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पूर्वोत्तर भारत के साथ बढ़े जुड़ाव

पहली बार राष्ट्रीय राजधानी में आकर जनजातियों के बारे में आयोजित विमर्श में शामिल होना मेरे लिए गर्व की बात है. इस कार्यक्रम में शामिल होते हुए मेरे मन में सवाल आ रहा था कि यह 1947 के बाद थोड़ा जल्दी हुआ होता, तो जनजातियों के साथ सोच-विचारों को, देश के साथ मिलकर जाने में इतना मुश्किल नहीं होता.

पहली बार राष्ट्रीय राजधानी में आकर जनजातियों के बारे में आयोजित विमर्श में शामिल होना मेरे लिए गर्व की बात है. इस कार्यक्रम में शामिल होते हुए मेरे मन में सवाल आ रहा था कि यह 1947 के बाद थोड़ा जल्दी हुआ होता, तो जनजातियों के साथ सोच-विचारों को, देश के साथ मिलकर जाने में इतना मुश्किल नहीं होता. यह हमारे भावनाओं से जुड़ा हुआ विषय है. अगर हम अपने विषय में अपने सोच-विचार को बतायेंगे, तो आप कहेंगे नागालैंड भाजपा के अध्यक्ष हैं, तो अपने एजेंडे की बात कह रहे हैं.

लेकिन, ऐसा नहीं है. हम एक हिंदुस्तानी के तौर पर कह रहे हैं. साल 1999 में मैं ताज महल देखने गया था. उस समय आम देशवासियों की पंक्ति में मैं खड़ा हो गया. लंबी लाइन से होते हुए जब टिकट काउंटर पर पहुंचा, तो दो आदमी आये और मुझे दूसरी लाइन में लेकर चले गये. उस समय वहां प्रवेश शुल्क के तौर पर 20 डॉलर लेते थे.

उस समय तक तो मैं 20 डॉलर देखा भी नहीं था, मेरे पास था भी नहीं. मुझे वहां लोगों को बहुत समझाना पड़ा कि मैं हिंदुस्तानी हूं और नागालैंड से हूं. जब मैंने बोला कि मैं नागालैंड से हूं, तो किसी ने यह भी पूछा कि कौन से लैंड से हो. स्विटजरलैंड, फिनलैंड या कहां से हो. मैं उस दिन को नहीं भूलता और आज इस दिन को भी कभी नहीं भुलूंगा.

आज जनजातियों, पूर्वोत्तर के बारे में लोगों का विचार बदला है. हम एक साथ आगे आ रहे हैं. अपनी बात रखने का जो हमें मंच मिला है, वह जनजातियों और पूर्वोत्तर को गौरवान्वित करनेवाला है. हम लोग छोटे-छोटे गांवों में रहनेवाले जनजाति हैं. हम पहाड़ की चोटी, जंगलों में रहनेवाले लोग हैं. आज अगर हम देखें कि हूल दिवस क्यों मनाया जा रहा है. यह जनजाति समुदाय के बलिदान का प्रतीक है.

दो महिलाओं समेत 25 हजार लोगों ने देश की आजादी के लिए बलिदान दिया. हमें यह पता नहीं था कि देश की स्वाधीनता के लिए इतने लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी. इसी तरह हमारे राज्य नागालैंड में बारे में भी कुछ बातें कही जाती हैं, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं है. जैसेकि, सुभाषचंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज नागालैंड के रोजाजो इलाके में दाखिल हुई थी. हम नागालैंड सरकार का हिस्सा हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारी गठबंधन की सरकार है.

यह इकरार नहीं करते कि सुभाष चंद्र बोस वहां तक आकर चले गये. वहां आज भी 100 साल की उम्र तक पहुंच रहे बुजुर्ग लोग हैं, जो बताते हैं कि उस इलाके में नेताजी के साथ जापानी सेना लड़ने आयी थी. ऐसे ही संघर्षों के चलते देश की आजादी संभव हो पायी. बहुत लोगों के लिए आजादी की कहानी चंद परिवारों का नाम लेकर खत्म कर दी जाती है.

आज जब हम सुनते और जानते हैं कि इस देश की आजादी के लिए हम सभी ने कितनी भागीदारी की, हमारे पूर्वजों ने कितना संघर्ष किया, छोटे से छोटे इलाकों में अपनी स्वतंत्रता और अपने देश के लिए लोगों ने अपनी जान गंवाई. इन चीजों के बारे में हम बात क्यों नहीं कर रहे हैं. इस बारे में हम जानने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं. हमें करना चाहिए.

अंग्रेज जब आये, तो उन्होंने हर प्रकार से हमें प्रभावित करने की कोशिश की. एक नेरेटिव के तहत इतिहास को खत्म करने का प्रयास किया गया. उसका परिणाम, आज भी, विशेषकर पूर्वोत्तर के कई इलाकों में देखा जा सकता है. नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में बहुत से स्थानों पर वह नेरेटिव आज भी मौजूद है. हम सबकी जिम्मेदारी है कि उस गलत धारणा को लोगों के बीच से निकालकर सही जानकारी पहुंचायी जाये. हमें सच्चाई से लोगों को रूबरू करना चाहिए.

भारत माता की जय बोलने में हम गौरवान्वित महसूस करते हैं. लेकिन, पूर्वोत्तर के बहुत सारे स्थानों पर इस बात को लेकर सन्नाटा दिखता है, क्योंकि उन्हें गलत नेरेटिव का शिकार बनाया गया है. वे भारत माता की जय बोलने से हिचकते हैं. आज भी ऐसे स्थान हैं, जहां आप देश का ध्वज फहराना चाहेंगे, तो अकेले हो जायेंगे. हम सोचते हैं कि इतना विशाल देश के साथ इतनी स्वतंत्रता से जी रहे हैं, फिर भी उन सब नेरेटिव को सुधारने के लिए कोशिश नहीं हो रही है.

आज ‘माय होम इंडिया’ द्वारा देश के लिए, देशभक्ति के लिए (राजनीति के लिए नहीं), अखंडता के लिए जो कार्यक्रम किया जा रहा है, वह सराहनीय है. कोविड-19 महामारी के दौरान हमने देखा कि सुनील देवधर और उनकी टीम ने किस तरह पूर्वोत्तर के लोगों की मदद की. कितनी तकलीफों से लोगों को गुजरना पड़ा, लेकिन लोग पीछे नहीं हटे. मेरे राज्य तक लोगों के लिए जिस तरह मदद को पहुंचाया, उसके लिए मैं माय होम इंडिया का शुक्रगुजार हूं.

जब पूर्वोत्तर के बच्चे बाहर निकलते हैं, तो वहां लोग बहुत डर-डर कर भेजते हैं. लोग सोचते हैं कि कुछ तकलीफ होगी, तो उनका साथ कौन देगा. लेकिन पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के लिए लोग देश के अन्य हिस्सों में जाते हैं. वहां से आनेवाले बच्चों का अपने घरों, अपने कॉलोनियों में साथ दीजिये. वे थोड़े अलग होंगे, उनका खान-पान अलग होगा, लेकिन मन तो आपके जैसा ही होगा. हमें देश और समाज के उत्थान के लिए एक साथ आगे बढ़ना है.

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