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बीआरआइ के भविष्य पर सवाल

कर्ज जाल कूटनीति के अंतर्गत चीन की बेल्ट-रोड पहल ही ऐसी परियोजनाओं से की गयी, जो आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं थीं.

चीन ने जिस बेल्ट-रोड पहल (बीआरआइ) को बड़े जोश से दुनिया के सामने रखा था और जिस गर्मजोशी से संबंधित मुल्कों ने इसे स्वीकारा था और कई परियोजनाएं तैयार भी हो गयी थीं, आज उनका भविष्य अधर में है. यह पहल चीन द्वारा प्रस्तावित एवं समर्थित भारी-भरकम इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना है, जिसे औपचारिक तौर पर चीन ने 2013 में दुनिया के सामने रखा था.

बीआरआइ फोरम का पहला सम्मेलन 2017 में बुलाया गया था, जिसमें 100 से ज्यादा देशों ने भाग लिया था. भारत ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीआइसी) इसी का हिस्सा बताया गया है, जो जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से में बनाया जा रहा है, जो पाकिस्तान के कब्जे में है.

अप्रैल, 2019 के अंत में जब बीआरआइ फोरम का दूसरा सम्मेलन हुआ, तो इसमें पहले सम्मेलन से कहीं ज्यादा भागीदारी रही, लेकिन इसके साथ ही परियोजना के संदर्भ में कई प्रश्नचिह्न भी लगने शुरू हो गये. इससे बीआरआइ की सफलता की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गये थे.

श्रीलंका संकट से पूरी दुनिया सकते में हैं. इस संकट के पीछे कहीं न कहीं चीन का कर्ज है, जो श्रीलंका ने बंदरगाह और रेल आदि के निर्माण के लिए लिया था. पहले हंबनटोटा बंदरगाह के निर्माण हेतु लिये गये ऋण को न चुका पाने के कारण चीन ने उससे वह बंदरगाह ही हथिया लिया. ऐसे ही अन्य ऋणों को नहीं चुका पाने के कारण वह संप्रभु ऋण के जाल में फंसता चला गया. आज उसकी क्रेडिट रेटिंग इतनी कम हो चुकी है कि उन ऋणों को आगे बढ़ा पाना उसके लिए असंभव हो चुका है.

इसी तरह से केन्या के मोंबासा बंदरगाह पर भी चीन का कब्जा होना लगभग तय है. पाकिस्तान के वित्तीय संकट के तार भी किसी न किसी प्रकार से चीन के साथ जुड़े हैं. मालदीव, लाओस, जिबूती, मोंटेनेग्रो, मंगोलिया, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान आदि कई अन्य देश भी चीन की कर्ज जाल की कूटनीति का शिकार हो चुके हैं. इसे देखते हुए मलेशिया ने अपनी बेल्ट-रोड परियोजनाओं को बहुत छोटा कर दिया है.

जहां-जहां चीन की यह परियोजना शुरू हुई थीं, वह योजना पूर्णता प्राप्त करने की स्थिति में नहीं है. इन सभी मुल्कों में योजनाओं को शुरू तो कर दिया गया, लेकिन वहां की जनता इससे त्रस्त है. कई स्थानों पर इसके खिलाफ आंदोलन शुरू हो चुके हैं.

कर्ज जाल कूटनीति के अंतर्गत चीन की बेल्ट-रोड पहल की शुरुआत ही ऐसी परियोजनाओं से की गयी, जो आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं थीं. हंबनटोटा एक ऐसा बंदरगाह है, जहां आवागमन बहुत कम है. पाकिस्तान में बनी विद्युत परियोजनाओं द्वारा उत्पादित बिजली के वितरण का ढांचा ही नहीं था. इस कारण वह परियोजना लाभप्रद नहीं रही.

इन परियोजना के अंतर्गत बने मार्गों पर आवागमन शुरू ही नहीं हुआ है, लेकिन इन परियोजनाओं के कारण पाकिस्तान पर कुल 90 अरब डॉलर का विदेशी ऋण बढ़ चुका है, जिसमें 25 अरब डॉलर तो केवल चीन से ही है. इतने बड़े ऋण को चुका पाना पाकिस्तान के बूते की बात नहीं. नतीजतन, संप्रभु संकट के चलते उसकी क्रेडिट रेटिंग तो गिरी ही, उसकी मुद्रा की भी दुर्गति हो चुकी है.

आज जहां बेल्ट-रोड परियोजना के कारण संबंधित देश संकट में हैं, वहीं चीन के प्रति दुनिया का नजरिया तेजी से बदल रहा है. गौरतलब है कि यूरोप के देशों ने इस योजना को हाथों-हाथ लिया था, लेकिन कोरोना के फैलाव में चीन की भूमिका से सशंकित देशों की सोच में बदलाव आ रहा है. लॉकडाउन और आर्थिक गतिविधियों में व्यवधान के कारण भी इन परियोजनाओं में रुकावट आयी है.

चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती कड़वाहट के कारण यूरोपीय देशों का रुझान बदल रहा है. समझना होगा कि चीन समर्थित बेल्ट-रोड परियोजना के माध्यम से जहां पूरी दुनिया को रेल, सड़क और जलमार्ग से जोड़ने की योजनाएं चल रही हैं, वहीं कई अन्य परियोजनाएं भी प्रारंभ हो चुकी हैं. इनमें यूरोपीय संघ की ग्लोबल गेटवे, अमेरिकी नेतृत्व में ब्लूडॉट नेटवर्क, जी-7 देशों द्वारा संचालित बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड, जापान का क्वालिटी इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट, रूस का यूरेशिया इकोनॉमिक यूनियन तथा भारत, रूस व ईरान द्वारा समर्थित इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर आदि शामिल हैं.

अफ्रीका, एशिया और यूरोप के भूगोल पर केंद्रित चीन समर्थित बेल्ट-रोड परियोजना दुनिया की सबसे बड़ी परियोजना है, जिसमें 142 देश शामिल हैं, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते तेजी से बदलते अंतरराष्ट्रीय समीकरणों के कारण इस और अन्य परियोजनाओं पर भारी असर पड़ सकता है. चीन के लिए रूस की भूमि यूरोपीय बाजारों के लिए सबसे अधिक विश्वसनीय मार्ग था. रूस, यूक्रेन, पौलेंड, बेलारूस आदि बेल्ट-रोड की रेल योजना का बड़ा हिस्सा थे.

युद्ध के कारण इस योजना पर ग्रहण लग सकता है. अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती तनातनी से चीन और 17 मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों वाला बेल्ट-रोड सहयोग मंच पहले से ही मुश्किल में है और अब रूस और यूरोपीय देशों के बीच बढ़ते तनाव के चलते इस मंच को और अधिक धक्का लग सकता है. चीन और यूरोप के बीच जुड़ाव के लिए अब चीन को पुराने मार्ग पर ही आश्रित होना होगा, यानी रेल कनेक्टिविटी का उसका सपना अधूरा रह सकता है.

संभव है कि रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों और अन्य कदमों से प्रभावित रूस भी चीन की तरफ कदम बढ़ा सकता है, जिसका खामियाजा अमेरिका को भी भुगतना पड़ सकता है. रूस और भारत की दोस्ती दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण है. अल्पकाल में यह संभव है कि रूस को चीन के यूनियन पे पर भरोसा करना पड़े, लेकिन दीर्घकाल में उसके द्वारा इएइयू परियोजना को आगे बढ़ाना संभव है और चीन की हिस्सेदारी उसमें भी महत्वपूर्ण होगी.

यूरोपीय देश समझते हैं कि चीन खतरा बन सकता है. ऐसे में बेल्ट-रोड योजना को रोकना उनके लिए महत्वपूर्ण होगा. आगे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय ताकतों द्वारा अपने-अपने हितों की रक्षा की रस्साकशी के अंतिम परिणाम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन माना जा सकता है कि चीन की बेल्ट-रोड योजना अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंच पायेगी, इसकी संभावनाएं समाप्त होती दिख रही हैं.

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