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नागार्जुन की रचनाओं में लोकजीवन

अपने उपन्यासों की रचना नागार्जुन ने नव धनाढ्य वर्ग को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि हमारा जो लोक जीवन है और उसमें जैसे-जैसे आधुनिकता का समावेश हो रहा है, उसको ध्यान में रखकर की है.

ठंड से नहीं मरते शब्द

वे मर जाते हैं साहस की कमी से…

जनकवि नागार्जुन के संदर्भ में केदारनाथ सिंह की ये पंक्तियां एकदम फिट बैठती हैं. ‘जनकवि हूं मैं, साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं’ इस तरह अपनी बात कह देने के साहस का ही नाम हिंदी कविता में नागार्जुन है. महात्‍मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू से लेकर आपातकाल लागू करनेवाली इंदिरा गांधी तक की नागार्जुन ने अपनी कविताओं में खूब खबर ली.

जयप्रकाश नारायण की अगुआई में बढ़नेवाली संपूर्ण क्रांति के दौर में शामिल होने के बाद के अनुभवों के आधार पर उसे संपूर्ण भ्रांति वे ही कह सकते थे. चमत्‍कार कविता में वे लिखते हैं- महज विधानसभा तक सीमित है, जनतंत्री खाका/ यह भी भारी चमत्कार है, कांग्रेसी महिमा का.

नागार्जुन के यहां जन की अभिव्यक्ति देखने के ही स्तर पर नहीं होती, वह दृष्टि के स्तर पर भी होती है. वे जन की पीड़ा से सीधे संवेदित होकर निराला की तरह अपना कलेजा दो टूक नहीं करते, बल्कि वे उसे चिंतन के स्तर पर ले जाते हैं. वे चिंतित नहीं होते, बल्कि उसे धैर्य के साथ वहन करते हैं, जबकि शमशेर, जो कि जन की बजाय सुंदर को दृष्टि के स्तर पर देखते हैं, जन को लेकर करुण हो जाते हैं.

शमशेर की प्रवृत्ति ऊर्ध्वमुखी है, उनके यहां एक ऊंचाई है, तो नागार्जुन के यहां विकास क्षैतिज है, वहां विस्तार है. शमशेर की चिंता में शामिल होकर जन एक ऊंचाई को प्राप्त करता है, वह एक आदर्श स्थिति में आ जाता है, पर नागार्जुन का विस्तार जन को लेकर आगे बढ़ता है और जन-जन की ताकत से जुड़ता है. शमशेर जन को एक भविष्य देते हैं, तो नागार्जुन उसे भविष्य तक जाने की ताकत देते हैं.

नागार्जुन की कविता 80 फीसदी ग्रामीण भारत को खुद में समेट कर चलनेवाली कविता है, वह रघुवीर सहाय की तरह महानगरीय बोध में सीमित रहनेवाली कविता नहीं है, न वे अज्ञेय की तरह अभिजन तक सीमित रहनेवाली भाषा के कवि हैं. नागार्जुन के यहां चूल्हा रोता है, चक्की उदास होती है. रघुवीर सहाय के यहां रामदास उदास होता है, क्योंकि वह अकेला असहाय होता है, पर चक्की समूह की उदासी को लेकर चलती है, इसलिए वहां खुशी लौटती है. नागार्जुन के यहां दुख अकेला नहीं करता है, वह एकता का भाव पैदा करता है, जिसमें कानी कुतिया को भी आदमी के पास सोने की जगह मिलती है-

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास,

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास.

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त,

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त.

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद,

धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद,

चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद,

कौए ने खुजलायी पांखें कई दिनों के बाद.

पहली बार निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’ लिख कर गुलाबी संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया था. नागार्जुन ने सुअरी पर कविता लिखी, उसे भी मादर-ए-हिंद की बेटी कहा. विष्णु के अवतार सूअर के वंशजों पर लिखने की हिम्मत और कौन कर सकता है? हां, शमशेर भी कम नहीं हैं, ‘जूता चबाते कुत्ते के रूप में वे ही खुद को देख सकते थे.’ यह सब हमारी परंपरा का अंग है. अब जख्मों से रिसते मवाद को सुगंधित तेल से पोत किसी रहस्यवाद में जाना हमें पसंद नहीं. सारा कचरा हम खुद साफ कर देना चाहते हैं. मुक्तिबोध ने लिखा था-

‘इस दुनिया को साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए.’

नागार्जुन ने बेहिचक वह काम किया. एक ओर उन्होंने ‘गीत-गोविंद’ का अनुवाद कर हमें अतीत की रागात्मकता से परिचित कराया, तो दूसरी ओर लेनिन पर संस्कृत में श्लोक भी लिखे. प्रेमचंद के होरी और गोबर के बाद की अगली समर्थ कड़ी बाबा का उपन्यास नायक ‘बलचनमा’ ही साबित होता है.

अपने उपन्‍यासों में नागार्जुन अपने पात्रों का चित्रण इस तरह करते हैं कि उससे उसकी सहृदयता, सहजता और करुणा का पता सीधे-सीधे चल जाता है. नागार्जुन दरअसल भारतीय लोक जीवन की वास्तविकता का उद्घाटन करते हैं. नागार्जुन के सारे पात्र एक बड़ी लड़ाई लड़ते हुए देखे जाते हैं. जिस तरह बलचनमा कड़े संघर्ष के बाद अपने अस्तित्व को स्थापित करता है, उसी तरह ‘उग्रतारा’ की उगनी भी एक लंबे संघर्ष के बाद अपना अस्तित्व स्थापित करती है.

नागार्जुन के उपन्यास भारतीय लोक जीवन की आधुनिकता की कहानी हैं. अपने उपन्यासों की रचना नागार्जुन ने नव धनाढ्य वर्ग को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि हमारा जो लोक जीवन है और उसमें जैसे-जैसे आधुनिकता का समावेश हो रहा है, उसको ध्यान में रख कर की है. नागार्जुन का यह वह लोक है जो स्वाभाविक और सहज तरीके से आधुनिकता को ग्रहण करता चलता है.

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