उत्तराखंड में भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों के ही अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे. हालांकि, कांग्रेस ने घोषित नहीं किया था, लेकिन हरीश रावत इस चुनाव में कांग्रेस का चेहरा जरूर थे. खास बात है कि मुख्यमंत्री पद के तीनों ही दावेदार अपना चुनाव हार गये हैं. तीनों दावेदारों के चुनाव हारने का एक मतलब तो यह है कि यहां घोषित किये गये दावेदार को जनता पसंद नहीं करती है.
इससे पहले भी यहां मुख्यमंत्रियों के हारने की परंपरा रही है. यहां नित्यानंद स्वामी हारे हैं. उसके बाद बीसी खंडूरी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था, वे भी चुनाव हारे थे. फिर, हरीश रावत भी हारे. अब पुष्कर सिंह धामी भी खटीमा से हार गये हैं. दूसरी बात, यहां इससे यह साबित हुआ है कि उत्तराखंड में कांग्रेस के पास जमीनी स्तर पर काम करने के लिए संगठन नहीं है.
कांग्रेस के पास उत्तराखंड में बड़े-बड़े नेता तो हैं, लेकिन जमीन पर पार्टी की मौजूदगी नहीं है. कितने बूथों पर तो उसके एजेंट भी नहीं रहे. कांग्रेस की जो पूरे देश में हालत है, कमोबेश वही हालत अब उत्तराखंड में भी है. राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो कांग्रेस के पास कई वर्षों से कोई अध्यक्ष नहीं है.
इसका मतलब है कि उसके संगठन का ढांचा बिल्कुल जर्जर हो चुका है, बल्कि कहीं-कहीं तो वह है ही नहीं. जहां रेल की पटरी नहीं है, पटरी उखाड़ दी गयी है, वहां रेल चलाने का क्या मतलब है. उतराखंड में उनकी जो स्थिति रही है, उसको वे सही से पहचान नहीं पाये, जबकि इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी के पास यहां जमीनी स्तर पर एक मजबूत सांगठनिक ढांचा है.
उसके जो अनुषांगिक संगठन हैं- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, महासभा आदि, उनके कार्यकर्ता गांव-गांव में हैं. कांग्रेस के पास ऐसा कोई संगठन भी नहीं है. सबसे बड़ी बात है कि इस बार मिथक टूटा है. अब तक जो पार्टी सत्ता में रहती आयी है, उसकी वापसी नहीं होती थी. वर्ष 2000 में राज्य का गठन हुआ था, उसके बाद हर बार सत्ता बदलती रही, लेकिन इस बार यह मिथक टूटा है.
भाजपा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर दिख रही थी, लेकिन कांग्रेस उसका फायदा नहीं उठा पायी. नाराजगी को वह वोटों में तब्दील नहीं कर पायी. इसका प्रमुख कारण यही है कि कांग्रेस का जमीन पर कोई संगठन नहीं है. आंतरिक असंतोष भारतीय जनता पार्टी में भी था, लेकिन वे अपने असंतोष को काबू कर लेते हैं. कांग्रेस ऐसा कर पाने में असफल रहती है.
हालांकि, कांग्रेस का जो पिछला प्रदर्शन था, वह इस बार थोड़ा बेहतर हुआ है, लेकिन वह सत्ता से दूर रह गयी. यह उसकी करारी हार ही कही जायेगी. दूसरा फैक्टर आम आदमी पार्टी का भी रहा. पहली बार यह पार्टी मैदान में उतरी थी. उसने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगायी है. प्रत्येक चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच खींचतान रहती है, लेकिन इस बार भाजपा दोबारा बढ़त बनाने में कामयाब रही है. इस बार यह चुनाव मुद्दों पर नहीं लड़ा गया है. महिलाओं की मतदान में अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी रही. लोगों को राशन मिला, गैस सिलिंडर दिये गये. इसका महिला मतदाताओं पर विशेष प्रभाव पड़ा.