राजेन्द्र प्रसाद महतो ‘राजेन’
‘झाड़-झकांड’ शब्द से बने झारखंड में 32 चिह्नित जनजातीयों निवास करती हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है. आदिवासियों की सांस्कृतिक विरासत विभिन्नताओं से भरी पड़ी है. इन्हीं में से एक है पुष्पोत्सव. आदिवासी समुदाय का रंगोत्सव यानी होली के रंग से रंजित होने की परंपरा नहीं रही है, लेकिन आधुनिकता एवं शहरीकरण आदिवासियों के संस्कार व सांस्कृतिक परंपराओं पर अतिक्रमण कर रहा है.
बसंत उत्सव में पुष्प की बहार से आदिवासी मुग्ध रहते हैं. उनकी जीवनशैली का प्रकृति और जंगल के साथ अटूट बंधन रहा है. ये मूर्ति पूजक नहीं, सदैव प्रकृति के पुजारी रहे हैं. इनकी संस्कृति हिंदू एवं अन्य संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है, जो आदिवासीयत की विशिष्ट पहचान है. पुष्प उत्सव को सरहुल, खद्दी, बाहा और बा: परब जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. यह परब उनके प्रमुख त्योहारों में से एक है. संताल, उरांव, मुंडा, हो, आदि जनजाति समुदाय पुष्प उत्सव मनाते हैं.
गांव की पारंपारिक शासन व्यवस्था के मालिक मुंडा व माझी के द्वारा परब मनाने की तिथि सामूहिक परामर्श के बाद तय किया जाता है. परंपरानुसार, आदिवासीयत परब-त्योहार, पूजा-पाट व अन्य कार्यक्रम सामूहिक निर्णय के बाद ही तय होते हैं. फागुन माह के अंत व चैत माह के प्रारंभ के दिनों मेें पुष्प उत्सव पड़़ता है. आदिवासियों के लिए पुष्पों का यह त्योहार सृष्टि से संबंधित ईश्वरीय संदेशों की एक आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक कड़ी है. आदिवासियों में ऐसा विश्वास है कि मृत्यु किसी के अस्तित्व को नष्ट नहीं करती.
वह पतझड़ के समान समस्त सृष्टि में पुनः नये-नये फूल-पत्तों से अच्छादित हो जाती है. विश्वास में सृष्टि और उसमें चलता हुआ जीवन चक्र अनंत है. आदिवासी परंपरानुसार बसंत में पतझड़ आरंभ होने के साथ वे उस समय तक नये फल, फूल या पत्तों को नहीं खाते तथा पूजा-पाठ व अन्य कार्य में उपयोग नहीं करते, जब तक सरहुल व बाहा के दिन वे सृष्टिकर्त्ता व अपने पूर्वजों को नहीं चढ़ाते.
मारांग बुरु, जाहेर एरा तथा अन्य आराध्य देवताओं की आराधना की जाती है. परब के सारे प्रकरण का मार्गदर्शक होते हैं- देउरी या दिशोम नायके, जिसे पुजारी कहा जाता है. यह परब साल वृक्ष के नये पत्ते व फूलों के स्वागत व सम्मान में आयोजित होता है. इस उत्सव में विधिवत रूप से स्थानीय जंगल से साल के पत्ते व फूल लाने की प्राचीन परंपरा रही है. महिला व पुरुष पंक्तिबद्ध होकर पारंपारिक नृत्य-संगीत प्रस्तुत कर आराध्य देव का स्वागत करते हैं.
आदिवासी स्त्री-पुरुष सखुआ वृक्ष के पुष्प व टहनी को तोड़ कर जूड़े में सजाते तथा पगड़ी व कान में अति सुंदर ढंग से बांधते हैं, जो आकर्षण का केंद्र होता है. तत्पश्चात ग्रामीणों का जत्था निर्धारित पवित्र पूजा स्थल जाहेरथान पहुंचता है. जाहेरथान पर मुर्गा बलि चढ़ाने की परंपरा कायम है. बलि प्रथा के साथ-साथ घर में बनाया हुआ ‘डियांग’ का प्रसाद अर्पित करने का प्राचीन रिवाज रहा है.
डियांग को माड़ी या हड़िया के नाम से भी जाना जाता है. पूर्वजों को माड़ी अर्पित करने के उपरांत सामूहिक प्रसाद ग्रहण करने की परंपरा है. पूजा समाप्ति के पश्चात प्रश्नोत्तरी गीतों का दौर चलता है. आखड़ा में एकता के साथ आपसी प्रेम, मजेदार नोक-झोंक, हंसी-ठिठोली का अनुपम समावेश मिलता है तथा श्रवणीय गीतों का बहार बहती है.
वर्तमान परिदृश्य में आधुनिकता का गहरा प्रभाव आदिवासी सांस्कृतिक पर पड़ने लगी है. नयी पीढ़ी निज संस्कृति को छोड़ कर आधुनिक संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं, जो आदिवासीयत की सांस्कृतिक विरासत के लिए संकट का कारण बन रहा है. आखड़ा में मांदर की थाप की जगह अब डीजे लेने लगा है.