Sarhul Puja 2022 रांची: झारखंड में प्रकृति पर्व सरहुल आज बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है, मान्यता के अनुसार ये पर्व सूर्य और धरती के विवाह के तौर पर मनाया जाता है. सखुआ के पेड़ पर फूल लगते ही लोग इसकी तैयारी में जुट जाते हैं. यूं तो आदिवासी समुदाय के सभी लोग इसे बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं लेकिन सभी लोगों के मानने का समय और तरीका अलग-अलग होता है.
उरांव समाज के लोग इसे चैत माह में मनाते हैं. कई लोग इसे सरहुल पर्व के नाम से पुकारते हैं तो कई इसे खद्दी पर्व के नाम से जानते हैं. इसकी तैयारी में लोग एक सप्ताह पूर्व ही जुट जाते हैं. सरहुल के एक दिन पहले ही केकड़ा पकड़ने और जलभराई पूजा की जाती है. अगले दिन घर में पूजा होने के बाद सरना स्थल में पूजा अर्चना होती है. जिसके बाद शोभायात्रा निकाली जाती है
हो समाज सरहुल को बाहा पर्व के रूप में मनाता है. प्रकृति के नये स्वरूप, नये फूल- पत्तों का सम्मान और स्वागत करता है. इसका आध्यात्मिक पहलू भी है. हमारे पुरखे जो पूजा-पाठ और अध्यात्म से जुड़े थे, उन्हें ऐसा आभास हुआ कि जीने की प्रक्रिया में कुछ भूल-चूक हुई है. ऐसा स्वप्न आया कि इसमें सुधार के लिए ऐसे फूल से पूजा करनी होगी, जो मुरझाया हुआ न हो. इसके बाद लोग जंगलों से कई तरह के फूल लेकर आने लगे, पर वे फूल गांव आते-आते मुरझा जाते थे. इसी क्रम में पुरखों ने साल के फूल की पहचान की़ जंगलों में इस फूल के खिलने पर बाहा पर्व मनाया जाता है
संतालों का बाहा (सरहुल) का त्योहार फागुन से शुरू होता है और चैत के अंत तक मनाया जाता है. बाहा पूजा के साथ नये साल में प्रवेश होते हैं. नये साल के प्रवेश करने पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त नये फूल-फल का सेवन करने से पहले संताल समुदाय अपने इष्ट देव मारांग बुरु, जाहेर आयो, मोड़े, तुरुई और अन्य देवी- देवताओं को सखुआ के फूल, महुआ के फल और मुर्गी- मुर्गा अर्पित करता है.
नायके (पाहन) तीन दिन पहले से शुद्ध शाकाहारी रहते हैं. पहले दिन वे चावल का हड़िया रखने के लिए मिट्टी का घड़ा, अरवा चावल, सिंदूर, काजल, दाउड़ा, तीर-धनुष, सूप, फूल झाड़ू आदि सामग्री की व्यवस्था करते है़ं. पूजा के दिन मारांग बुरु के लिए सफेद मुर्गा, जाहेर आयाे के लिए हेड़ाग मुर्गी और लिटा गोसांई (मोड़े को) के लिए आराग मुर्गा (रंगुवा/ लाल मुर्गे) का अर्पण किया जाता है
मुंडा समाज के लोग सरहुल को बाहा परब के रुप में मनाते हैं, सखुआ पेड़ और सरजोम वृक्ष के नीचे इस समाज के लोगों का पूजा स्थल होता है. जब सखुआ की डाली पर फूल भर जाते हैं इसके बाद गांव के लोग एक निश्चित तिथि निर्धारित कर इस पर्व को मनाते हैं. रीति रिवाज के अनुसार सबसे पहले सिंगबोगा परम परमेश्वर की पूजा की जाती है इसके बाद पूर्वजों और गांव के देवी देवताओं की पूजा होती है. पूजा समाप्त होने के बाद पाहन को लोग नाचते गाते उसके घर तक लाते हैं.
खड़िया समुदाय के लोग सरहुल को जांकोर पर्व के तौर पर मनाते हैं, ये दो शब्दों से मिलकर बना है. जांग+एकोर, यानी कि फलों-बीजों का क्रमवार विकास. ये त्योहार फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले शुरू हो जाता है. इसी दिन उपवास भी रखा जाता है. जबकि इसी दिन दिन के वक्त शिकार के लिए जाते हैं. फिर उसी दिन एक भार पानी दो नये घड़ों में ले जाकर रख दिया जाता है. दूसरे दिन पाहन पूजा करने के बाद चूजों की बलि देता है फिर दोनों घड़ों का पानी देखकर वर्षा की भविष्यवाणी करते हैं.
Posted By: Sameer Oraon