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भावनाओं के ज्वार में बहना नुकसानदेह

भारतीय मुसलमानों का अपना कोई नेतृत्व कभी उभर नहीं सका, ऐसा नेतृत्व जिसे राजनीतिक पेचीदगियों की समझ हो, जिसकी विश्व दृष्टि व्यापक हो.

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार

naqvi.qw@gmail.com

नूपुर शर्मा की टिप्पणी से उपजे मुस्लिम आक्रोश के बाद देश के कई हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए. इस टिप्पणी से भारतीय मुसलमानों को पीड़ा हुई, उन्हें गुस्सा आया, यह स्वाभाविक था. उन्हें विरोध जताने का हक भी है. यह भी सच है कि इस टिप्पणी को हिंदुओं के एक बड़े वर्ग ने अत्यंत अशोभनीय, निंदनीय और अस्वीकार्य करार दिया था. मुसलमानों के लिए यह सुखद संतोष की बात होनी चाहिए थी कि पिछले कुछ सालों से उग्र हिंदुत्ववादी तत्वों और मीडिया के एक बड़े वर्ग के गठजोड़ द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जो घृणा अभियान चलाया जा रहा है, उसके बावजूद हिंदू समाज का बहुत बड़ा वर्ग नूपुर शर्मा की टिप्पणी के खिलाफ खड़ा था. यह बताता है कि भारतीय समाज बुनियादी तौर पर सेकुलर है और अभी हिंदुत्ववादी राजनीति के मोहपाश से अछूता है.

जब पिछले जुमे को कई जगह हिंसक प्रदर्शन हुए और बेहद उत्तेजक नारे, भाषणबाजी हुई और जब सोशल मीडिया पर ‘सर तन से जुदा’ जैसे वीडियो तैरने लगे, तो बहुत धक्का लगा. ऐसी उग्र जजबाती प्रतिक्रिया क्यों? मुसलमानों को जरा ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि उन्हें इससे क्या हासिल हुआ? क्या वे मोदी सरकार पर कोई दबाव बना पाये? क्या ऐसी हिंसा और उत्तेजक नारे लगा कर उन्हें उस सेकुलर हिंदू समाज का समर्थन मिल सकता है, जो हिंदुत्ववाद में विश्वास नहीं रखता?

यह सच है कि पिछले आठ बरसों में मुसलमानों के साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ और हो रहा है, जिससे उन्हें गहरी पीड़ा पहुंचती रही है. घरों पर बुलडोजर चलने, सरकारों और पुलिस-प्रशासन के पक्षपातपूर्ण सांप्रदायिक रवैये, मॉब लिंचिंग, हिजाब विवाद से लेकर मस्जिदों तक पर उठे सवालों से मुसलमान बेहद उद्वेलित हैं, लेकिन वे बड़े संयम के साथ चुप रहे. हो सकता है कि ये प्रदर्शन उनकी हताशा का प्रतीक हों, लेकिन अगर यह हताशा भी है तो यह एक बड़ी राजनीतिक नासमझी है.

इसी प्रदर्शन के दौरान वीडियो में एक इमाम चेतावनी दे रहे थे कि मोहतरमा ममता बनर्जी जी, आज आप सीएम की जिस कुर्सी पर बैठी हैं, वह इन्हीं मुसलमानों की दी हुई भीख है! यह इन मुसलमानों की राजनीतिक समझ का हाल है. जब देशभर में सेकुलर दल लगभग हाशिए पर आ चुके हैं और मुस्लिम वोटों का तिलिस्म शून्य हो चुका है, तब भी उन्हें जमीनी सच्चाई नहीं दिखती. उन्हें नहीं दिखता कि मुसलमानों के खिलाफ वोटों का ध्रुवीकरण क्यों और कैसे हुआ. क्यों सेकुलर दल अब मुसलमानों के मामले में कुछ बोलने से कतराने लगे हैं, क्योंकि अब कोई भी पार्टी हिंदू मतदाताओं को नाराज करने का जोखिम लेने की हालत में नहीं है.

यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया कि मुसलमानों को समझ में आ जाए कि वे जब तक नेतृत्व के लिए इमामों, उलेमाओं और उनके धार्मिक संगठनों पर आश्रित रहेंगे, तब तक उनका भला हो ही नहीं सकता. इतिहास साक्षी है कि मुसलमानों को उनके नेतृत्व ने हमेशा भावनाओं के ज्वार में बहाया, उनके मुद्दों की लड़ाई हमेशा धर्म के आधार पर लड़ी गयी, लेकिन इससे उन्हें हासिल कुछ नहीं हुआ.

मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनके हितों की थोड़ी-बहुत जो भी रक्षा हो सकती है, वह एक सेकुलर सामाजिक- राजनीतिक ढांचे में ही हो सकती है. इस सेकुलर ढांचे को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी केवल हिंदू समाज की नहीं है. मुसलमानों को भी इसे मजबूत करने के सलीके सीखने होंगे. यह केवल तथाकथित सेकुलर दलों को वोट देने से नहीं हो सकता, बल्कि यह सीखने से होगा कि व्यापक हिंदू समाज को साथ लेकर कैसे चला जा सकता है?

भारतीय मुसलमानों का अपना कोई नेतृत्व कभी उभर नहीं सका, ऐसा नेतृत्व जिसे राजनीतिक पेचीदगियों की समझ हो, जिसकी विश्व दृष्टि व्यापक हो, जो भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझता हो, जिसमें यह सलाहियत हो कि वह मुसलमानों के विभिन्न फिरकों को मतभेद भुलाकर एकजुट कर सके. साथ ही, धार्मिक एजेंडे को परे रख कर मुसलमानों को आर्थिक विकास और अच्छी शिक्षा के लिए प्रेरित कर सके.

हालांकि, पहले भी मुसलमानों की राजनीतिक पार्टी बनाने की कोशिशें हुईं, लेकिन विफल रहीं. असदुद्दीन ओवैसी भी ऐसी ही कोशिश में लगे हैं. लेकिन, दो कारणों से ऐसी कोशिश सफल नहीं हो सकती. पहला यह कि उन्हें मुसलमानों का शत-प्रतिशत वोट भी मिल जाए, तब भी वह गिनती की ही कुछ सीटें जीत पायेंगे, जिससे कुछ हासिल नहीं होगा. दूसरे यह कि अगर उन्हें मुसलमानों का व्यापक समर्थन मिल भी गया तो यह एक नये ‘जिन्ना सिंड्रोम’ को जन्म देकर एक और घातक ध्रुवीकरण करेगा, जो मुसलमानों के हित में नहीं होगा. संभवतः इसीलिए मुसलमान अरसे तक कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों पर निर्भर रहे. अंततः उनके वोट बैंक में तब्दील होकर न केवल बदनाम हुए, बल्कि इस स्थिति ने ऐसे हिंदू ध्रुवीकरण को जन्म दिया कि अधिकतर राज्यों में वोट बैंक के रूप में भी उनकी उपयोगिता खत्म हो गयी.

दूसरी तरफ, उलेमा और धार्मिक संगठनों के नेतृत्व ने मुसलमानों को नुकसान पहुंचाया. शाहबानो मसले पर धार्मिक नेतृत्व ने भले ही अपनी पीठ ठोकी हो, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में बड़ी तेजी से राम जन्मभूमि आंदोलन का जनाधार बढ़ गया. बाबरी मस्जिद के मसले पर भी यह धार्मिक नेतृत्व उत्तेजक भाषणों से मुसलमानों को मुगालते में रखे रहा. उसने कभी जमीनी सच्चाई का न तो आकलन किया, न ही कोई रणनीति बनायी. उसका कारण यही है कि उनकी कोई राजनीतिक समझ नहीं है. तो मुसलमान क्या करें. सबसे जरूरी है कि वे धर्म को बाकी मसलों से अलग रखें. उनकी पहली प्राथमिकता आर्थिक- सामाजिक उत्थान हो.

मुस्लिम महिला सशक्तीकरण पर बात हो. वे सोचें कि उनका विमर्श मस्जिदों से क्यों शुरू होता? यह विमर्श सभा-संगोष्ठियों, सम्मेलनों से क्यों नहीं? विमर्श का नेतृत्व उलेमा और इमाम क्यों करते हैं? क्यों नहीं इस विमर्श का नेतृत्व मुस्लिम लेखक, शिक्षाविद्, समाजविज्ञानी, वकील, डॉक्टर, पत्रकार, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ और ऐसे ही तमाम लोग करते हैं, ताकि भावुक विक्षोभ की बजाय बात व्यावहारिक धरातल पर हो. पसमांदा और अशराफ जैसी विभाजक रेखाएं भी मिटनी चाहिए. तभी हम तस्वीर बदलती हुई देख पायेंगे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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