चुनाव रंगमंच की तरह होते हैं, जिसमें शोर-शराबा खूब होता है और एक ही चीज इंगित होती है- ताकत. कलाकार आख्यान बदल कर कथानक बदल देते हैं, असमंजस बढ़ता जाता है, नायक खलनायक हो जाता है, विदूषक मुख्य पात्र हो जाते हैं, सबसे लोकप्रिय नायिका नाकाम साबित होती है. बीते सप्ताह जब अंतिम संवाद कहे गये और परदा गिरा, तब उपसंहार बचा था.
वह जिस तरह अभिव्यक्त हुआ, उसमें वर्तमान लोकतांत्रिक इमारत के चार स्तंभ दिखते हैं- नरेंद्र मोदी अद्वितीय हैं, गांधी परिवार अवांछनीय हो चुका है, अरविंद केजरीवाल सुविचारित आश्चर्य हैं तथा क्षेत्रीय भी राष्ट्रीय ही है. मोदी, जय श्रीराम और भाजपा की तिकड़ी राष्ट्रीय गर्व के नये प्रतीक हैं. अकेले और सहयोगियों के साथ भाजपा का शासन 18 राज्यों में है. कांग्रेस के उलट उसके नेतृत्व की दूसरी कतार भावी शक्ति के रूप में उभर चुकी है. उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत के साथ दूसरा कार्यकाल हासिल कर योगी आदित्यनाथ राष्ट्रीय नेतृत्व की अगली पांत में शामिल हो गये हैं.
मोदी और योगी के साथ अमित शाह ने अपने को सफल संगठनकर्ता के रूप में स्थापित किया है. लगभग दो दशक बाद उनके रूप में पार्टी को ऐसा सेनापति मिला है, जो सांगठनिक लक्ष्यों के लिए कार्यकर्ताओं को अनुशासित रख सकता है. सजग प्रहरी के रूप में शाह ने पार्टी को हमेशा युद्धरत रखा. पिछले चुनाव का परिणाम आते ही अगले चुनाव का काम शुरू हो जाता है.
लोकसभा और विधानसभा समेत उत्तर प्रदेश में लगातार चौथी जीत से तीनों नेताओं के अचूक होने की छवि को बल मिला है. पार्टी के पास सर्वाधिक सांसद और विधायक हैं, पर देश के लगभग 4100 विधायकों में से इसके 1340 विधायक ही हैं. अस्सी के दशक के कांग्रेस के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ने के लिए भाजपा को अभी लंबी दूरी तय करनी है.
इसने कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया है, पर दक्षिण, पश्चिम और बंगाल की क्षेत्रीय पार्टियों के विरुद्ध इसे उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है. ताकतवर स्थानीय नेताओं के लगातार उभार को देखते हुए उन्हें अपदस्थ करना पार्टी के लिए मुश्किल हो सकता है. इसलिए राज्यसभा में संविधान संशोधन के लिए जरूरी समुचित बहुमत पाने में बाधा आ रही है. साल 2022 के जनादेश को 2024 के लिए सूचक नहीं मानना चाहिए, क्योंकि आम चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जायेंगे. उनका नतीजा विपक्षी एकता के रूप व स्तर पर भी निर्भर करेगा.
निष्क्रिय होते वंश के टूटे शीशे में गांधी परिवार में अब कोई आकर्षण नहीं बचा है. कांग्रेस पर इसका एक सदी लंबा नियंत्रण कमजोर हो रहा है. गांधी वंशजों को लोग देखते हैं, पर वोट नहीं देते. विभिन्न दलों से गठबंधन कर सोनिया गांधी कांग्रेस को लगातार दो बार सत्ता में लायी थीं. वे जननेता नहीं थीं, पर उन्होंने कांग्रेस और विपक्ष दोनों को एकजुट किया था, लेकिन उनकी संतानें पार्टी या वोटरों से नहीं जुड़ सकती हैं.
कांग्रेस एक दर्जन से अधिक राज्यों में मुख्य विपक्ष है और लगभग 200 लोकसभा सीटों पर उसका मुकाबला भाजपा से है, पर वह ऐसे विचार में बदल चुकी है, जिसके अवसान का समय अभी आना है. इसके प्रदर्शन ने वाजपेयी की भविष्यवाणी को सही साबित किया है. साल 1999 में अविश्वास प्रस्ताव का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि अभी भले ही कांग्रेस भाजपा पर हंस रही है, लेकिन एक दिन आयेगा, जब भाजपा पूरे देश पर शासन करेगी और कांग्रेस की स्थिति पर देश हंसेगा.
कांग्रेस को नये चेहरे, चाल और चलन की जरूरत है. गांधी परिवार मालिकाना का दावा कर सकता है, पर अगर पार्टी प्रबंधन का जिम्मा भरोसेमंद और लोकप्रिय नेताओं को नहीं सौंपा जायेगा, तो भारत मोदी के अनुमान से कहीं पहले कांग्रेसमुक्त हो जायेगा.
मोदी बीते सात सालों से परिवारवाद पर चोट कर रहे हैं. पंजाब में बादल परिवार की हार बता रही है कि उत्तर भारत में वंशवादी शासन को मतदाता खारिज कर रहे हैं. छह दशक के राजनीतिक जीवन में प्रकाश सिंह बादल पहली बार हारे हैं. यही हाल उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल का हुआ है. अखिलेश यादव बड़े यादव परिवार से संपर्क तोड़कर ही अपना राजनीतिक आधार बचा सके हैं.
उनका अस्तित्व मुख्य रूप से मुस्लिम-यादव वोट बैंक से जुड़ा हुआ है. वे मायावती की तरह मटियामेट नहीं हुए हैं, जो अब ऐसे नेताओं की सूची में शामिल हो चुकी हैं, जो जाति की हवा पर प्रतिशोध के लिए आये, पर ओस की बूंदों की तरह खो गये. दक्षिण में जगन रेड्डी और एमके स्टालिन ने क्षेत्रीय विकल्प के रूप में अपने लिए वैध जगह बनायी है, जहां दूर तक भाजपा कोई खतरा नहीं है.
इस माहौल में एक बाहरी नेता ने वैकल्पिक राष्ट्रीय आख्यान के लिए रास्ता खोला है. अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी ने पंजाब में तीन-चौथाई सीटें जीती हैं. पहली बार पंजाब में सिखों और गैर सिखों के बीच की धार्मिक व राजनीतिक दरार लगभग खत्म हो गयी है. जो केजरीवाल ने हासिल किया है, वह भाजपा को करना चाहिए था या वह कर सकती थी, पर नहीं कर सकी. पंजाब में अपने प्रशासनिक ढांचे को दिखाने का मौका केजरीवाल के पास है. अगर उड़ता पंजाब में सुधार होता है, तो आगे चलकर केजरीवाल इंद्रप्रस्थ के सिंहासन को बड़ी चुनौती देने की स्थिति में आ सकते हैं.
राजनीतिक दूरी के लिहाज से बहुत आगे का समय बहुत दूर होता है. वर्तमान जनादेश के बाद सभी गैर भाजपा दल एक सुसंगत व भरोसेमंद गठबंधन बनाने के लिए प्रयासरत हो सकते हैं, जो 2024 में मोदी के सामने मुश्किल खड़ी कर दे. ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, उद्धव ठाकरे और एमके स्टालिन विपक्षी एकता को नये सिरे से बनाने की कोशिश में हैं. स्टालिन का सामाजिक न्याय मोर्चा एक वैचारिक विकल्प दे सकता है, जो सामाजिक व आर्थिक समानता सुनिश्चित करे.
आय विषमता बढ़ने के साथ बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, सस्ती स्वास्थ्यसेवा और आवास की कमी बड़े चुनावी मुद्दे होंगे. मोदी और भाजपा को बेहतर सामाजिक कल्याण योजनाएं बनाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. व्यक्तित्व संचालित राजनीति की अवधि सीमित होती है. मोदी से बेहतर वैकल्पिक मोदी लाकर ही विपक्ष मोदी को अपदस्थ कर सकता है.