करिश्मा आकांक्षा और प्राप्ति के बीच पुल है. इसमें कामकाज आधारित लोकलुभावनवाद जोड़ दें, यह राजनीतिक लोकप्रियता हो जाती है. विशिष्ट मोदी जादू ने चार राज्यों में लोगों को सम्मोहित किया, वहीं अरविंद केजरीवाल की पंजाब जीत सिद्ध करती है कि एक राज्य के भरोसेमंद कामकाज को दूसरे राज्य में भुनाया जा सकता है.
भारत में वैकल्पिक राष्ट्रीय नेतृत्व का अकाल है. मात्र एक दशक पुरानी पार्टी आम आदमी पार्टी की शानदार जीत ने राष्ट्रीय आख्यान में सुराख कर दिया है. पंजाब जीत के बाद इस पार्टी और इसके साधारण नेता ने करिश्मा की परिभाषा बदल दी है कि यह प्रकाश से कहीं अधिक बाद की आभा है.
मनोरंजन व खेल में सेलेब्रिटी को आकर्षण बनाये रखने के लिए कई सहायकों पर निर्भर रहना पड़ता है, पर राजनीति में व्यक्ति को स्वयं ही अपनी छवि बनानी होती है. हालांकि, मोदी के करिश्मे ने उन्हें आकर्षक जन नेता बनाया है, पर वे बीस साल के भरोसेमंद प्रदर्शन के बाद ही असाधारण छवि के व्यक्ति हो सके. बीते दिनों मीडिया में केजरीवाल छाये रहे और विश्लेषक उन्हें भाजपा व मोदी का दीर्घकालिक विकल्प बता रहे थे.
इसमें संदेह नहीं है कि लोगों के मानस में उनकी जगह आप पार्टी के वोट शेयर से कहीं बहुत अधिक है, फिर भी उन्होंने अपनी पार्टी को ‘बेहतर दिन’ के वाहन के रूप में सफलता से प्रस्तुत कर दिया है. उनका संदेश है- सरकार का पैसा आम लोगों का है और उन्हें मुफ्त या मामूली दामों पर बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए. वे केंद्र सरकार के सामने भिड़ जाते हैं, जो उनको मात्र एक केंद्रशासित प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में देखती है. पर केजरीवाल डराने-धमकाने से परे होकर अपनी एक अलग भरोसेमंद छवि बना चुके हैं.
दिल्ली की तर्ज पर आप ने पंजाब में 42 फीसदी वोट शेयर के साथ चीन-चौथाई सीटें हासिल की है. साल 2017 में वहां इसे 27 फीसदी वोट ही मिले थे. आप ने अपने को बिखरे अकालियों, कमजोर भाजपा और भरोसा खो चुकी भ्रमित कांग्रेस के बरक्स एक बेहतर विकल्प के रूप में पेश किया. उसका जोर जीतने की संभावना और नये चेहरों पर रहा.
इसके 92 विधायकों में डॉक्टर, वकील, खिलाड़ी, शिक्षक, महिलाएं तथा कुछ दलबदलू भी हैं. केजरीवाल में संभावित नेताओं की पहचान का कौशल है. नये युवा नेतृत्व को बढ़ाने के इरादे से उन्होंने भगवंत मान को आगे रखा. भाजपा और कांग्रेस स्वाभाविक रूप से केजरीवाल के निशाने पर थीं. उन्होंने शिक्षित पेशेवर युवाओं को पार्टी में लिया.
साल 2014 में विदेशों में पढ़े उच्च मध्य वर्ग के कई लोग पार्टी में आये और दिल्ली में पार्टी को जीत दिलायी. केजरीवाल नये विकल्प के लिए सभी जातियों, समुदायों और वर्गों को साथ लेकर चले. आप पार्टी की कोई विचारधारात्मक हठधर्मिता या आर्थिक दर्शन नहीं है. उसके लिए केवल आम आदमी और आम औरत अहमियत रखते हैं.
अध्ययन बताते हैं कि 60 प्रतिशत से अधिक विधायक दूसरी बार हार जाते हैं. पंजाब में आप नेतृत्व ने हारनेवाले विधायकों की पहचान की और उनके सामने सही उम्मीदवार उतारा. दिसंबर, 2013 में दिल्ली के अपने पहले चुनाव में आप को 70 में से 28 सीटें मिलीं और उसने बाहरी समर्थन से सरकार बनायी, जो 49 दिन चली. साल 2014 में मोदी लहर के सामने वह सभी सात सीटें हार गयी.
साल भर बाद उसने बड़ी वापसी करते हुए विधानसभा में 67 सीटें हासिल की और भाजपा व कांग्रेस को क्रमश: तीन और शून्य पर पहुंचा दिया. केजरीवाल का मौजूदा मिशन नयी जगहों की तलाश है. साल 2012 में बनी आप पार्टी के पास अभी 156 विधायक हैं. इस लिहाज से वह देश की चौथी सबसे बड़ी पार्टी है.
सभी पुराने क्षेत्रीय और जाति आधारित समूह अपने राज्यों तक सीमित हैं या बसपा की तरह लुप्त हो गये हैं, पर केजरीवाल की छाया लंबी है. उनका इरादा हमेशा चुनाव जीतना नहीं होता, बल्कि वे अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाना चाहते हैं. वे दस साल से गोवा, उत्तराखंड, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केरल और मध्य प्रदेश में चुनावी प्रयास कर रहे हैं, पर कोई खास कामयाबी नहीं मिली है. उन्हें गुजरात में नगरपालिका चुनावों में सीटें मिली हैं. यह राज्य उनका अगला लक्ष्य हो सकता है.
आप को नयी राजनीतिक पारिस्थितिकी के लिए रचनात्मक और भरोसेमंद एजेंडा देने का श्रेय दिया जाना चाहिए. चूंकि पार्टी का जन्म भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ था, केजरीवाल ने दिल्ली में पारदर्शी सरकार देने के साथ शुरुआत की थी. संदिग्ध स्रोतों से धन लेने के बजाय उन्होंने आम लोगों से चंदा करना शुरू किया.
केजरीवाल ने पूरी तरह कल्याणकारी मॉडल को अपनाया. उन्होंने पानी, बिजली को सस्ता किया, मोहल्ला क्लीनिकों के जरिये मुफ्त स्वास्थ्य सेवा दी और आवश्यक सेवाओं को घरों तक पहुंचाया. उन्होंने शहर के इंफ्रास्ट्रक्चर का आधुनिकीकरण किया. आधुनिक सुविधाओं ने राजधानी के सरकारी स्कूलों की छवि बदल दी.
आप पहली पार्टी थी, जिसने वीआईपी कल्चर को खारिज किया था. प्रचार के मोदी मॉडल का अनुसरण कर केजरीवाल अपनी उपलब्धियों का खूब प्रचार कराया और अपनी छवि ऐसे नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, जो अपने वादे नहीं भूलता है. हालांकि उन्होंने शुरुआत एक आदर्शवादी के रूप में की थी, पर अब वे व्यावहारिक राजनेता हैं.
उनका अंतिम लक्ष्य किसी प्रकार अधिक से अधिक शक्ति पाना है. वे दूसरी पार्टियों से नेता लाते हैं. वे धनी और ताकतवर नेताओं की पहचान करते हैं. वे ऐसे लोग चुनते हैं, जो जनता से जुड़े हों और चुनाव जीत सकें. उन्होंने गोवा में एक जाने-माने पत्रकार को पार्टी का नेतृत्व नहीं दिया क्योंकि उनकी जनता में पकड़ नहीं थी.
लेकिन केजरीवाल की सफलता का मुख्य कारण कई राज्यों से कांग्रेस का लुप्त होना है. केजरीवाल उन राज्यों को निशाना बनाते हैं, जहां या तो कांग्रेस कमजोर है या सत्ता में है ताकि एंटी-इनकम्बेंसी का फायदा उठाया जा सके. उनकी रणनीति जीतना है या जीत की स्थिति नहीं होने पर पीछे हट जाना है, जैसा उत्तराखंड में हुआ. राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक कारक बनने के लिए केजरीवाल को अभी बहुत दूरी तय करनी है, पर वे धीरे-धीरे उस ओर बढ़ रहे हैं.