंपरागत विदेश नीति भी वैचारिक रूप से अलग बनी रही और इजरायल-फिलीस्तान के द्वंद्व में वर्षों तक अटकी रही. भारत 1950 में इजरायल को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देता है, लेकिन उसके साथ कोई कूटनीतिक संबंध स्थापित नहीं करता.
दोनों देशों के बीच कोई व्यापारिक तंत्र नहीं बना. इसका एक कारण यह भी था कि भारत का मुस्लिम समाज नाराज हो जायेगा. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल में इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए. लेकिन, यह नीति ज्यादा प्रभावी साबित नहीं हुई, या कहें गर्मजोशी का अभाव उसके बाद भी बना रहा. इस दौरान कोई उच्च स्तरीय यात्रा नहीं हुई.
न हमारे प्रधानमंत्री वहां गये और न ही न्योता दिया. साल 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इजरायल के प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन को गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि बनाया. विदेशनीति में यह क्रांतिकारी बदलाव था.
फिर मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में चार बार खाड़ी के देशों की यात्रा की. लेकिन, हर बार यह यात्रा बहुपक्षीय बैठक के सिलसिले में हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम एशिया को नये नजरिये से देखना शुरू किया. यूएई के साथ व्यापारिक संबंध के साथ-साथ सामरिक संबंधों की नींव डाली गयी. दूसरी तरफ, इजरायल के साथ भी सैन्य और व्यापारिक संबंधों को मजबूत किया गया.
चारों देशों के समूह की नींव इसी बदलाव का नतीजा है. रूस और चीन एक साथ हुए, चीन और अमेरिका के बीच द्वंद्व बढ़ा. ऐसे में पश्चिम एशिया की रणनीति में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण बनती गयी. यह समूह भारत के लिए कई तरह से मददगार साबित हो सकता है. पहला, खाड़ी के देश आपसी संघर्ष और द्वंद्व में बंटे हुए थे. लेकिन, एक दशक से उनके बीच भी बदलाव आया है. यह बदलाव भारत की सोच के अनुरूप है, इसलिए पश्चिम एशिया का बहुत बड़ा बाजार भारत के लिए सहायक होगा.
मसलन, एतिहाद रेल प्रोजेक्ट 2030 तक खाड़ी देशों को एक साथ जोड़ देगा. इसका सीधा लाभ भारत को मिलेगा. दूसरा, पाकिस्तान की मुस्लिम केंद्रित कूटनीति भारत के विरोध में कारगर नहीं रही. साल 2019 में कश्मीर से धारा-370 की समाप्ति कर भारत ने जब बुनियादी बदलाव को अंजाम दिया था, तब संयुक्त अरब अमीरात ने इसका समर्थन किया था.
ओआईसी यानी इस्लामी सहयोग संगठन, जो मुस्लिम बहुल देशों के बीच में बहुत प्रभावकारी था, वह भी अब कमजोर पड़ चुका है. भारत के साथ खाड़ी के देशों की सोच में बदलाव आ चुका है. तीसरा, भारत पश्चिम एशिया में अपनी ताकत और शक्ति के बूते पर है, न कि अमेरिकी रहमो-करम पर. आज इस क्षेत्र को एक नया स्वरूप देने में भारत की अहम भूमिका है, इसलिए बदलाव भारत की सोच के कारण से भी होगा.
ऐसा हो सकता है कि आगे चलकर ईरान भी इस ग्रुप का अंग बन जाये. इस बात की भी उम्मीद की जा सकती है कि रूस भी चारों देशों के इस संगठन में शामिल हो जाये. क्योंकि, रूस का संबंध इजरायल और पश्चिमी देशों के साथ अच्छे हैं. रूस जिस तरीके से क्वाड को देखता है, उस नजरिये से आई2यू2 को नहीं देखता.
चौथा, पश्चिम एशिया और खाड़ी के देश अफ्रीका और यूरोप को भी जोड़ते हैं. माना जाता है कि अफ्रीकी आर्थिक गति 21वीं शताब्दी में तेजी से आगे बढ़ेगी. ग्रीन एनर्जी के वहां अनंत साधन हैं. भारत एक विश्व, एक सूर्य और एक ग्रिड का समर्थन करता है. यह दृष्टि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही दी है. इसलिए, आनेवाले समय में इस चतुर्भुज का प्रसार पूरे अफ्रीका में हो सकता है.
इस क्षेत्र में अगर अवसर हैं, तो कई चुनौतियां भी हैं. सबसे अहम चुनौती चीन को लेकर है. चीन और इजरायल के बीच में सैनिक संबंध को लेकर अमेरिका ने भी विरोध प्रकट किया था. चीन ने पाकिस्तान में तैयार किये गये ग्वादर पोर्ट का इस्तेमाल ईरान के जरिये पश्चिम एशिया और अफ्रीका तक फैलने के लिए भी किया है.
दूसरी चुनौती अमेरिका के निहित स्वार्थ को लेकर भी बन सकती है. उसके इरादे भारत की सोच से अलग भी बन सकते हैं. लेकिन फिलहाल स्थिति भारत के अनुकूल है. चीन के विस्तार को पश्चिम एशिया में रोकने के साथ-साथ हिंद महासागर में भी अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाने की आवश्यकता है. इन कवायदों में यह समूह प्रभावकारी साबित होगा.