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हिंदी सिनेमा में हिंदी भाषी क्षेत्र

हिंदी पट्टी के लेखकों-निर्देशकों के आने से कहानियों में बड़ा बदलाव हुआ है. देश के अलावा विदेशों में बसे दर्शक इन्हें चाव से देख भी रहे हैं.

हिंदी सिनेमा में बीते डेढ़ दशक में उन निर्देशकों, लेखकों और कलाकारों की उपस्थिति और प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है, जो हिंदी भाषी क्षेत्रों से आते हैं. अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, इम्तियाज अली समेत कई नाम हमारे सामने हैं. इनकी पढ़ाई-लिखाई हिंदी माध्यम और माहौल में हुई है. उससे पहले के दौर में अधिकतर निर्देशक मुंबई से होते थे और अमूमन आभिजात्य पृष्ठभूमि से आते थे.

उनकी पढ़ाई का माध्यम हिंदी नहीं थी. बहुत पहले हिंदी भाषा और हिंदी क्षेत्र से लोग आते थे. जैसे जब फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेंद्र ने तीसरी कसम बनायी होगी, तो उसे हिंदी में ही लिखा गया होगा और हिंदी में ही सोचा गया होगा.

मेरी समझ में बाद के समय में गैर-हिंदी भाषी लोगों का प्रभाव बढ़ा और जिन्हें हिंदी पढ़ने-समझने में कठिनाई होती थी, वे पटकथा रोमन लिपि में लिखवाने लगे, पर अब स्थिति बहुत बदल गयी है. अमिताभ बच्चन साहब देवनागरी में पटकथा मांगते हैं. पहले देवनागरी में स्क्रिप्ट मांगने की मेरी क्षमता नहीं थी. मैं रोमन पटकथा को हाथ से ही देवनागरी में लिख लेता था, क्योंकि मेरी भूमिकाएं छोटी होती थीं.

हमारे लिए लिपि एक चित्र स्मृति है. रोमन में लिखे अक्षरों-शब्दों को पढूं, तो वह असर नहीं होगा, जो देवनागरी में लिखे शब्दों का होगा. देवनागरी की पटकथा को मैं एक बार पढ़ कर याद कर लेता हूं. रोमन में लिखी पटकथा को याद करने के लिए उसे मुझे पांच बार पढ़ना पड़ता है. अंग्रेजी के प्रभाव का एक कारण यह भी रहा है कि फिल्म उद्योग में आपसी बातचीत में भी अंग्रेजी का चलन बहुत रहा है. आप ध्यान दें कि कुछ दशक पहले की हिंदी फिल्मों में अमेरिका व यूरोप बहुत दिखता है.

इसकी वजह यह थी कि जो फिल्मकार होते थे, उनके रिश्तेदार यूरोप में रहते थे. गर्मी की छुट्टियों में या पारिवारिक आयोजनों में उनका आना-जाना यूरोप और अमेरिका से था. अब जो फिल्मकार आये हैं, उनके साथ यह बात नहीं है. अनुराग कश्यप गर्मी की छुट्टियों में कहां जाते होंगे- गोरखपुर, ओबरा, बनारस! उनकी पढ़ाई ग्वालियर और दिल्ली में हुई. इसी तरह इम्तियाज अली जमशेदपुर, हजारीबाग, रांची जाते होंगे. मेरी स्मृति में बेलसंड, गंडक नदी, डुमरिया घाट, गोरखपुर जैसी जगहें हैं. मुझे लगता है कि कुछ समय पहले के निर्देशकों की स्मृति में चूंकि यूरोप था, तो उसका कहानी में या फिल्म में आ जाना स्वाभाविक था.

हिंदी पट्टी के लेखकों-निर्देशकों के आने से कहानियों में बड़ा बदलाव हुआ है. आप ‘बरेली की बर्फी’ देख लें. नितेश तिवारी की ‘दंगल’ जैसी फिल्में देख लें. मैं कहीं पढ़ रहा था कि उत्तर प्रदेश के हर शहर के नाम पर फिल्में या सीरिज बन चुकी हैं. मेरी एक फिल्म ‘शेरदिल- द पीलीभीत सागा’ कुछ दिन में आ रही है. झारखंड के जामताड़ा पर सीरिज आ चुकी है. केवल नाम ही नहीं, कहानियों में भी हिंदी पट्टी की मौजूदगी बढ़ी है और बढ़ रही है.

मेरी फिल्म ‘कागज’ आजमगढ़ की कहानी थी. यह भी उल्लेखनीय है कि दर्शक इन्हें चाव से देख भी रहे हैं. केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसे प्रवासी भारतीय भी ऐसी कहानियों को पसंद कर रहे हैं. उनके संदेश आते हैं कि जब वे इन फिल्मों और सीरिज को देखते हैं, तो उन्हें उनका बचपन याद आता है. इन दिनों हिंदी भाषी दर्शकों में दक्षिण भारतीय फिल्मों को लेकर दिलचस्पी बढ़ने की चर्चा है.

मैं सिनेमा के व्यावसायिक पक्ष को कम समझता हूं. कुछ सुपरहिट दक्षिण भारतीय फिल्में हिंदी क्षेत्र में हजारों थियेटरों में रिलीज हुई हैं. मैं हाल में पन्ना के पास भीतरी इलाकों में शूटिंग कर रहा था. वहां मैंने एक लड़के को ‘केजीएफ’ की तस्वीर वाली टीशर्ट पहने देखा. जहां ठीक से पेयजल की सुविधा नहीं है, वहां मुझे ऐसा दिखा. मैंने हाल की दक्षिण भारत की सफल फिल्में नहीं देखीं हैं, पर यह जानता हूं कि उनकी कहानियों में नायक ‘लार्जर दैन लाइफ होता है, चमत्कारिक दृश्य होते हैं.

उनकी हिंदी पट्टी में पहुंच बढ़ी है. इसे हिंदी सिनेमा के लिए समस्या नहीं माना जाना चाहिए. मैंने कई साल पहले एक तेलुगु फिल्म में काम किया है और कुछ प्रस्ताव भी आते रहते हैं, लेकिन अपनी व्यस्तताओं के कारण अभी दक्षिण भारतीय फिल्मों में काम करने की स्थिति में नहीं हूं. यह समस्या भी मेरे साथ है कि जब मैं भाषा को नहीं समझ पाता हूं, तो उस भाषा में अभिनय कर पाना मुश्किल हो जाता है.

कुछ दिन पहले ही मैं एक जंगल में था, जहां मैंने चीतल का एक परिवार देखा. उसमें एक बच्चा था, जिसकी आंखों में बहुत से सवाल थे- ये कौन लोग हैं, क्या हो रहा है. वह और उसके मां-बाप डरे हुए भी थे, चीतल वैसे भी थोड़े सहमे हुए प्राणी होते हैं. उस बच्चे को देख कर मेरे मन में विचार आया कि यह जीवन कुछ नहीं जानने से लेकर बहुत कुछ जानने-समझने के बीच की यात्रा है.

अपनी पट्टी के बच्चों-युवाओं को मेरी यही सलाह होगी कि प्रश्न करो, स्वयं से करो और स्वयं ही उसका उत्तर खोजने का प्रयास करो. आप किसी भी क्षेत्र में जाना चाहें, उसके लिए खूब मेहनत की दरकार है. इसके साथ ही अपनी क्षमता का सही आकलन भी करना चाहिए. यह समझना होगा कि अगर मेरी रुचि अभिनय में हो रही है, तो क्यों हो रही है? यह सवाल अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या इस क्षेत्र में मैं ग्लैमर, पैसे और लोकप्रियता के लिए जाना चाहता हूं या फिर मैं कला को समझना चाहता हूं और कला के माध्यम से मुझे खुद को समझना है?

मैं खुद भी एक जिम्मेदार व्यक्ति और जिम्मेदार अभिनेता बनना चाहता हूं, ताकि घाट-घाट का पानी पी चुकने के बाद मैं बाद के लोगों को बता सकूं कि किस घाट का पानी मीठा है और किसका खारा, लेकिन यह बातें मैं एक-एक कर लोगों को नहीं बता सकता हूं. इस बातचीत को बहुत सारे छात्र-युवा पढ़ेंगे, तो शायद मेरी बात बहुत लोगों तक पहुंच सकेगी.

एक बार यात्रा में पंजाब के एक बड़े अधिकारी मिले. कहने लगे कि आपका एक इंटरव्यू सुन कर मेरा बेटा चार दोस्तों के साथ सामान्य श्रेणी में रेल यात्रा पर निकल गया. कहीं मैंने कहा था कि ट्रेन से यात्रा करनी चाहिए और वह भी जनरल डिब्बे में, ताकि समाज और जीवन को समझ सकें. मैं परेशान हो गया कि सुख-सुविधा में पला-बढ़ा लड़का मेरी वजह से ऐसा करने निकल पड़ा. पर जीवन को जानना जरूरी है. (बातचीत पर आधारित).

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