मधुश्रावणी व्रत को लेकर नवविवाहिताओं में उत्साह व उमंग का माहौल है. इस बार मधुश्रावणी व्रत 18 जुलाई यानि सोमवार के दिन से शुरू हो रहा है. 15 दिनों तक चलने वाला यह पर्व टेमी के साथ संपन्न हो जायेगा. इस पर्व में गौरी-शंकर की पूजा तो होती ही है साथ में विषहरी व नागिन की भी पूजा होती है.
नवविवाहिताओं द्वारा की जाने वाला यह व्रत अपने सुहाग की रक्षा की कामना के साथ किया जाता है. इस संबंध में गुरुधाम के पंडित गोपाल शरण महाराज ने बताया कि इस व्रत का एक अलग ही महत्व है. इसमें नवविवाहिता के ससुराल से दिये गये कपड़े-गहने ही पहनी जाती है और भोजन भी वहीं से भेजे अन्न का व्रती करती है. इसलिए पूजा शुरू होने के एक दिन पूर्व नवविवाहिता के ससुराल से सारी सामग्री भेज दी जाती है.
अमूमन नव विवाहिता विवाह के पहले साल मायके में ही रहती है. पहले और अंतिम दिन की पूजा बड़े विस्तार से होती है. जमीन पर सुंदर तरीके से अल्पना बना कर ढेर सारे फूल-पत्तों से पूजा की जाती है. पूजा के बाद कथा सुनाने वाली महिला कथा सुनाती है. जिसमे शंकर-पार्वती के चरित्र के माध्यम से पति-पत्नी के बीच होने वाली बाते जैसे नोक-झोंक, रूठना मनाना, प्यार, मनुहार जैसे कई चरित्रों के जन्म, अभिशाप, अंत इत्यादि की कथा सुनाई जाती है. ताकि नव दंपती इन परिस्थितियों में धैर्य रखकर सुखमय जीवन बिताये. यह मानकर कि यह सब दांपत्य जीवन के स्वाभाविक लक्षण हैं. पूजा के अंत में नव विवाहिता सभी सुहागिन को अपने हाथों से खीर का प्रसाद एवं पिसी हुई मेंहदी बांटती है.
पौष्टिक भोजन, सुंदर कपड़े, गहने, फूल लोढ़ने के क्रम में सखियों का झुंड मिले, सावन का फुहार पड़ता रहे, बादल घुमड़ता रहे, ऐसे में प्रियतम का याद आना स्वाभाविक हो जाता है. नवविवाहिताओं को इस पर्व व अपने प्रियतम का बेसब्री से इंतजार रहता है. साधारणत: नवविवाहित वर इस अवसर पर ससुराल जाते भी है. रोजी-रोटी के लिए कहीं दूर देश भी रहते हैं तो उनकी कोशिश होती है कि वे इस पर्व में ससुराल अवश्य जायें व सावन का आनंद लें.
शास्त्र के अनुसार माता पार्वती ने सबसे प्रथम मधुश्रावणी व्रत रखी थी व जन्म-जन्मांतर तक भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करती रही. यह बात हर नवविवाहिताओं के दिलो-दिमाग रहता है. यही कारण है कि इस पर्व को पूरे मनोयोग से मनाती है. इस पर्व के दौरान माता पार्वती व भगवान शिव से संबंधित मधुश्रावणी की कथा सुनने का प्रावधान है. खास कर समाज की वृद्धाओं द्वारा कथा सुनाया जाता है. साथ हीं बासी फूल, ससुराल से आये पूजन सामग्री, दूध-लावा व अन्य सामग्री के साथ नगा देवता व विषहर की भी पूजा की जाती है. कहा जाता है कि इस प्रकार की पूजा-अर्चना से पति दीर्घायु होते हैं. शादी के प्रथम वर्ष के इस त्योहार का अपने-आप में विशेष महत्व है. जिसकी अनुभूति को नवविवाहिता व नवविवाहित ही कर सकते हैं.
मधुश्रावणी के अंतिम दिन नवविवाहिता की परीक्षा जलते अग्नि की टेमी (बाती) से की जाती है. जिसमें सौभाग्य के प्रतीक उनके पति के उपस्थित होने की परंपरा है. मान्यता है कि पूर्ण पतिव्रता नारी के शरीर में स्पर्श होते ही आग शीतल हो जाती है और उसे कुछ नहीं होता. इसके बाद सुहागिनों से नवविवाहिता को आशीर्वाद मिलते हैं और कथावाचिका को श्रद्धापूर्वक दान-दक्षिणा और विदाई दी जाती है.
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व्रत के दौरान नवविवाहिता सज-धज कर फूल लोढ़ने के लिए बाग-बगीचे में सखियों संग निकलती हैं तब घर-आंगन बाग-बगीचा, खेत-खलिहान व मंदिर परिसर में इनकी पायलों की झंकार व गीतों से माहौल मनमोहक हो जाता है. जब अपने मायके व ससुराल से नवविवाहिता की टोली निकलती है तो उनका रूप, श्रृंगार, गीत और सहेलियों में प्रेम देखते ही लगता है कि शायद इंद्रलोक यहीं पर है. वहीं इस पर्व में नवविवाहिताएं बासी फूल से मां गौरी और नाग की पूजा अर्चना करती है. बता दें कि नवविवाहिताएं यह 15 दिनों का पर्व अपने सुहाग की लंबी आयु के लिए करती हैं. निर्जला व्रत के साथ नवविवाहिताएं इस पर्व को आरंभ करती है और 15 दिनों तक निष्ठापूर्वक रहकर अरवा भोजन खाकर पर्व मनाती हैं.