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भारत में मेडिकल शिक्षा की मुश्किलें

लालच और ताकत का गठजोड़ भारतीय स्वास्थ्य तंत्र को बीमार बना रहा है. समय है कि कठोर कदम उठाते हुए ठोस प्रक्रिया अपनायी जाए.

जब युद्धग्रस्त यूक्रेन में भारतीय मेडिकल छात्र भटक रहे थे, तब केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कह दिया कि विदेश जानेवाले भारतीय छात्रों में 60 प्रतिशत चीन, रूस और यूक्रेन जाते हैं, क्योंकि वहां पढ़ाई सस्ती है. चुनाव के समय नुकसान की भरपाई के लिए केंद्र सरकार ने अभूतपूर्व अभियान ऑपरेशन गंगा की शुरुआत की.

बेसहारा छात्रों को गुलाब का फूल देने और सुरक्षित निकालने के लिए अनेक केंद्रीय मंत्रियों को यूक्रेनी सीमा पर भेजा गया. वहां 20 हजार छात्र थे. विडंबना यह है कि जोशी सच कह रहे थे. यह बीमारी उनके राज्य कर्नाटक में सत्तर के दशक में शुरू हुई, जहां कैपिटेशन फीस के बहाने मेडिकल कॉलेजों में धन बनाने का सिलसिला चला.

आज हमारे पास हर डेढ़ हजार नागरिक के लिए एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार प्रति हजार लोगों के लिए एक डॉक्टर होना चाहिए. यह कमी सीधे तौर पर चिकित्साकर्मियों की मांग और आपूर्ति में बढ़ती खाई से जुड़ी है. मेडिकल कॉलेजों की कमी और शुल्क संरचना में विविधता से दाखिले में बड़ी गड़बड़ होती रही है.

भारत उन देशों में है, जहां आबादी और सीटों की उपलब्धता का अनुपात बहुत खराब है और यह पूरे तंत्र में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी वजह है. पिछले साल लगभग 600 निजी व सरकारी मेडिकल संस्थानों में एमबीबीएस की केवल 90 हजार सीटें थीं. डेंटल सर्जरी में स्नातक के लिए अतिरिक्त 28 हजार सीटें थीं. इन 1.10 लाख सीटों के लिए 16 लाख से अधिक छात्र नीट के लिए पंजीकृत हुए थे.

हालांकि अब प्रवेश केंद्रीकृत प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा होता है, पर कुछ राज्यों की शिकायत है कि परीक्षा प्रणाली क्षेत्रीय भाषाओं और आकांक्षाओं के लिए अन्यायपूर्ण है. वोट के भूगोल, भाषाई हिसाब और विचारधारात्मक निर्देशों को लेकर व्यस्त भारत के नीति-निर्धारकों ने कभी भी स्वास्थ्य शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी.

ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छे अस्पताल नहीं हैं. विश्वस्तरीय संस्थान बड़े शहरों या विकसित राज्यों तक सीमित हैं. एक तिहाई मेडिकल सीटें पांच दक्षिणी राज्यों, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, में हैं. कर्नाटक में 9500 से अधिक सीटें हैं. महाराष्ट्र और गुजरात में 15 हजार सीटें हैं.

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों, जहां देश की लगभग आधी आबादी रहती है, में लगभग 20 हजार सीटें ही हैं. बीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में मात्र 7500 सीटें हैं. पश्चिम बंगाल में यह संख्या करीब 5000 है. हमारे मेडिकल कॉलेज देशभर के अस्पतालों को समुचित संख्या में स्वास्थ्यकर्मी मुहैया नहीं करा सकते. भारत में अभी 12 लाख से अधिक बिस्तरों वाले 70 हजार छोटे-बड़े अस्पताल हैं, जिनमें अधिकतर के पास नियमित उपचार के लिए पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं.

केवल सीटों की कमी के कारण ही छात्रों को बाहर नहीं जाना पड़ता है. प्रवेश प्रणाली की बेहद खराब संरचना, जिसमें जातिगत आरक्षण भी है, ने छात्रों को बाहर जाने पर मजबूर किया है. हालांकि शुल्क संरचना को लेकर हमारे देश में नियमन है, फिर भी बांग्लादेश, यूक्रेन, रोमानिया, पोलैंड, चीन और रूस की तुलना में यह बहुत अधिक है.

ये देश भारतीय छात्रों के लिए 20 हजार से अधिक सीटें मुहैया कराते हैं. भारत के निजी संस्थानों की तुलना में उनकी सालाना फीस एक तिहाई है. साथ ही, वहां छात्रों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं. नौकरशाही एक बढ़ता हुआ घाव है. बाहर से पढ़ कर आनेवाले छात्रों को डॉक्टर के रूप में प्रैक्टिस करने के लिए यहां एक परीक्षा पास करनी होती है.

अकादमिक प्रवेश के लिए हर चरण में शर्तें व बाधाएं खड़ी करने में भारत को महारत हासिल है, जिसका फायदा मेडिकल माफिया उठाता है. नये कॉलेज बनाने के लिए मंजूरी लेने के सिस्टम ने स्वास्थ्य मंत्रालय के बाबुओं या मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को अपार शक्ति दे दी है, जो अच्छे आवेदनों को भी बर्बाद कर देते हैं.

अस्सी के दशक में बिना डॉक्टरों के ही कुछ मेडिकल कॉलेज खोले गये थे. जब जांच होती थी, तब धूर्त संचालक दूसरे संस्थानों से मेडिकल स्टाफ और उपकरण लाकर रख देते थे. दूसरी ओर, मेडिकल काउंसिल एवं अन्य एजेंसियों ने नये कॉलेज बनाने के लिए अव्यावहारिक और खर्चीले निर्देश बना दिये हैं, जिनके तहत एक एमबीबीएस संस्थान बनाने में 180 करोड़ रुपये से अधिक लागत आती है.

स्वाभाविक रूप से एक निजी उद्यमी अपनी लागत छात्रों से वसूलना चाहेगा. स्थिति ऐसी बदहाल है कि एक भारतीय मेडिकल कॉलेज 133 ग्रेजुएट ही पैदा कर सकता है. यह आंकड़ा पश्चिमी यूरोप में 150, पूर्वी यूरोप में 225 और चीन में 930 तक है.

घातक भारतीय नौकरशाही ने स्वास्थ्य सेवा में कृत्रिम कमी पैदा की है. सीट बढ़ाने की बजाय उन्होंने संस्थानों को फीस बढ़ाने की अनुमति दी. चूंकि बड़ी संख्या में निजी कॉलेजों का मालिकाना प्रभावशाली राजनीतिक और कॉरपोरेट हस्तियों के पास है, इसलिए वे संस्थान केवल मुनाफे के लिए चलाये जाते हैं.

स्वास्थ्य सेवा गिरोह पैसा बनाने के नये-नये तरीके निकालते रहते हैं, जैसे एक करोड़ रुपये की एनआरआई कोटा सीट. बहुत से धनी भारतीय विदेशी रिश्तेदारों के सहारे इन सीटों को गलत ढंग से हासिल करते हैं. पसंद के कॉलेज में दाखिले के लिए भारतीय छात्र को वित्तीय और जातिगत बाधाओं को पार करना होता है.

दूसरे देश जाति या समुदाय की चिंता नहीं करते. बाहर पढ़ रहे छात्रों पर भारत 70 हजार करोड़ रुपये सालाना खर्च करता है. प्रधानमंत्री ने गलत नहीं कहा है कि छोटे देशों में पढ़ने जा रहे हमारे बच्चों की मजबूरी के लिए पिछली सरकारों की विफलता जिम्मेदार है. उन्होंने कहा, ‘2014 में हमारे देश में 387 मेडिकल कॉलेज थे. बीते सात सालों में यह संख्या 596 हो गयी है.

यह 54 प्रतिशत की वृद्धि है. 2014 से पहले केवल सात एम्स थे, अब मंजूर किये गये एम्स की संख्या 22 हो चुकी है.’ लालच और ताकत का गठजोड़ भारतीय स्वास्थ्य तंत्र को बीमार बना रहा है. समय है कि कठोर कदम उठाते हुए ठोस प्रक्रिया अपनायी जाए, ताकि शक्तिशाली स्वस्थ, स्वच्छ, आत्मनिर्भर और संपन्न भारत बनाने के लिए कल के चिकित्सक पैदा किये जा सकें.

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